तौब़ा-तौब़ा
‘अन्ततः वह अकाल मृत्यु का ग्रास बन ही गया।’ मेरे अन्तस तक मेरी ही मौन वाणी तीर की भाँति चुभती चली गयी।
अभी उस अभागे की उम्र ही कितनी थी? यही कोई तीस-बत्तीस साल। पता नहीं, किस बुरे मुहूर्त में उसकी ड्यूटी पाँच नम्बर की कोठी में रहने वाले हाकिम के यहाँ लगी थी। बुजुर्ग हाकिम जितने रहम दिल इंसान थे, उतने ही पाषाण हृदय उनकी जवान बीबी थी, जो अपने से अधिक उम्र वाले पति की शान-शौकत और रुतबे की बदौलत ऐश करते हुए कोठी में काम करने वाले अनुचरों से पता नहीं किस बात पर रूठी रहती थी। नाना प्रकार से उन्हें प्रताड़ित करती रहती थी। बात-बात में उन्हें डाँटना-फटकारना, काम में खुन्नस निकालते हुए गाली-गलौज तक में उतर आना, उसके लिए आम बात थी। मेरे विभाग के लोगों की ज़ुबान मंे अलग-अलग किस्से पाँच नम्बर वाली कोठी की लेडी हाकिम के बारे में हर वक्त मौजूद रहते।
एक दिन बीमार-सा दिख रहा यूनुस मुझसे बोला था, ‘‘हुजूर! रोज़ी की मजबूरी हर बात सहन करने के लिए मजबूर करती है। जी रहे हैं ऊपर वाले के रहमोकरम पर
….नौकरी जी-जान से किए जा रहे हैं, पता नहीं कब पाँच नम्बर वाली कोठी में दूसरे हाकिम आयेंगे और कब हमारी तकदीर बदलेगी? सच कहता हूँ, माई बाप! रोज सवेरे-सवेरे पन्द्रह किलोमीटर साइकिल भांजने के बाद आठ बजे सुबह कोठी पहुँच जाता हूँ। दिनभर काम करने के बाद सारे शरीर का कचूमर निकाल देता हूँ तब भी सिर के ऊपर हर समय कच्चे धागे में बंधी तलवार लटकती रहती है….. कहीं कुछ उल्टा सीधा न घट जाये? नौकरी गयी तो क्या खायेंगे बीबी बच्चे? नौकरी करते बारह बरस होने को हैं पर अभी तक डेली वेजेज में चल रहा हूँ….पता नहीं कब तलक पक्की होगी नौकरी…..?’’
यूनुस जब-जब अपनी माहवारी लेने मेरे पास आता कुछ न कुछ ऐसा कह-सुना जाता, जिसे सुनकर मेरे मन में उसके प्रति हमदर्दी और पाँच नम्बर की लेडी हाकिम के प्रति क्रोध व क्षोभ उत्पन्न होने लगता। क्या वह बिना डाँट फटकार के दूसरे लोगों की तरह अपने सेवकों से प्रेम से काम नहीं ले सकती? किसी का दिल दुखाते क्या अच्छा लगता है?
