कहानी ” नसीबन ” : लेखक महेन्द्र भीष्म

                                  – नसीबन  – 

सूरज समाड़ा पहाड़ के पीछे छिपता जा रहा था, बड़ा-सा गोला, सिन्दूरी आभा लिए। आकाश में पक्षी कतारबद्ध अपने-अपने नीड़ तक पहुँचने के लिए बेताब उड़े चले जा रहे थे। गोधूलि से आवृत वायुमण्डल में तैर रहे बादलों के छितराए टुकड़े, डूबते सूरज की लालिमा से नये-नये रंग-रूप ग्रहण कर रहे थे।
ठाकुरों के इस बाग के ठीक बीचोबीच बने चौपरा के किनारे मुझे बैठे काफी देर हो चुकी थी। चौपरा के चारों ओर चूने पत्थर से बनी जगत जीर्ण-शीर्ण अवस्था में पहुँच चुकी थी। कभी इसी चौपरा के निर्मल स्वच्छ जल में तैरतीं रंग बिरंगी मछलियाँ पानी की सतह तक साफ दिखायी देती थीं, जहाँ इस समय जलकुंभी की हरी चादर बिछी हुई है और मेंढ़क, author Mahendra Bhishma, Checkmate, Literary, Mahendra Bhishma, Mahendra Bhishma story, Mahendra Bhishma storyझींगुर समवेत स्वर में राग अलाप रहे हैं।
कई एकड़ में विस्तृत यह बाग बुन्देलखण्ड के सुप्रसिद्वशासक राजा छत्रसाल के वंशजों में से किसी के द्वारा अट्ठारहवीं शताब्दी के अन्तिम वर्षों में बनवाया गया था।

      मेरे विदेश जा बसने के पहले तक यह बाग अपने राजसी अतीत के साथ जीवित था। आज लगभग तीस वर्ष बाद इसकी दशा देख क्षोभ हो रहा है। राजशाही से जमींदार और बाद में गाँव के पहले प्रधान बनने के बाद एक आम नागरिक की हैसियत में आ चुके इस बाग के वर्तमान मालिकान की शराबखोरी, कर्ज, मुकदमेंबाजी और सम्पत्ति के बँटवारे ने अन्तते इस बाग को इस हालात में ला दिया कि वर्तमान पीढ़ी यह सोच भी नहीं सकती कि केवल तीस वर्ष पहले तक यह बाग हराभरा आँखों के लिए मनोहारी दृष्यांे और सुगन्ध से भरपूर था। जिसमें आम, अमरूद, अनार, आँवला, मौसमी, शहतूत, जामुन, बैर, बेल, जंगल जलेबी जैसे अनगिनत फलदार वृक्षों और सदाबहार फूलों की क्यारियाँ थीं। बाग में घुमावदार साफ-सुथरे रास्ते  थे। पानी की पक्की नालियों में कल-कल कर्णप्रिय ध्वनि करता प्रवाहित जल जैसे मन मोह लेने वाले बीसियों नज़ारे होते थे। सावन में गकरियाँ खायी जाती थीं तो कार्तिक माह में अक्षयनवमीं के दिन आँवला के पेड़ के नीचे बैठकर भोजन करने का चलन था। दूरµदूर के गाँवों से लोग बाग घूमनेµदेखने आते थे। तब बाग की रखवाली और रख-रखाव में अनुशासन था। तत्कालीन बाग के मालिकों को बाग की सुन्दरता को बनाए रखनेे का जुनून था। वे तमाम फलदार वृक्ष कट चुके थे, सुन्दर फूलों की क्यारियाँ, कल-कल बहता सिंचाई का जल कहीं नहीं था। जंगली झाड़ियाँµपौधों के अलावा बाग की टूटी चहार दीवारी के अन्दर बिके प्लाटों पर मद्रासी पत्थरों से बने अटारीनुमा मकान बन चुके थे। बाग, बाग नहीं बल्कि सुबहµशाम दिशा मैदान के लिए सुरक्षित व निकटस्थ स्थान बनकर रह गया था….. बदबूदार उपेक्षित-सा।

