कविताएँ
1.हया
आज इस मुल्क और शहर को हुआ क्या है
सोचता हूँ की बाकी अब बचा क्या है
खुलेपन और सौंदर्य की चाह में
भूले, मान-मर्यादा और हया क्या है
राहें पतन की जब उन्होंने चुनी
वो बोले की इसमें नया क्या है
भेष बदले है अपने ही लोगों ने
अब पहचान खोने में बचा क्या है
क्या अब फिर से लौटेंगे वो खुशहालियां
उस सुन्दर चमन का पता क्या है
2.फिर भी क्यों अनजान है हम
इस रंग बदलती दुनियां से परेशान है हम, अनजान है हम
समय का पहिया रुकता नहीं है फिर भी क्यों अनजान है हम
आया है याद वो फिर से अपना, बीत चूका है जो है सपना
बीता लड़कपन आई जवानी, कैसे कह दें की वो था अपना
भीड़-भाड़ की इस दुनियां में आज कितने बे जान है हम
यारों के संग धूम मचाना, गलियों में था आना जाना
खेतों में की वह हरियाली, चिड़ियों का था चह- चहाना
मानव की कु- बोली से आज कितने नादान है हम
नदी का किनारा और साँझ की लालिमा लिए हुए
कल-कल करता बहता पानी, पूरी मस्ती लिए हुए
आज कहता है की सारे बीमारी की पहचान है हम
आज जो हो वो पहले ना था, ऐसे बयार है चली
भौतिक सुख के लोभ में आकर, आज की पीढ़ी कहाँ चली
ऐसी करनी से राम बचाए इंसान नहीं हैवान है हम
3.दिखाओ न ख्वाब फिर से सुनहरे
दिखाओ न ख्वाब फिर से सुनहरे
वरना हो जायेंगे जख्म फिर से हरे
वफ़ा और बेवफा तो दस्तूर है
फरक क्या है उसको जो प्रेम में चूर है
सिला क्या दिया तूने मेरे प्यार का
जो हो गया तेरा छोड़ संसार का
घोंटा गला मेरे अरमानो का
दबा हु तले तेरे एहसानों का
लोगो ने पूछा कि क्या हो गया है
मेरा यार मुझसे जुदा हो गया है
अब कौन सा रंग अपने जीवन में भरे
जब मेरा रंग ही मन को बदरंग करे
4.कितने रंग भरे है
होली में कितने रंग भरे है
ये हमारी समझ से कितने परे है
साल के बारह महीने
बारह के बावन
तब जाकर आता है
यह मास बड़ा ही पावन
फिर भी हम अपनी
रोजमर्रा की जिम्मेदारी में
कैसे उलझे हुए है
पाप, भ्रस्टाचार और चापलूसी
में कितने सुलझे हुए है
होली का त्यौहार तो आता ही है
हर साल हमे यह सिखाता ही है
ये इंसान तुझमे तो मुझसे भी
ज्यादा रंग भरा है
कोई क्या दीगायेगा तुझे गर
तेरा ईमान खरा है
सब बुरे कर्म छोड़कर अच्छाई अपना लो
अपने रंग में रंग कर जीवन सफल बना लो
5.इस दिवाली पर क्या लिखूं
कुछ दिन से मै सोच रहा हूँ
इस दिवाली पर क्या लिखूं i
महगाईं की मार लिखूं या
लोग पोछते पसीने की बुँदे
खड़े राशन की कतार लिखूं ii
भ्रस्टाचार या ब्यभिचार लिखूं
मानव बन गया है दानव
रावण का अवतार लिखूं ii
बच्चो का बिलखना और रोना
क्या भूखे पेट का सवाल लिखूं
फटे आँचल में से झाकती
माँ की आबरू का हाल लिखूं
दो – दो दिन बिन पानी के कैसे
गुजरे है वो सुबह शाम लिखूं
राजनीती की गन्दी सोच में
होते है जो वो काम लिखूं
नेता आये, आकर चले गए
वादे करके मुकर गए
फिर भी वोट तो उनका ही है
क्या जनता का व्यवहार लिखूं
बैठ सियासत की कुर्सी पर
मनमानी उनकी बढती गयी
जेब भरी और घर भर दिए
भरा उनका दरबार लिखूं
इतना होने पर भी अपना
भारत देश हमारा है
खुली आखो से देख तमाशा
अपना भारत देश महान लिखूं
6.आज कुछ मन उदास है
आज कुछ मन उदास है
उसके जाने का अहसास है
मन में हजारों अरमानों का
गुबार लिए बैठा हूँ
कब निकलेंगे दिल से
ये आस लगाये बैठा हूँ
आज का दिन कुछ खास है
आज कुछ मन उदास है
जो न कही आज तक
वो कहानी तुम हो
बीते लम्हों की मीठी
यादों की रवानी तुम हो
आज जो भी हूँ मैं
उसकी वजह एक खास है
आज कुछ मन उदास है
दुनियां में कुछ चीजें ऐसी होती है
वजूद उनकी सपनों के जैसे होती है
नींद में हो तो सब कुछ तुम्हारा है
टूटे ख्वाब तो लुटा हुआ जहाँ सारा है
तुझे पा न सका तो क्या हुआ
तेरा सच्चा प्यार मेरे पास है
आज कुछ मन उदास है
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संजय सरोज
लेखक व् कवि
संजय सरोज मुंबई में अपनी पूरी फैमिली के साथ रहते हैं ,, हिंदी से स्नातक मैंने यहीं मुंबई से ही किया है. नेटिव प्लेस जौनपुर उत्तरप्रदेश है
फ़िलहाल मै एक प्राइवेट कंपनी में ८ वर्षों से कार्यरत हैं , कविताएं और रचनाएँ लिखते !
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