पांच कविताएँ
1. सपनो की दुनिया
सुबह सुबह जब नींद से जागा
उठ कर बैठ गया बिस्तर पर
बेल बजी तब दरवाजे की
नींद हो गयी थी रफू चक्कर
बेमन से दरवाजा खोला
बंद थे नयन धीरे से बोला
कौन हो तुम और कहाँ से आये हो
कच्ची नींद में हमको जगाये हो
वो बोला की नाम डाकिया
डाक घर से आया हूँ
प्रियतम का शंदेशा तुम्हरा
दूर देश से लाया हूँ
सुनकर बात उस डाकिये की
मन में लड्डू फूट पड़ा
छीन कर लेटर उसके हाथ से
ख़त पढने को टूट पड़ा
पढता ही गया रोता ही रहा
प्रेम पत्र में मशगुल रहा
याद आया वो आज पुराना
यार था मेरा मै भूल रहा
सुनकर उसकी शादी का हाल
दिल के टुकड़े हज़ार हुए
आज हम उसके खातिर
क्या इतने बेकार हुए
सोचा था मै कुछ और लेकिन कुछ और हो गया
सपनो की दुनिया में फिर से “राज” खो गया
2. तन्हाई
जब भी उसको तन्हाई में मेरी याद आएगी
प्यारी सी मुस्कान उसके चेहरे पे झलक आएगी
देखेगी मेरी तस्बीर को गौर से साकी
रो रो कर सिने से फिर लगाएगी
देखेगी जहाँ जहाँ मेरी निशानी को
अपने आँचल में छुपाती नजर आएगी
बीते हुए दिन की बीती हुई कहानी
अपने सखियों से कहती नजर आएगी
जब खुद को आईने के सामने पायेगी
अपनी उस छोटी सी भूल पे बहुत पछताएगी
चाहकर भी आज मेरे उन हसीं पलों के
“राज” दिल से जुबान पर ना ला पायेगी
3.गुनाह किये जाते है
आँखों के कोर से जो निकल कर मेरे आंसू
जब कपोल से लुढ़क कर मुख पर आते है
तो मानो कोई झरना ऊंची कंदराओं में से
बहकर सीधा अपने नदी से मिल जाते है
और यही आंसुओंके कुछ बूंद मिलकर
उस कड़वे स्वाद कि याद दिला जाते है
जो तुने दिए थे मुझे, और खून के आंसू
खुद आज अपने आप हीपिये जाते है
अब तो ऐसी हालत में बस रोना ही है
जो नहीं जानते प्यार वो भी किये जाते है
तेरा दिया हुआ जख्म नासूर न बन जाये
यही सोच कर उस जख्म को सिये जाते है
नादान है वो क्या जाने कि तड़प क्या होती है
और जानकर भी हम ये गुनाह किये जाते है
4.कहाँ तक जाओगे
जाओ, जा जा के कहाँ तक जाओगे
आखिर थक कर चूर हो जाओगे
तिनके का सहारा कहींन पाओगे
तब लौट कर वापस यहीं आओगे
तेरे खातिर ये मुहब्बत निशार कर दूँ
दिल में कोई हसरत हो तो तार-तार कर दूँ
अपने दिल के आईने में किसी को न लाओगे
इतना ज्यादा तुम मुझसे प्यार पाओगे
ना जाओ दूर तुम यूँमेरा होने के बाद
ना सह सकेंगे तेरा गम तुझे खोने के बाद
पल पल तुम्ही मेरी यादों में आओगे
कसम है तुम्हे मेरी जो तुम जाओगे
आपको पाकर अब खोना नहीं चाहते ,
इतना खुश होकर अब रोना नहीं चाहते
यूँ तो बहुत कुछ है ज़िन्दगी में ,
सिर्फ जिसे चाहते है उसे खोना नहीं चाहते
5. असर
होने लगा है असर धीरे धीरे
हुई शाम अब सुबह से धीरे धीरे
ना मंजिल थी ना हमसफ़र साथ मेरा
छोड़ गया वो इस कदर साथ मेरा
हो गयी है नीचे अब नजर धीरे धीरे
होने लगा है असर धीरे धीरे
जहाँ से चला था कारवां साथ मेरे
आया था वो भी कुछ दूर साथ मेरे
मझधार में छुटेगी पतवार धीरे धीरे
ना मालूम था होगा उससे सबर धीरे धीरे
किनारा तो मिलना बहुत दूर था
पर मेरा यार कितना मजबूर था
मेरा साथ छोड़ा इस कदर धीरे धीरे
होने लगा है असर धीरे धीरे
आज ना मै हूँ ना मेरी कोई पहचान है
एक जिन्दा लाश हूँ जिसमे ना जान है
दफ़न हो गया “राज” कबर में धीरे धीरे
होने लगा है असर धीरे धीरे
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संजय सरोज
लेखक व् कवि
संजय सरोज मुंबई में अपनी पूरी फैमिली के साथ रहते हैं ,, हिंदी से स्नातक मैंने यहीं मुंबई से ही किया है. नेटिव प्लेस जौनपुर उत्तरप्रदेश है
फ़िलहाल मै एक प्राइवेट कंपनी में ८ वर्षों से कार्यरत हैं , कविताएं और रचनाएँ लिखते !
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