यूनुस ने एक बार मुझे बताया था, ‘‘कैशियर साहब! मेेरे बीमार हो जाने से मेरे नागा बहुत होने लगे थे तो मेमसाहब बोली थीं, ‘यूनुस बीमारी में मत आया कर।’ तो मैंने कहा ‘बीबी जी आऊँगा नहीं तो क्या खुद खाऊँगा और क्या अपने बीबी-बच्चों को खिलाऊँगा? मैं महीने में दस-दस नागा नहीं कर सकता।’ तब साहब! वह बोलीं कि ‘तू अपनी बीबी को भेज दिया कर, वह तेरे बदले में काम कर दिया करेगी। इस तरह तेरा नागा भी नहीं कटेगा।’ हुजूर! मेरी बीबी के दूसरा बच्चा पेट में था…. छठा महीना चल रहा था। जब मेरा शरीर उठने लायक भी नहीं रहा तो मैंने अपनी बीबी को काम पर भेज दिया….. और पहले ही दिन उस बेचारी के सामने कपड़ों का ढेर लगा दिया धोने के लिए। वह सहमी सकुचाई दिन भर कपड़ों की धुलाई करती रही और काम निपटा कर घर लौटते समय रास्ते में बेहोश होकर गिर पड़ी। भला हो, उस रिक्शेवाले का जिसने उसे मेडिकल कालेज में भर्ती करा दिया। वहाँ से आराम पा वह अकेली घर आ गयी फिर पूरे दस दिन बिस्तर से उठ न सकी… बस यही कहती रही, ‘तुम वहाँ कैसे काम कर लेते हो…? ऐसे काम से तो जेल की सजा अच्छी.. ये नौकरी छोड़के कोई काम-धन्धा पकड़ लो…मैं तुम्हें ये नौकरी नहीं करने दूँगी।’ अब आप ही बताइये खजांची साहब! उस गरीब को यह भी नहीं मालूम कि मुझे दिल की बीमारी है। डॉक्टर ने ज्यादा मेहनत और साइकिल चलाने से सख्त मना किया है। वह हाँफते हुए बोला, दवाइयाँ तो मेडिकल कालेज के देवता समान डॉक्टर शरन साहब मुफ्त में दिलवा देते हैं पर रोटी के लिए नौकरी तो करनी ही पड़ेगी।’’
अपने सहयोगी हरीश बाबू के स्कूटर पर बैठकर मैं भी यूनुस की मिट्टी में सम्मिलित होने आ गया हँू। पुराने शहर की सँकरी गली के बहुत अंदर एक पुराने से खण्डहरनुमा मकान के एक हिस्से में यूनुस की रिहाइश थी। ढाल होने के कारण सॅकरी गली के दोनों ओर बदबूदार पानी बह रहा था। रूमाल से अपनी-अपनी नाक दबाये जब हम दोनों यूनुस के घर पहुँचे तब शव को ताबूत में रखा जा रहा था। अंदर के दरवाजे पर लगे परदे के पीछे से महिलाओं की सिसकने की आवाजें आ रही थीं। शव के पास खड़ा यूनुस का पाँच वर्षीय बेटा इस बात से अनभिज्ञ कि उसके और उसके परिवार के ऊपर वज्रपात हुआ है, षान्त भाव से सब कुछ घटता देख रहा था।
लोबान से धुआँ कर रहे मौलवी साहब अपने होंठों से कुछ बुदबुदा रहे थे। वहाँ पर कुल जमा बारह-तेरह लोग थे, जिसमें मेरे सहित तीन चार लोग ऑफिस से थे, जो एकत्रित लोगों की दृष्टि में स्वयं को विशिष्ट महसूस कर रहे थे।
एक ने हम लोगों से कहा कि अभी मुरदे को गुसल कराने ले जाया जायेगा फिर करबला में दफनाने…… आप लोग चाहें तो सीधे करबला पहुँच जायें…. मेरे अलावा शायद ऑफिस के दूसरे लोग किसी तरह वहाँ से अपनी हाजिरी दे खिसकना चाह रहे थे। हरीश भी यही चाह रहा था पर वह मेरी वजह से रुका रहा।
यूनुस की मृत्यु हृदयाघात से हुई थी। वह दिल का मरीज था। ठीक से दवा और परहेज न कर पाने के कारण उस बेचारे की अकाल मृत्यु हुई थी। सभी की ज़ुबान में पाँच नम्बर की कोठी की लेडी हाकिम यमदूत की तरह बतायी जा रही थी।
‘‘हाकिम, कितना राजा आदमी और उसकी बीबी…. या अल्लाह!’’
‘‘भाई साहब एक बात बताऊँ।’’ हरीश ने मुझसे कहा।
‘‘हाँ बोलो।’’
‘‘ये औरत भी क्या चीज़ होती है?’’
