कहानी ” मात ”
रात्रि प्रारम्भ हो चुकी थी या यों कह लिया जाये कि शाम ढल चुकी थी। गाँव में बिजली का होना न होना बराबर रहता है। ज्यादातर बिजली गायब ही रहती है। इस समय भी बिजली नहीं आ रही है; किन्तु अंधेरी कालिमा को दुधारी तलवार से काटती धवल चाँदनी एक हद तक बिजली की कमी को पूरा कर रही है। बरामदे के खम्भें एवं बाहरी चहार दीवारी चन्द्रमा की उजली चाँदनी में श्वेत पट्टिका धारण किये हुए-सी दिखायी दे रही है।
मैं बाहर बरामदे में रखी आराम कुर्सी पर अभी बैठा ही था कि बंशी काका ने बताया,‘‘भैया! मास्साब का बेटा आया है।’’
मास्साब का बेटा यानि मेरे गुरुजी का बेटा यानि मेरे बचपन का सहपाठी ‘विनोद’।
विनोद ने आते ही अपने चिरपरिचित अंदाज से हमेशा की तरह सेल्यूट की मुद्रा में नमस्कार किया। वह अपना दाहिना हाथ जितनी शीघ्रता से अपने माथे तक ले जाता था उतनी ही शीघ्रता से उसके मुँह से ‘नमस्कार’ उच्चारित होता था। इन दोनों के बीच वह देखने लायक तालमेल बनाता।
गाँव के स्कूल में हम दोनों साथ-साथ पढ़े थे। मैंने उसे बैठने का इशारा किया। वह तत्काल आज्ञाकारी छात्र की भाँति पास रखी कुर्सी पर बैठ गया।
बंशी काका को जलपान के लिए कह मैं विनोद की ओर मुखातिब हुआ। विनोद ने अपनी जेब से मेरी रिस्ट वॉच निकाल कर मुझे दी जो मैंने उसे सर्विसिंग के लिए दी थी।
मैंने टार्च की रोशनी में एकदम बदल चुकी अपनी घड़ी को देखा जिसमें नया काँच, नया डायल एवं नई सुनहरी चेन भी लगायी गई थी। मेरी दृष्टि घड़ी की सेकेण्ड सुई पर टिक गयी जो क्रमशः आगे बढ़ रही थी और मैं कहीं दूर अतीत में लौट गया।
गाँव में स्कूल की पढ़ाई पूरी कर लेने के बाद मैं आगे की पढ़ाई के लिए शहर चला गया था। मुझे अच्छी तरह से याद है, विनोद बचपन में भी मुझे पहले से अभिवादन कर सम्मान देता था; जबकि वह उम्र में मुझसे कुछ माह बड़ा है।
जब कभी मैं शहर से वापस अपने गाँव आता, विनोद मुझसे इतनी आत्मीयता के साथ मिलता मानो मेरी गैरहाजिरी में उसे मेरी प्रतीक्षा के अलावा और कोई काम ही न रहा हो। शहर में विनोद के पत्र यदा-कदा मिल जाते थे जिसमें गाँव का सम्पूर्ण हाल-चाल चित्रित रहता, किसके घर में बच्चा हुआ, कौन चल बसा, गाँव में फिर रामलीला कमेटी वालों ने चन्दा को लेकर परस्पर झगड़ा कर लिया इत्यादि छोटी-बड़ी खबरों से भरे होते, उसके पत्र। मैं उसके पत्रों का बहुत कम ही जवाब दे पाता था। मेरे गाँव आने पर वह मुझे अपने घर आग्रहपूर्वक ले जाता। सहेजकर रखे मेरे लिखे पत्र, वह मुझे सगर्व दिखलाता। अपने छोटे भाई बहनों को मेरा अभिवादन करने को कहता और अपनी माँ से कुछ-न-कुछ खाने-पीने की व्यवस्था करवाता। मेरे द्वारा लाख मना करने पर भी वह कुछ भी खाये पिये बिना मुझे अपने घर से जाने नहीं देता। विनोद मुझे अपना घनिष्ठ मित्र समझता जबकि मैं उसे तब इतना महत्त्व नहीं देता था।