कभी इसी बाग के विशाल कुएँ के मीठे जल की दूूर-दूर तक चर्चा थी। आज उसी कुएँ केे पानी में फेंका गया कूड़ा-करकट पानी को दुर्गन्धयुक्त कर चुका था…. घरµघर नल लग चुके थे जिसमें तालाब का ठहरा कडुवा पानी लोगों को भाने लगा था। अमरूद के छायादार वृक्षों के बीच फैली खाली जगह पर बचपन में खेली क्रिकेट, सिलोरमाई डण्डा, चोर सिपाही और न जाने कितनी उछलकूद की गवाही देती बाग की जमीन अपने स्थान पर ज्यों की त्यों बिछी पड़ी थी। बूढे़ माली की ललकार के साथ पंख बने लड़कों के पैर पलक झपकते सात हाथ ऊँची चूने की चौड़ी चहारदीवारी उसमें बने तक्कों पर पैर जमाते लाँघ जाते थे। कभी कभार जब कोई बालक माली बब्बा की दबोच के दायरे में आ भी जाता था तब माली बब्बा उसे दूर खड़े हाथ में डण्डा लिए हड़काते रहते और उसे बचकर भाग जाने का पूरा अवसर देते….झपटने को होते, डण्डा जमीन पर पटकते पर कभी पकड़ते नहीं। शायद माली बब्बा को बच्चों का खेलने आना, उछलकूद करना, शरारतें करना अच्छा लगता था…परन्तु मालिकान के कड़े अनुशासन और नौकरी का ध्यान आ जाने पर उन्हें हम बच्चों को मजबूरीवश खदेड़ना पड़ता था।

हम लोग गर्मियों की दोपहर, मीठे शहतूत खाते और विशाल शहतूत के पेड़ में चढ़कर समय बिताते। माली बब्बा के आने पर इसी पेड़ के घने पत्तों पर हम सब छिपे रहने का प्रयास करते। पेड़ के नीचे माली बब्बा ऐसे ललकारते मानो हाथ में पकड़े डण्डे से सभी की खाल ही उधेड़ डालेंगे। कुछ देर बड़बड़ाते रहते फिर ऐसे टहलकर चले जाते जैसे उन्हें पता ही न हो कि हम लोग पेड़ में चढ़े-छिपे हैं।
उन दिनों बाग में बारहों महीने हम बच्चों को कुछ न कुछ खाने के लिए उपलब्ध रहता यथा बरसात में जामुन, जाड़ों में अमरूद, गर्मियों में जंगल-जलेबी शहतूत, खीरा, ककड़ी, खरबूजा वगैरह खाने को खूब मिलता, वह भी चोरी-छिपे खाने के भरपूर मजे के साथ।

      माली बब्बा वर्षों पहले स्वर्ग सिधार चुके होंगे पर अभी भी ऐसा लग रहा है जैसे सफेद साफा बांधे लम्बा-सा मटमैला कुर्ता-धोती पहने उपनए, लाठी लिए बच्चों को हाँकता-सा कोई बूढ़ा अब प्रकट हुआ या तब प्रकट हुआ।
‘‘अल्लाह..हो…अकबर…..
लाउड स्पीकर से मग़रिब की नमाज़ के लिए अज़ान शुरू हो चुकी थी। गाँव में यह भी एक परिवर्तन था तब खैराती चच्चा की अज़ान की आवाज गूँजने से शाम ढलने की सूचना लोग पा जाते थे। अब लाउडस्पीकर से हो रही अजान की ओर किसी का ध्यान नहीं जाता…सब स्वयं में मस्त, जीवन की आपा-धापी में लगे, सुबह-शाम की किसी को फिक्र नहीं यथा- ‘सुबह हो रही है, शाम हो रही है। ज़िन्दगी इस तरह तमाम हो रही है।’ गुनगुनाते-सोचते मैं बाग की चहार दीवारी से कुछ दूर स्थित अपनी पुश्तैनी हवेली के पृष्ठ भाग के फाटक के पास आ जाता हूँ।
फाटक के पास कुछ देर रुककर मैंने कुछ दूर स्थित मस्जिद की ओर उचटती दृष्टि डाली। मस्ज़िद पहले से कुछ ज्यादा रंग रोगन लिए हुए थी। मस्ज़िद की मीनार में लिपटा लाउडस्पीकर का चोंगा ऐसा लग रहा था जैसे सारस के गले में घण्टी बाँध दी गयी हो।