‘‘तुम्हारा मतलब’’ क्योंकि मैं नारी को चीज़ कहने वालों का प्रबल विरोधी हूँ।
‘‘मतलब साफ है…. हाकिम एक तो अपनी बीबी से अधिक उम्र का, बीबी के नाज़ नखरे उठाने वाला, भीरु और बीबी का गुलाम है। ऊपर से जहाँ बंाग्लादेश का नक्शा देखा तो फालन…..।’ फिर खीखी हँसते आगे बोला, ‘भला ऐसे शौहर अपनी बीबी की इच्छा के विरुद्ध कहाँ जा सकते हैं।’’
मैं उसके मुँह को ताकने लगा। कैसी-कैसी सोच के लोग हैं। अपने कहे पर कतई शर्मिन्दा नहीं। हरीश ने अपनी पैण्ट की जेब से सिगरेट की डिब्बी और लाइटर बाहर निकाला, सिगरेट होंठों में दबायी, उसे लाइटर से सुलगाकर धुआँ उड़ाने लगा।
वह जानता था कि मैं सिगरेट नहीं पीता। अते वह इस बात का बराबर ध्यान रख रहा था कि सिगरेट का धुआँ मेरे चेहरे के पास तक न पहुँचे।
यूनुस की लाश को नहलाया धुलाया जा चुका था। ताबूत में बन्द यूनुस के नहाये धोये, दुबले पतले शरीर की मन ही मन कल्पना करते हुए मैं हरीश के पीछे उसके स्कूटर पर बैठ गया।
युनुस के घर से करबला कुछ फर्लांग की दूरी पर ही था परन्तु हरीश को शवयात्रा के साथ चलना गवारा नहीं था। उसने सिगरेट का तेज कश खींचा और स्कूटर एक ही किक में स्टार्ट कर ली।
‘‘यूनुस के घर में कौन-कौन है?’’ मैंने वैसे ही हरीश से पूछा।
‘‘कहने को तो चार भाई हैं पर चारों में आपस में बनती नहीं थी। यूनुस अकेला नौकरी करता था बाकी भाई छोटा मोटा धंधा करते हैं। अब वे पुश्तैनी मकान का वह हिस्सा भी हड़पना चाहेंगे जिसमें यूनुस अपने परिवार के साथ रहता था।
‘‘ऐसा क्यों?’’
‘‘यूनुस के भाई सौतेले हैं, झगड़ालू और दबंग उसकी बीबी बेचारी दो बच्चों के सहारे उनसे कहाँ भिड़ सकेगी। दो चार महीने में ही मायके भाग जाने को मजबूर कर दी जायेगी।’’
‘‘मायके में तो कोई होगा जो उसकी मदद करेगा।’’
‘‘बताते हैं….. एक भाई है….. माँ-बाप भी जिन्दा हैं…भाई यहीं शहर में किसी दवा फैक्ट्री में काम करता है।’’
‘‘तुम्हें यूनुस के परिवार के बारे में काफी जानकारी है।’’ मैंने वैसे ही हरीश से प्रश्न किया।
‘‘हाँ भाई साहब!…… गाहे-बगाहे वह मुझसे जरूरत पड़ने पर रुपये उधार लिया करता था। बस पूछने बताने से पता चलता गया।’’
करबला आ गया था। हरीश ने अपनी स्कूटर एक दरख्त के नीचे रोककर खड़ी कर दी।
‘‘डेली वेजेज में था बेचारा……उसकी बीबी को मृतकाश्रित में नौकरी भी नहीं मिल सकती।’’ मैंने आशंका जताई।
‘‘क्यों नहीं? पाँच नम्बर कोठी का हाकिम चाह ले तो क्या नहीं हो सकता?’’ हरीश दूसरी सिगरेट सुलगाते लापरवाही से बोला।
‘‘नौकरी मिल जाये तो उसके परिवार के लिए अच्छा रहेगा।’’
‘‘……. और अगर उसकी भी ड्यूटी पाँच नम्बर कोठी में लग गयी तो वह बेचारी भी काम से लग जाएगी।’’ मुँह से दूसरी ओर ढेर-सा धुआँ उगलने के बाद वह आगे बोला, ‘‘एक बार यूनुस बता रहा था कि उस पाँच नम्बर कोठी की लेडी हाकिम ने उसे कालीदास मार्ग से अमीनाबाद मई की दोपहरी में आठ बार साइकिल से दौड़ाया था।’’
