महेन्द्र भीष्म की कहानी ” स्त्री ”

Mahendra Bhishma,Mahendra Bhishma story,story by Mahendra Bhishma,Mahendra Bhishma writer, – स्त्री –

अभी पिछले वर्ष की ही तो बात है। महरी रामदई ने राम को प्यारी होने से कुछ माह पूर्व अपनी ब्याहता बेटी कुसुमा का पत्र मुझे पढ़ाया था। पत्र बुन्देली में टूटी-फूटी हिन्दी के साथ था, पर उस पत्र में व्याप्त वेदना के स्वरों ने मुझे मर्माहत कर दिया था। ससुराल में अपार यातनाओं को सहते हुए माता-पिता को सम्बोधित पत्र की इन पंक्तियों ने मेरे कवि मन को बार-बार झकझोरा था, ‘जोन पाँव पूजे हते तुमने मड़वा के तरें, उनई पाँवन से आज मोरे अंग-अंग सूजे हैं।’ तब मैंने कुसुमा के पत्र की इन दो पंक्तियों के आधार पर जो कविता लिखी, वह कवि सम्मेलनों में बारम्बार सराही गयी। विशेषकर कविता की अन्तिम पंक्तियाँ पढ़ते ही मेरी और सुनने वालों की आँख्ों बरबस छलछला आतीं –

जिन पाँवों को पूजा था तुमने मंडप के नीचे
उन्हीं पाँवों से आज मेरे अंग-अंग सूजे हैं।

ससुराल में बेटी की हो रही दुर्गति पर, स्त्री-यातना की इस मार्मिक अभिव्यक्ति को अद्वितीय कहा गया। मुक्त कंठ से सराहा गया।

उसी रामदई की बेटी कुसुमा अपनी माँ के देहान्त पर जब मायके आयी तो फिर पुनः ससुराल नहीं गयी। गाहे-बगाहे झाड़ू-पोंछा करते या बरतन मांजते वह मुझे अपनी दुःख भरी दास्तान सुना जाती। मेरे हृदय में उसके प्रति सहानुभूति पनपती…उम्र ही क्या थी?मात्र बाइस-तेइस बरस….सात-आठ साल ससुराल में रह चुकने की योग्यता-क्षमता …. आवारा, निठल्ला पति….विधवा सास, बाहर छोटी-मोटी नौकरी करता जेठ, जेठानी और जेठानी के बच्चे…..सबकी उसार, घर-घर बर्तन मांजना, झाड़ू-पोंछा करना, रात पति की बर्बरता झेलना, शराब और जुआ के लिए पैसे झपटते पति से आना-कानी करने पर लात-घूंसों की मार सहना। उलाहना देने पर सास की गालियाँ, जेठानी की झिड़कियाँ और ताने सुनना। भोर उठ जाना, पाँच-छः घर निपटाते-निपटाते दिन के ग्यारह बजे चाय नसीब हो पाना। जेठानी के बच्चों का मल-मूत्र धोते-नहाने-खाने में दोपहर बीत जाती– शाम से फिर वही खटराग बर्तन-झाड़ू-पोंछा, लौटकर सबके लिए खाना बनाना, बर्तन-चूल्हा करके उसकी देह थकहार कर टूट जाती…फिर शुरू होती सोते-जागते रात की यंत्रणा, शराबी पति के मुँह से आती शराब और बीड़ी की समवेत दुर्गंध गाली-गलौज, इच्छा-अनिच्छा से कोई मतलब नहीं। नोच-खसोट, विरोध करने पर मारपीट, सो शांत पड़े झेलते रहने की अंतहीन नियति। हाँ! कभी-कभार पति के जेठानी के पास जाकर रात बिता आने से उसे मुक्ति मिलती, उस रात वह भरपूर सो पाती। जेठानी से पति के अवैध सम्बन्धों से उसे गुरेज नहीं था। सास की तरह वह भी इसकी चर्चा किसी से न करती… कभी-कभी, मौके-बेमौके सास से सुनने को मिल जाता, ”मर्द है… वो …. छतरमंजिल  पर पतंग उड़ाये .. तुझसे मतलब।“