मस्ज़िद के पास वाले टीले पर बने टूटे-फूटे से घर में रहते थे खैराती चच्चा…गोरे, कंजी आँखें, सफाचट मूँछ, काले से टूटे-फूटे दाँत जो हँसने या बोलने पर झलक दिखला जाते। मुँह के नीचे लम्बी-पतली झक सफेद हिलती-डुलती दाढ़ी। खैराती चच्चा पाँचों वक्त मस्जिद मंे दोनों कानों में उंगली डाल अज़ान देते, पाँचों वक्त के नमाज़ी थे। पतंग बनाने में दूर-दूर के गाँवों तक उनका कोई सानी नहीं था। दूर दराज से लोग उनके हाथ की बनी पतंग खरीदने आते थे। ऐसी पतंग बना कर वह देते थे कि तेज हवा में भी पतंग गजगामिनी-सी डोलती नजर आती थी और सामान्य मौसम में एकदम शुद्ध उड़ती रहती। मुहर्रम के दिनों में खैराती चच्चा को दम मारने की भी फुर्सत नहीं मिल पाती थी। ताज़ियों के निर्माण में स्वयं को खपा देते…..बाँस और अभ्रक के टुकड़ों से ऐसा कलात्मक, नक्काशीदार ताज़िया बनाते कि देखने वाले भी एकबारगी हैरत में पड़ जाते और मुक्त कंठ से चच्चा की तारीफों के पुल बाँधते।

      खैराती चच्चा की सबसे छोटी संतान थी ‘नसीबन’। चच्चा की तरह गौरवर्ण, कंजी आँखें, मासूम गोल चेहरे और खिलते फूल-सी सुंदर किशोर बाला ‘नसीबन’ जो जन्म होते ही माँ के प्यार से वंचित हो बुढ़ापे की ओर अग्रसर पिता की आँख का तारा थी। पाँच भाइयों के जन्म लेते ही मर जाने के बाद जैसे अमरोती खाकर आई थी ‘नसीबन’। सबसे बड़ा भाई सत्तार उससे अट्ठारह वर्ष बड़ा था। खैराती का पहला और आखिरी जीवित बेटा।
तेरह-चौदह वर्ष की कमसिन नादां उम्र की नसीबन का बड़ा भाई सत्तार नसीबन और खैराती से रंग के मामले में ठीक छत्तीस के आँकड़े की तरह विपरीत था…… बरसाती पनीले साँप का-सा रंग। दो बच्चों का बाप सत्तार जिसे दुर्भाग्य अपने साथ लेता गया था।

      गाँव में लगी एकमात्र आरा मशीन में देर रात लकड़ी चीरते…कुछ नींद कुछ गांजे के नशे की झोंक में आरी में पहले हाथ फिर चेहरा…सब कुछ ठहर-सा गया।
भोर खैराती चच्चा के घर में करुण रुदन….इकलौते पुत्र की दर्दनाक मौत….नसीबन की रो-रोकर आँखें सूज गयीं….बड़े भाई की अकाल मृत्यु किशोर अन्तर्मन को हिला गया।
सत्तार का चालीसवां होने के कुछ ही दिन बाद सुनने में आया था, सत्तार की बेवा दोनों बच्चों को साथ ले रमैया खबास संग दिल्ली भाग गयी।

पतंग उड़ाने का मौसम जोरों पर था आसमान में रंग बिरंगी उड़ती पतंगें, पेच लड़ाते लड़के, मंझा बनाते लड़के, पतंग लूटती लड़कों की टोली…..जैसे पतंग के अलावा कोई दूसरा खेल ही न हो।
मुझे पतंग उड़ानी नहीं आती थी….पतंग-मंझा लूटना हमारे खानदानी शान के खिलाफ था….पर किशोर मन में पनप चुके नसीबन के आकर्षण-प्रेम ने हर दूसरे दिन खैराती चच्चा के घर में ही बनी कोठरीनुमा दुकान में पहुँचने को विवश कर दिया। पाँच पैसे से लेकर एक रुपये तक की रंग-बिरंगी पतंगें। नसीबन की एक झलक देख पाने भर से सारे पैसे वसूल….पतंग किस कमबख़्त को उड़ानी थी। माँ के पूछने पर बताता…बाड़े में कट कर आ गयी थी फिर किसी पतंग प्रेमी दोस्त को पतंग दे देता।

