कोई भी आंदोलन विचारों की शान पर तेज होता है। वैचारिक मतभेद, स्पष्ट मंजिल की कमी और राजनीतिक महत्वकांक्षा रखने वाले लोगों ने अन्ना आंदोलन को भटका दिया है। आंदोलन की सफलता या असलफता उसकी स्वीकार्यता पर निर्भर करता है। अन्ना के आंदोलन में भारतीय कम, ‘इंडियन’ ज्यादा शामिल रहे। यह आंदोलन भारतीय समाज में आए बदलावों को प्रतिबिंबित करता है। अफसोस इस बात का है कि जनांदोलनों को जन संगठन नहीं चला रही है, ‘सिविल सोसाइटी’ चला रही है। अब आंदोलन के लिए कंधे पर थैला टांगे, चना-लाही खाकर दिन-रात लोगों को गोलबंद करने वाले कार्यकर्ताओं की शायद जरूरत नहीं है। यह काम इंटरनेट, ट्विटर और फेसबुक की मदद से एनजीओ कर रहे हैं।
हम सभी जानते हैं कि कोई भी आंदोलन भारतीय परिपेक्ष्य में चंद महीने में कामयाब नहीं हो सकता है। हर जन आंदोलनों को अपनी मंजिल तक पहुंचने में काफी वक्त लगता है। आपातकाल जैसे आतंक राज के खिलाफ लड़ने में भी काफी समय लगा। जेपी आंदोलन में सभी को विश्वास था कि बदलाव की सूरत बना सकते हैं। वे मजबूत से मजबूत सत्ता तंत्र को हिला सकते हैं। 1960 के दशक के रेडिकल दौर की भी याद की जाए तो यह वह दौर था, जब हर युवा को भरोसा होता था कि वह दुनिया बदल सकता है। वह दुनिया को बदलने के सपने भी देखता था और उसके लिए चिंतन भी करता था, लेकिन यह दौर लंबे समय तक नहीं चल पाया। इसकी सबसे बड़ी वजह बाजारवाद थी। वर्तमान में दुनिया में हो रहे आंदोलन के माध्यम से परिर्वतन पर नजर डालें तो बेशुमार दौलत और निरकुंश राजशाही जैसे तंत्र की सामानांतर व्यवस्था आम लोगों के सपनों को बीते कई दशकों से दबाए हुई थी। बात ट्यूनीशिया की करें तो पिछले साल जनवरी में ही एक व्यापारी ने खुद को जला लिया। इसके बाद आम लोगों के प्रतिरोध का नतीजा रहा कि राष्ट्रपति बेन अली को देश छोड़कर भागना पड़ा। मित्र की राजधानी काहिरा का तहरीर स्क्वॉयर क्रांति का नुक्कड़ बन गया। जन आंदोलन का नतीजा है कि वहां के राष्ट्रपति होस्नी मुबारक को सत्ता से बेदखल होना पड़ा। लीबिया में शासन कर रहे कर्नल गद्दाफी को भी आम जनता ने सत्ता से बेदखल कर दिखाया। आम लोगों का यह संघर्ष यमन और सीरिया की सड़कों पर भी दिखा है। 2जी घोटाला, कॉमनवेल्थ खेलों में घोटाला सहित कई लगातार हो रहे घोटालों ने यूपीए-2 पर दबाव बढ़ा रहा था कि अन्ना के लोकपाल बिल में लोगों को अपना सुनहरा भविष्य दिखने लगा था। अन्ना का सादगी भरा जीवन और उनकी बेदाग छवि सरकार की ताकत पर भारी पड़ने लगी। आम जीवन में रोजाना भ्रष्टाचार के बिना कदम-कदम पर अटकने वाली दिल्ली की जनता अन्ना हजारे में गांधी का अक्स देखने लगी। शहरी मध्यमवर्गीय परिवार जो भ्रष्टाचार की भेंट ज्यादा चढ़ता है। इसमें अपना समाधान दिखने लगा। लेकिन ज्यों ही अन्ना आंदोलन ने राजनीतिक विकल्प देने की बात की। लोगों को लगा कि उनके भरोसे का कत्ल हो गया। बाबा रामदेव के मंच शेयर करने के दौरान ही लोगों का भरोसा उठने लगा था। लेकिन अन्ना पर अंधभक्त हो चुके लोगों का विश्वास धीरे-धीरे समाप्त हो रहा था। लेकिन राजनीति को कालिख की कोठरी समझने वाला आम इंसान को अन्ना टीम के इस फैसले से खुद का ठगा महसूस करने लगा। दूसरे गांधी के रूप में मशहूर हो रहे अन्ना ने भी आम जनभावना की गला घोंट दी। इसमे कोई संदेह नहीं है कि मनमोहन सिंह की ईमानदार छवि जरूर थी, लेकिन ऐसा लगने लगा था कि वे बेईमानों के ईमानदार कैप्टन बन गए हैं। ऐसी परिस्थिति में जनआंदोलन की जरूरत थी। संघर्ष की, स्पष्ट मंजिल के साथ कठिन परिश्रम की जरूरत थी, इनकी शुरूआत तो अन्ना आंदोलन में दिखा लेकिन अब यह आंदोलन मृतप्राय हो चुका है। लोगों का भरोसा उठ चुका है। अन्ना की टीम ने जनआंदोलन की हत्या कर दी।
आजादी के बाद लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने परिवर्त्तन का बिगुल फूंक देश को नया नेतृत्व प्रदान किया और जनता के समक्ष गैर कांग्रेसी दलों का एक बेहतर विकल्प प्रस्तुत किया। लेकिन बाद में इस राजनीतिक विकल्प का क्या हश्र हुआ? आज उस आंदोलन से निकले नेताओं पर कई संगीन आरोप अन्ना की टीम ने भी लगाए हैं। जब वे लोग संसदीय राजनीति की फिसलन से नहीं बच पाए तो इस जैसे नए आंदोलन के लिए तो चुनौती और बड़ी होगी। आंदोलन की मुख्य धारा अब मौजूदा राजनीति को अंगीकार करने और उसके जरिए परिवर्तन करने का प्रयास करेगी। क्या इससे सफलता अर्जित हो पाएगी? सत्ता के गलियारों में तमाम तरह की अफवाहों का बाजार गर्म हो चुका है। कोई इस आंदोलन को कांग्रेस का सेफ्टी वॉल्व तो कोई भाजपा के मतों का बिखराव करने का माध्यम बता रहा है। सच भी लगता है क्योंकि शहरी मध्यम वर्ग ही भाजपा के मतदाता हैं और अन्ना के समर्थन में भी यही वर्ग उतरा था। लेकिन अन्ना की टीम को यह सोचना होगा कि कोई राजनीतिक दल अचानकी ही सफलता अर्जित नहीं करता। पार्टी का गठन, सही लोगों की तलाश, और तमाम मुद्दों पर पार्टी की दृष्टि को सूत्रित करने का, और जनता के बीच उसे स्वीकृति और मान्यता दिलाने का काम वक्त लेगा। सैद्धांतिक राजनीति अपनी जगह, लेकिन व्यावहारिक राजनीति के पेंच से क्या ये लोग खुद को दूर रख पाएंगे? ‘सिविल सोसाइटी’ और जनसंगठन के द्वंद्व में फिलहाल जनसंगठन लहूलुहान चित्त पड़ा हुआ है और रामलीला मैदान में उसको गहरा दफन किए जाने का जश्न मनाया जा रहा है। खैर, अन्ना की टीम ने एक आंदोलन की हत्या तो कर ही दी।
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प्रकाश नारायण सिंह**
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