कुसुमा ने एक दिन देर से आने के बाद बताया, ”मेम साब! वह लेने आया है।“
”जायेगी तू?“ मैंने प्रश्न किया था।
”कभी नहीं…. तीन दिन से पड़ा है…. हाथ-पैर जोड़ रहा है… मैं कभी नहीं जाऊँगी…. भैया, भाभी और उनके बच्चों संग सुखी हूँ…. यहाँ कोई मारता तो नहीं है।….. रात में नोचता-खसोटता तो नहीं है…. जो काम वहाँ करती थी और पाई हाथ न लगती थी, यहाँ…तो सारे पैसे मेरे हैं….दो पैसे भी जुड़ जाते हैं….भतीजे-भतीजियों का प्यार मिलता है… खुद कमाती हूँ…सभी इज्ज़त करते हैं।“
”…..और समाज…..मेरा मतलब मोहल्ले वालों के ताने….?“

”उनकी फिकर अब नहीं करती मेम साब! समाज के लोग तो दूसरा ब्याह कर लेने को भी कहते हैं। पर फिर वही कहानी दुहरायी जायेगी…न बाबा न। दूसरा पति कौन दूध का धुला मिल जाना है…. अब।“
कविमन संकोच त्याग पूछ ही बैठा,….‘‘और जो कभी पुरुष संग की इच्छा हुई..?“
कुसुमा की आँख्ों हल्के से चमकीं, होंठ मुस्कराये। फिर वह धीर-गम्भीर हौले से बोली, ”मेम साब! मेरा शरीर भी हाड़-मांस से बना है….कोई लोहे-पत्थर से नहीं…. जैसे भूख-प्यास सताने पर शरीर को भोजन-पानी मिल ही जाता है। … वैसे ही पुरुष संग की इच्छा जब सतायेगी…. तब देखा जायेगा….’’ फिर कुछ पल रुककर वह आगे बोली, ‘‘उसका भी इंतजाम कर लूंगी ….. कौन अब मैं किसी के बंधन में हूँ।’’
कुसुमा की बेबाकी ने मुझे हतप्रभ नहीं किया। मैंने आगे कहा,‘‘कुसुमा अभी तेरी उम्र ही क्या है?….हमारे समाज में स्त्री के लिए व्यवस्था दी गयी है कि उसे बचपन में पिता के संरक्षण में, ब्याह जाने पर पति के संरक्षण में और पति के न रहने पर पुत्र के संरक्षण में रहना चाहिए…

‘‘ऐ मेम साब!….’ कुसुमा बिफरती हुई बीच में ही बोल पड़ी…. ‘मैं नहीं मानती, जे सब, पढ़े-लिखों के चोचले।’’
‘‘कुसुमा! मैं भी नहीं मानती …. और इस व्यवस्था का सदैव विरोध करती आई हँू पर….., पर क्या तुम वाकई अब अपने पति के साथ वापस ससुराल कभी नहीं जाओगी?’’
‘‘कभी नहीं, मेम साब! कभी नहीं। मैंने उससे स्पष्ट शब्दों में कह दिया है, तेरी चौखट पर आऊँगी जरूर….; पर चूड़ियाँ फोड़ने, जब तू मरेगा।’’
इतना बेबाकपन, इतना दुःसाहस, इतनी निर्भीकता…..! कितने दर्द और वेदना की परिणति बन गये थे कुसुमा के यह षब्द-वाक्य, जो उसके आत्मबल के प्रतीक भी थे।

क्या मेरी जैसी शिक्षित, कवि, मध्यवर्गीय स्त्री में है इतना साहस? जो कुसुमा के कहे शब्दों को कह सके, उतनी ही बेबाकी और निर्भीकता के साथ। शायद कभी नहीं…. क्या कुसुमा से इतर ज़िन्दगी जी रही हूँ मैं? कमाती हूँ….. सभ्य समाज में कवयित्री के रूप में पहचान है… पत्र-पत्रिकाओं में छपती हूँ…. गोष्ठी सेमिनारों में वक्तव्य-व्याख्यान देती हूँ….स्त्री-विमर्श, नारी-स्वतंत्रता पर लिखती-बोलती हूँ…. पर क्या जीत पाई हूँ स्वयं से? कुसुमा जैसी बन पायी हूँ…. साहसी? कदापि नहीं…. मेरे मन-मस्तिष्क में रह-रहकर कुसुमा के कहे अन्तिम शब्द गूंजते रहते हैं…. ‘तेरी चौखट पर आऊँगी जरूर…. पर….
हरीश भी तो मानसिक-शारीरिक यंत्रणा देता रहता है….दो पेग पी लेने के बाद कब वह मेरी इच्छा-अनिच्छा देखता है। पन्द्रह वर्ष के दाम्पत्य जीवन में कितनी रातों में कितनी बार नशे में लड़खड़ाते हुए उसने मुझ पर शक जाहिर नहीं किया?…. और काम के आवेग में, उत्तेजना के क्षणों में कल्पना-सुख लेते हुए अपने मित्रों, मेरे पुरुष कवि मित्रों के साथ मुझे कितनी बार हमबिस्तर नहीं करवाया?