      नसीबन अपने अब्बा के कार्यों में मदद करती, दोनों जून का खाना पकाती…..
कभी-कभार हमारे बाड़े में गोबर या घर में मठ्ठा माँगने आ जाती। हमारे यहाँ कण्डे पाथने या मठ्ठा भाने वाली जब कभी उसे मना करती तो मैं उन पर बरस पड़ता और नसीबन का बर्तन मठ्ठे से भर देता या उसे गोबर उठा लेने देता….सलवार कुर्ता पहने नसीबन अपनी कमर में दुपट्टा कस लेती थी। गोबर से सने गोरे हाथ और सिर पर रखी गोबर की टोकरी लिए नसीबन तब मुझे बहुत भाती थी….मैं उसे बाड़े के फाटक तक छोड़ने जाता…मूक संवाद….परस्पर बोलतीं आँखें….बाल सुलभ झिझक….जाति-धर्म की दूरियों से दूर कल्पना की नित नयी, नयी उड़ानें….चंचल मन पल में इधर पल में उधर।
वक्त आगे बढ़ा दिन-महीने-वर्ष बीतने लगे उच्च शिक्षा के लिए गाँव से शहर….शहर से विदेश….फिर भूलते-बिसरते बचपन के साथ बिसर-सी गयी ‘नसीबन’।

      बारह वर्ष पूर्व गाँव आने पर पता चला था कि नसीबन का ब्याह कर खैराती चच्चा अल्लाह को प्यारे हो चुके थे। एक बच्चे की माँ बन चुकी नसीबन का शौहर मरे जानवरों की हड्डियाँ इकट्ठी कर उन्हें बेचने का काम करता था। तब नसीबन, न देखने को मिली और न ही उसे देखने की अधिक इच्छा जागी।
बाड़े का फाटक खुला था। मैं खुले फाटक के अंदर आ जाता हूँ। फाटक अंदर से बंद करते कनखियों से मैंने मस्ज़िद के पास वाले टीले की ओर पुनः देखा ….मरहूम खैराती चच्चा के घर में रोशनी हो रही थी। ‘पता नहीं अब कौन इसमें रहता होगा।’
‘‘भैया फाटक बंद न करो।’’ अपने ठीक पीछे से स्त्रीकंठ सुन मैं चौंक गया।
मैंने पीछे पलट कर देखा….दोनों हाथों में कुछ थामें नसीबन ही तो खड़ी थी
……वही कंजी आँखें, मटमेला किन्तु गोरा गोल चेहरा….कुछ-कुछ मोटी-सी सामान्य कद काठी…..
‘‘नसीबन ! तुम नसीबन ही हो न?’’
‘‘हाँ..भैया..मैं नसीबन हूँ पहचान गये, मैं तो सोचत्ती चीन्ह न पैहो’’
कोई झिझक नहीं…चेहरे पर पहचान लिए जाने का परम संतोष…हल्की मुस्कुराहट के साथ।

वर्षों पुरानी नसीबन….और इस नसीबन में जमीन-आसमान-सा फर्क। जिसकी एक झलक देख लेने की कोशिश में घण्टों समय गवाँया जाता था। उसे दोबारा देखने तक की चाह मन के किसी कोने में शेष नहीं थी।
घर में माँ ने पूछने पर बहुत-सी जानकारी दी। मसलन हड्डी चुभ जाने से हुए घाव के चलते नसीबन का शौहर चल बसा था। दो मासूम जानों को पिछले दस-बारह बरस से सीने से लगाए, मेहनत-मजूरी कर किसी तरह पहाड़-सा जीवन काट रही है, बेचारी। हमारे यहाँ जानवरों की उसार अब वही करती है, बटाई में कण्डे भी पाथती है।
माँ ने आगे यह भी बताया, ‘बेटा! रोजी-रोटी के संघर्ष में लगी जवान-जहान सुन्दर रंग रूप की विधवा का समाज में सुरक्षित रह पाना दूभर हो जाता है….इज्ज़त बची भी रह जाए पर लोगों के मुँह कौन सी सकता है, जो मन में आया साँची-झूठी बोल दिया, …जीभ है जब चाही, उठा के दे मारी….नसीबन चाल-चलन की तनकऊ खराब नइय्या।