विनोद के पिताजी पास के गाँव में प्राइमरी स्कूल के अघ्यापक थे। वह मुझे ट्यूशन पढ़ाने मेरे घर आया करते थे। मैं उन्हें ‘गुरुजी’ कहा करता था। दो वर्ष पूर्व गाँव से पिताजी के पत्र द्वारा ज्ञात हुआ था कि स्कूल से साइकिल पर वापस लौट रहे गुरुजी के ऊपर हमारी जीप चढ़ गयी, जिससे उन्हें गम्भीर चोटें आयीं । तमाम कोशिशों के बावजूद उन्हें बचाया न जा सका था।
गुरुजी की आकस्मिक मौत ने मुझे विचलित कर दिया था और मैं तत्काल गाँव आ गया था। विनोद से मिला वह बहुत उदास था। मैंने अपनी संवेदनाएँ प्रकट कीं, उसे सांत्वना दी, वह मौन उदास बना रहा। उसने न तो मेरी संवेदनाओं को महसूस किया और न ही मेरी सांत्वना पर गौर ही किया। मैं उसके कंधों पर एकाएक आ चुके पारिवारिक दायित्व और उसकी उदासी को भली-भाँति समझ रहा था। विनोद के प्रति मेरी संवेदनाएं प्रबल हो उठीं। मैंने शहर से उसे पत्र भी लिखे पर उसने मेरे किसी पत्र का जवाब नहीं दिया।
गाँव से आने वाले पिताजी के पत्रों द्वारा विनोद के बारे में भी पता चलता रहता था कि विनोद ने गाँव से लगभग बारह किलोमीटर दूर स्थित कस्बे में घड़ी-मरम्मत का कार्य सीखने के बाद वहीं कस्बे में ही एक छोटी-सी दुकान घड़ी-साजी की खोल ली है। वह प्रतिदिन सुबह शाम गाँव से कस्बा, कस्बा से गाँव जाता आता है…..इत्यादि।
कल सुबह गाँव आने के तुरन्त बाद जब मैं विनोद के घर गया था तब वह अपने पिता की पुरानी साइकिल से कस्बे में स्थित अपनी दुकान जाने के लिए तैयार था। मुझे आया देख आदत के अनुसार मुझसे पहले उसने मुझे सेल्यूट की स्टाइल में नमस्कार कर मेरा अभिवादन किया। मैं उससे ढेर सारी बातें करना चाहता था किन्तु उसे दुकान जाने की जल्दी थी। मैंने अपनी रिस्ट वॉच सर्विसिंग के लिए देते हुए उससे कहा, ‘‘मैं घड़ी में उसकी महारत देखना चाहता हूँ।’’ मैंने उसे कुछ रुपये अग्रिम देने चाहे जिसे उसने लेने से स्पष्ट मना कर दिया। मैं उससे कुछ आग्रह करता इसके पहले वह अपने चिरपरिचित नमस्कार के तरीके से मुझे आहत कर साइकिल पर बैठ चला गया।
‘‘भैैया चाय।’’ मेरे विचारों का क्रम लड़खड़ाया। बंशी काका चाय और कुछ खाने के लिए लेकर आये थे। मैंने पास रखे स्टूल को खिसकाया बंशी काका ने उस पर ट्रे रख दी। मैंने विनोद को चाय लेने के लिए कहा पर उसने हाथ जोड़ लिए, ‘‘मैं चाय नहीं पीता।’’ मैंने कहा ‘‘कबसे ?’’ तब उसने कहा,‘‘जब से समझ लो।’’ मेरे आग्रह करने पर उसने लड्डू ले लिया। मैंने उसके द्वारा बनाकर लायी घड़ी की तारीफ की। मैं यह भली-भाँति महसूस कर रहा था कि अपनी प्रशंसा से उसे असुविधा हो रही थी। आज उसने अपना काफी समय मेरी घड़ी की सर्विसिंग में लगाया होगा। मेरे मस्तिष्क में चित्र बनने लगे, विनोद अपनी दुकान में मेरी घड़ी खोले बैठा है। उसके एक-एक पुर्जे को भावनात्मक लगाव के साथ दोबारा यथास्थान लगा रहा है। घड़ी में सबसे अच्छा डायल उसने बदला, सबसे मँहगी चैन उसने लगायी। बन चुकी घड़ी को वह प्रसन्नता पूर्वक अपने हाथ में उलट-पलट कर देख रहा है।