‘‘ऐसी क्यों है वह?’’ मैंने पहली बार उस पाँच नम्बर कोठी की अनदेखी लेडी हाकिम की शक्ल सूरत अपने मस्तिष्क में उतारते हुए पूछा।
‘‘बताते हैं कि ओछे तबके की औरत है वह… बला की सुन्दर जिस पर रीझकर हाकिम साहब उसे अपने साथ ब्याह लाए… तब से वही हुकूमत चलाती है। सभी की नाक में दम कर रखा है। सभी उससे भय खाते हैं। हाकिम साहब का पी.ए. बता रहा था कि गुस्साने पर वह अपने पालतू कुत्तों का जूठन अपने घर के नौकरों को खाने पर मजबूर करती है।’’
‘‘तौब़ा….तौब़ा….’’ पास खड़े सज्जन पहले अपनी दाढी फिर अपने दोनों कान छूते बोल पडे़। हम दोनों की दृष्टि उन सज्जन पर पड़ी जिनके कानों तक हरीश की आवाज़ पहुँची थी। वह आगे कुछ नहीं बोले एक पल के लिए आँखें मूंदी फिर एक ओर चले गए।
यूनुस का ज़नाज़ा करबला के निकट आ चुका था……अन्तिम विदा के शब्द-स्वर कानों में पड़ने लगे……. मैं व हरीश ज़नाज़े की ओर बढ़ चले।
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महेन्द्र भीष्म
सुपरिचित कथाकार
बसंत पंचमी 1966 को ननिहाल के गाँव खरेला, (महोबा) उ.प्र. में जन्मे महेन्द्र भीष्म की प्रारम्भिक षिक्षा बिलासपुर (छत्तीसगढ़), पैतृक गाँव कुलपहाड़ (महोबा) में हुई। अतर्रा (बांदा) उ.प्र. से सैन्य विज्ञान में स्नातक। राजनीति विज्ञान से परास्नातक बुंदेलखण्ड विष्वविद्यालय झाँसी से एवं लखनऊ विश्वविद्यालय से विधि स्नातक महेन्द्र भीष्म सुपरिचित कथाकार हैं।
कृतियाँ
कहानी संग्रह: तेरह करवटें, एक अप्रेषित-पत्र (तीन संस्करण), क्या कहें? (दो संस्करण) उपन्यास: जय! हिन्द की सेना (2010), किन्नर कथा (2011) इनकी एक कहानी ‘लालच’ पर टेलीफिल्म का निर्माण भी हुआ है।
महेन्द्र भीष्म जी अब तक मुंशी प्रेमचन्द्र कथा सम्मान, डॉ. विद्यानिवास मिश्र पुरस्कार, महाकवि अवधेश साहित्य सम्मान, अमृत लाल नागर कथा सम्मान सहित कई सम्मानों से सम्मानित हो चुके हैं।
संप्रति -: मा. उच्च न्यायालय इलाहाबाद की लखनऊ पीठ में संयुक्त निबंधक/न्यायपीठ सचिव
सम्पर्क -: डी-5 बटलर पैलेस ऑफीसर्स कॉलोनी , लखनऊ – 226 001
दूरभाष -: 08004905043, 07607333001- ई-मेल -: mahendrabhishma@gmail.com
यथार्थ का सुंदर प्रस्तुतिकरण,
आदरणीय भीष्म जी को बहुत- बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं
डा0 कविता भट्ट
लेखिका एवं कवयित्री
हे न ब गढवाल विश्वविद्यालय
श्रीnagar
यथार्थ का सुंदर प्रस्तुतिकरण,
आदरणीय भीष्म जी को बहुत- बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं
डा0 कविता भट्ट
लेखिका एवं कवयित्री
हे न ब गढवाल विश्वvidya