अभी पिछले दिनों की ही बात है। कवियों के महासम्मेलन में जब नामचीन पत्रिका के नामचीन बुजुर्ग संपादक ने मेरे सद्यः प्रकाशित काव्य-संग्रह का विमोचन किया और दुशाला उढ़ाते मेरी पीठ थपथपायी थी, तब भी हरीश ने सारी बातों के बाद व्यंग्यबाण मारा था, ‘‘वह साला बुड्ढा-खूसट-चशमिस अपनी पत्रिका में स्त्रियों की रचनाएं ही ज्यादा छापता है….. हासिल करना चाहता है वह तुम जैसी महिला साहित्यकारों को…. साले के न मुँह में दाँत न पेट में आँत…. तुम्हारी पीठ ऐसे थपथपा रहा था, जैसे पीठ न हो छातियाँ हों।’’

‘‘हरीश….’ मैं चीख पड़ी थी, ‘कितनी घटिया और गंदी सोच है तुम्हारी?’’
‘‘सही सोच है… क्या तुमने उसकी, उसीकी पत्रिका में छपी कहानी ‘हासिल’ नहीं पढ़ी… क्या अभी हाल ही में आया उसका दंभ से भरा वह वक्तव्य नहीं पढ़ा, जिसमें वह ताल ठोंककर कह रहा है कि वह ‘हासिल’ जैसी आठ-दस कहानियाँ और लिखने की तमन्ना रखता है… अपने भोगे सच का बयान ही करेगा वह उन कहानियों में भी।’’ हरीश ने अपनी आँखें नचाईं, कंधे उचकाये कंघी से बाल खींचे और बाहर निकल गया।

मैं हठात्, निरुत्तर हरीश को बाहर जाते देख रही थी…….कुसुमा के सामने क्या मैं वाकई बौनी, दुर्बल और असहाय नहीं हूँ? जो उस जैसा एक भी निर्णय ले पाने में कतई सक्षम नहीं हूँ ।

_______________________________

Mahendra Bhishma,Mahendra Bhishma story,story by Mahendra Bhishma,Mahendra Bhishma writerपरिचय -:

महेन्द्र भीष्म

सुपरिचित कथाकार

बसंत पंचमी 1966 को ननिहाल के गाँव खरेला, (महोबा) उ.प्र. में जन्मे महेन्द्र भीष्म की प्रारम्भिक षिक्षा बिलासपुर (छत्तीसगढ़), पैतृक गाँव कुलपहाड़ (महोबा) में हुई। अतर्रा (बांदा) उ.प्र. से सैन्य विज्ञान में स्नातक। राजनीति विज्ञान से परास्नातक बुंदेलखण्ड विष्वविद्यालय झाँसी से एवं लखनऊ विश्वविद्यालय से विधि स्नातक महेन्द्र भीष्म सुपरिचित कथाकार हैं।

कृतियाँ
कहानी संग्रह: तेरह करवटें, एक अप्रेषित-पत्र (तीन संस्करण), क्या कहें? (दो संस्करण)  उपन्यास: जय! हिन्द की सेना (2010), किन्नर कथा (2011)  इनकी एक कहानी ‘लालच’ पर टेलीफिल्म का निर्माण भी हुआ है।
महेन्द्र भीष्म जी अब तक मुंशी प्रेमचन्द्र कथा सम्मान, डॉ. विद्यानिवास मिश्र पुरस्कार, महाकवि अवधेश साहित्य सम्मान, अमृत लाल नागर कथा सम्मान सहित कई सम्मानों से सम्मानित हो चुके हैं।

संप्रति -:  मा. उच्च न्यायालय इलाहाबाद की  लखनऊ पीठ में संयुक्त निबंधक/न्यायपीठ सचिव

सम्पर्क -: डी-5 बटलर पैलेस ऑफीसर्स कॉलोनी , लखनऊ – 226 001

दूरभाष -: 08004905043, 07607333001-  ई-मेल -: mahendrabhishma@gmail.com

1 COMMENT

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here