मैंने अपनी आँखें खोलीं, विनोद मेवे के उस लड्डू को समाप्त कर चुका था। मैंने प्लेट उसकी ओर बढ़ाते हुए उसे और लड्डू लेने को कहा किन्तु; उसने साफ मना कर दिया। वह गिलास से पानी पीने लगा। मेरे द्वारा घड़ी की मरम्मत लागत पूछने सेे…… वह बेचैन हो उठा। मैंने उसकी बेचैनी महसूस की। मैं समझा, वह संकोच कर रहा है। मैंने अपनी जेब से सौ-सौ के दो नोट निकाल कर उसकी ओर बढ़ा दिये। परन्तु विनोद ने रुपये लेने से साफ इंकार कर दिया और जब मैंने उसे अन्ततः दलील देनी चाही कि,‘‘घोड़ा घास से दोस्ती करेगा तो खायेगा क्या?’’ मैं सोच रहा था कि मेरी यह दलील उसके इंकार को स्वीकृति में बदल देगी परन्तु इसके विपरीत वह नाखुश-सा बोला, ‘‘छोटे भैैया! घोड़े को घास के अलावा भी बहुत कुछ खाने को है और मैं आपको घास नहीं समझता साथ ही मेरी आप से विनती है कि आप मुझे घोड़ा न समझें।’’ उसकी आँखों में आँसू छलछला आये थे। उसने जिस मित्र भाव से मेरी घड़ी को तैयार किया था। उस भावना की कीमत लगते देख वह उदास हो बेहिचक बोला,‘‘छोटे भैैया! आपने रुपये देने की कोशिश कर मेरे मन को बड़ी ठेस पहँुचायी है।’’
मैं विनोद की मनःस्थिति समझ रहा था किन्तु रुपये देकर उसकी भावना को ठेस पहुँचाने की मेरी कतई मंशा नहीं थी; बल्कि उसे अपनी घड़ी देते समय मरम्मत की लागत से अधिक देने की इच्छा मेरे मन में जरूर थी। मैं उसकी भावना को समझ रहा था; किन्तु उसके द्वारा कहे गये शब्दों ने न केवल मेरे आग्रह व उत्साह को पछाड़ दिया बल्कि मुझे कुछ सोचने-समझने की स्थिति से अलग कर दिया।
जब तक मैं अपने कहे जाने वाले शब्दों को ढूँढ़ पाऊँ। इससे पहले विनोद ने मुझे एक बार फिर मात दे दी जिसके बाद हमेशा की तरह मैं स्वयं को पराजित महसूस करने लग जाता हूँ।
….पता नहीं, मैं कितनी देर से आराम कुर्सी पर पड़ा हूँ जबकि विनोद नमस्कार कर कब का जा चुका था।
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महेन्द्र भीष्म
सुपरिचित कथाकार
बसंत पंचमी 1966 को ननिहाल के गाँव खरेला, (महोबा) उ.प्र. में जन्मे महेन्द्र भीष्म की प्रारम्भिक षिक्षा बिलासपुर (छत्तीसगढ़), पैतृक गाँव कुलपहाड़ (महोबा) में हुई। अतर्रा (बांदा) उ.प्र. से सैन्य विज्ञान में स्नातक। राजनीति विज्ञान से परास्नातक बुंदेलखण्ड विष्वविद्यालय झाँसी से एवं लखनऊ विश्वविद्यालय से विधि स्नातक महेन्द्र भीष्म सुपरिचित कथाकार हैं।
कृतियाँ
कहानी संग्रह: तेरह करवटें, एक अप्रेषित-पत्र (तीन संस्करण), क्या कहें? (दो संस्करण) उपन्यास: जय! हिन्द की सेना (2010), किन्नर कथा (2011) इनकी एक कहानी ‘लालच’ पर टेलीफिल्म का निर्माण भी हुआ है।
महेन्द्र भीष्म जी अब तक मुंशी प्रेमचन्द्र कथा सम्मान, डॉ. विद्यानिवास मिश्र पुरस्कार, महाकवि अवधेश साहित्य सम्मान, अमृत लाल नागर कथा सम्मान सहित कई सम्मानों से सम्मानित हो चुके हैं।
संप्रति -: मा. उच्च न्यायालय इलाहाबाद की लखनऊ पीठ में संयुक्त निबंधक/न्यायपीठ सचिव
सम्पर्क -: डी-5 बटलर पैलेस ऑफीसर्स कॉलोनी , लखनऊ – 226 001
दूरभाष -: 08004905043, 07607333001- ई-मेल -: mahendrabhishma@gmail.com

















