गीत
* धूप जिन्दगी..*
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इनके उनके सबके मन को
खलता रहता हूँ!
हुई जेठ की धूप जिन्दगी
जलता रहता हूँ!
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सपनों में ही छुपकर मिलने
खुशियाँ मेरे घर आएँ!
होंठ चूमती रोज निराशा
नयन मिलातीं आशाएँ!
साँझ ढ़ले,इस मन को मैं बस
छलता रहता हूँ!
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तुम बिन मरना है जी जीकर
पर मरने तक जीना है!
पग पग पर विष मिले भले ही
हँसकर मुझको पीना है!
चंद लकीरें लिए, हाथ बस
मलता रहता हूँ!
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भटक रहा हूँ जीवन पथ पर
खोज रहा हूँ रोटी मैं!
काट रहा हूँ अपने तन पर
प्रियवर रोज चिकोटी मैं!
बिना रुके मैं, बिना थके बस
चलता रहता हूँ!
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* बेशर्म आँसू *
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जानते सब धर्म आँसू!
वेदना के मर्म आँसू!
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चाँद पर हैँ ख्वाब सारे
हम खड़े फुटपाथ पर!
खीँचते हैँ बस लकीरेँ
रोज अपने हाथ पर!
क्या करे ये जिन्दगी भी
आँख के हैँ कर्म आँसू!
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जानते सब धर्म आँसू!
वेदना के मर्म आँसू!
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आज बर्षोँ बाद उनकी
याद है आई हमेँ!
फिर वही मंजर दिखाने
चाँदनी लाई हमेँ!
सोचकर ही यूँ उन्हेँ अब
बह चले हैँ गर्म आँसू!
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जानते सब धर्म आँसू!
वेदना के मर्म आँसू!
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साथ थे जो लोग अपने
छोड़ वेँ भी जा रहे!
गीत मेँ हम दर्द भरकर
सिर्फ बैठे गा रहे!
रोज लेते हैँ मजे बस
छोड़कर सब शर्म आँसू!
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जानते सब धर्म आँसू!
वेदना के मर्म आँसू!
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रोज ही इनको बहाते
रोज ही हम पी रहे!
बस इन्ही के साथ रहकर
जिन्दगी हम जी रहे!
पत्थरोँ के बीच रहकर
हो गये बेशर्म आँसू!
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जानते सब धर्म आँसू!
वेदना के मर्म आँसू!
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* मुझको नींद नहीं आती माँ *
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मुझको नीँद नहीँ आती माँ।
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क्या बात करूँ मैँ दुनिया की!
चोली देख फटी धनिया की!
चोर निगाहोँ से ये अपनी!
बस देख देख मुस्काती माँ!
मुझको नीँद नहीँ आती माँ।
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कितने प्यारे कितने सच्चे!
भूखे पर धनिया के बच्चे!
जब जब भी मैँ उनको देखूँ
फट जाती मेरी छाती माँ!
मुझको नीद नहीँ आती माँ।
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अपने नयनोँ के वो मोती!
छुपकर है रातोँ मेँ खोती!
सूरत फूलोँ सी बच्चो की!
पर देख खड़ी हो जाती माँ!
मुझको नीँद नहीँ आती माँ।
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मेरा भी यह हृदय तड़पता!
मैँ भी उसकी पीर समझता!
दुख से लड़ती और झगड़ती!
अब वह गीत नहीँ गाती माँ।
मुझको नीँद नहीँ आती माँ।
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मैँ जैसे भी कुछ कर पाता!
पीड़ा कुछ उसकी हर पाता!
जख्मोँ को उसके सहलाऊँ!
कुछ मुझको राह दिखाती माँ!
मुझको नीँद नहीँ आती माँ।
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* कैसे मैं पैबंद लगाऊँ *
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कैसे मैँ पैबन्द लगाऊँ
उलझ गये जीवन के धागे!
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यदि हाथ लगाऊँ जो अपना
हो जाये सोना भी माटी!
ऊपर से पुरखे समझाते
हैँ याद दिलाते परिपाटी!
दूजे देकर फर्ज चुनौती
दो दो हाथ करे तब भागे!
कैसे मैँ पैबन्द…
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इक ओर सुखोँ की इच्छा है
औ इधर निमन्त्रण है दुख का!
है धुंध बहुत ही अंतस मेँ
सब रंग उड़ चुका है मुख का!
किन्तु गरीबी बैठ हमारी
उलझन की बस कथरी तागे!
कैसे मैँ पैबन्द…
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कर्ज करे आँगन मेँ नर्तन
छाती पर मूँग दले बनिया!
खाली खाली बोझिल बर्तन
बैठ भूख से रोये धनिया!
भाग रहे हम पीछे पीछे
अम्मा की बीमारी आगे!
कैसे मैँ पैबन्द…
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ये जग हँसता है देख मुझे
राहोँ के पत्थर टकरायेँ!
ये शीतल मंद हवायेँ भी
भीतर से मुझको दहकायेँ!
और जरूरत सिर पर चढ़कर
हरदम एक पटाखा दागे!
कैसे मैँ पैबन्द…
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बूँद पसीने की लेकर मैँ
गूँथ रहा कर्मो का आटा!
राह तकी है मैँने तेरी
सोच तुम्हे ही जीवन काटा!
ऐ भाग्य तुम्हारे खातिर ही
अब तक मेरी आशा जागे!
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धीरज श्रीवास्तव
लेखक व् कवि
सम्प्रति – वेब पत्रिका ” साहित्य रागिनी” तथा साहित्यिक संस्था मनकापुर (उ.प्र) ‘ साहित्य प्रोत्साहन संस्थान’ के संस्थापक सचिव व संरक्षक
प्रकाशित कृतियाँ – साझा संकलन ‘कवितालोक : प्रथम उद्भास’, मंजर, एहसासों की पंखुड़ियाँ, मीठी सी तल्खियाँ-1, मीठी सी तल्खियाँ-3, अन्तर्मन, शुभमस्तु-2, अनवरत-3, तेरी यादें एवं काफ़ियाना! के अतिरिक्त प्रमुख पत्र पत्रिकाओं तथा ई- पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित!
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