      मैं बीच में ही पूछ बैठा….‘‘और उसकी वह भाभी सत्तार की……
माँ समझ गयीं तुरन्त बोल पड़ीं, ‘‘वो नासपीटी-हुलकी आई…तो मजे कर रही, कण्डन की ठुकी…मऊरानीपुर में पक्को मकान बनवा कर रह रही है …खसम बाल काटे की दुकान चला रओ….बहुत पइसा जोर लओ ऊने…दोई पहले के मोड़ा शहर में रहके पढ़ रये….एक मोड़ी है दूसरे से….’’
माँ और भी बहुत कुछ बताती रहीं। कुछ देर मैं उनके पास बैठा सुनता रहा… फिर अपनी आठ वर्षीय बेटी के साथ ऊपर छत पर आ गया। आसमान में पूर्ण विकसित चन्द्रमा तालाब में खिले कमल की तरह जगमगा रहा था। दूधिया चाँदनी चारों ओर बिखरी पड़ी थी। कुछ दूर स्थित मस्ज़िद के पास वाले टीले पर बने नसीबन के मकान में मद्धिम रोशनी हो रही थी।

      मैं नसीबन के नसीब और उसके मरहूम भाई की पत्नी के भाग्य को वर्तमान समाज की कसौटी में कसते हुए सोच रहा हूँ कि विवाह के कुछ सालों बाद विधवा हो चुकी नसीबन जो अपना शेष जीवन एकाकी जीने के फैसले के बाद अभावों, तानों से भरा कष्टकारी जीवन जी रही है….उससे कहीं अच्छा जीवन क्या उसकी भाभी नहीं जी रही है?…..नयी आशाओं, नयी उमंगों, नये अहसास के साथ।

__________________________

Mahendra-BhishmaMahendra-Bhishma-storystory-by-Mahendra-BhishmaMahendra-Bhishma-writerमहेन्द्र-भीष्मपरिचय -:

महेन्द्र भीष्म

सुपरिचित कथाकार

बसंत पंचमी 1966 को ननिहाल के गाँव खरेला, (महोबा) उ.प्र. में जन्मे महेन्द्र भीष्म की प्रारम्भिक षिक्षा बिलासपुर (छत्तीसगढ़), पैतृक गाँव कुलपहाड़ (महोबा) में हुई। अतर्रा (बांदा) उ.प्र. से सैन्य विज्ञान में स्नातक। राजनीति विज्ञान से परास्नातक बुंदेलखण्ड विष्वविद्यालय झाँसी से एवं लखनऊ विश्वविद्यालय से विधि स्नातक महेन्द्र भीष्म सुपरिचित कथाकार हैं।

कृतियाँ
कहानी संग्रह: तेरह करवटें, एक अप्रेषित-पत्र (तीन संस्करण), क्या कहें? (दो संस्करण)  उपन्यास: जय! हिन्द की सेना (2010), किन्नर कथा (2011)  इनकी एक कहानी ‘लालच’ पर टेलीफिल्म का निर्माण भी हुआ है।
महेन्द्र भीष्म जी अब तक मुंशी प्रेमचन्द्र कथा सम्मान, डॉ. विद्यानिवास मिश्र पुरस्कार, महाकवि अवधेश साहित्य सम्मान, अमृत लाल नागर कथा सम्मान सहित कई सम्मानों से सम्मानित हो चुके हैं।

संप्रति -:  मा. उच्च न्यायालय इलाहाबाद की  लखनऊ पीठ में संयुक्त निबंधक/न्यायपीठ सचिव

सम्पर्क -: डी-5 बटलर पैलेस ऑफीसर्स कॉलोनी , लखनऊ – 226 001
दूरभाष -: 08004905043, 07607333001-  ई-मेल -: mahendrabhishma@gmail.com

1 COMMENT

  1. एक चित्र सा चलता रहा सामने जब बाग़ का वर्णन हो रहा था | नसीबन का चरित्र कुछ नया कहेगा ऐसा लगा उत्सुकता शब्द दर शब्द बढती रही | लेकिन जैसे अंत कोई सूचना सा देता लगा .अच्छा लगता अगर कोई ट्विस्ट दिया जाता नसीबन की कहानी को उसने क्यों नही दुबारा विवाह किया …….. कहानी पसंद आई अंत आशा अनुरूप ना लगने के बावजूद ………..बधाई महेंद्र जी

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here