वीरू सोनकर की पांच कविताएँ
1) एक सपना
जैसे
चीनी बच्चों को
लंबे होने के सपने नहीं आते,
और जापानी बच्चों को
अब परमाणु हमले की चिंता नहीं सताती,
जैसे एक लामा बच्चे को रोज
घर की याद आती
पर,
छोटा बौद्ध फिर भी ख़ुशी-ख़ुशी ध्यान का अभ्यास करता है
वैसे ही,
ठीक वैसे ही
दुनिया के हर बच्चे में कोई न कोई बेफिक्री छुपी है
दुनिया में बेहद दूर-दूर बसे
ये बच्चे,
एक सपना अवश्य देखते है
खुद के बड़े होने का सपना !
वह योजनाये बुनते है
हजारो हजार योजनाये !
एक-एक दिन में कई कई योजनाये !
आप,
दुनिया के किसी बच्चे से मिलो
और सवाल करो
बड़े हो कर क्या बनोगे ?
और आप जान जाओगे
बच्चे कितने बातूनी होते है
बनिस्पत
एक तालिबानी बच्ची के—-
बड़े होने के सवाल पर
वह चुप रहती है
वह चाहती है—
चीनी बच्चों सा होना,
जापानियों की बेफिक्री,
और
लामा बच्चे की तरह
वह अपने परिवार से प्यार करना,
तालिबानी बच्ची,
दुनिया के बाकि बच्चों की तरह
कोई स्वप्न नहीं देखती
कोई योजना भी नहीं बनती,
वह चुपचाप
अपनी नजरे उठा कर मौन आँखों से सवाल पूछती है
मेरे हिस्से की बेफिक्री कहाँ है ?
और
इस झन्नाटेदार तमाचे से हमारे गाल लाल पड़ जाते है
2)मेरी कविताओ की वसीयत
मैंने कहा “दर्द”
संसार के सभी किन्नर, सभी शूद्र और वेश्याएँ रो पड़ी !
मैंने शब्द वापस लिया
मैंने कहा “मृत्यु”
सभी बीमार, उम्रकैदी और वृद्ध मेरे पीछे हो लिए !
मैंने शर्मिन्दा हो कर सर झुका लिया
मैंने कहा “मुक्ति”
सभी नकाबपोश औरते, विकलांग और कर्जदार मेरी ओर देखने लगे !
अब मैं ऊपर आसमान में देखता हूँ
और फिर से,
एक शब्द बुदबुदाता हूँ
“वक्त” !
कडकडाती बिजली से कुछ शब्द मुझ पर गिर पड़े—
“मैं बस यही किसी को नहीं देता !”
मैं अब अपने सभी शब्दों से भाग रहा हूँ
आवाजे पीछे-पीछे दौड़ती है—
अरे कवि,
ओ कवि !
संसार के सबसे बड़े भगोड़े तुम हो !
उम्मीदों से भरे तुम्हारे शब्द झूठे है !
मैं अपने कान बंद करता हूँ !
मैं अपने समूचे जीवन संघर्ष के बाद,
सबके लिए बोलना चाहूँगा,
बस एक शब्द—-
“समाधान”
अब से,
अभी से,
यही मेरी कविताओ की वसीयत है !
अब से,
अभी से,
मेरी कविताये सिर्फ समाधान के लिए लड़ेंगी !
मैंने मेरी कविताओ का वारिस तय किया—
सबको बता दिया जाये
3) एक खबर
एक खबर
पहले पहले भौचक्का करती थी सब को
और कानो-कान चलती थी
एक परिवार से
दुसरे परिवार तक,
एक गॉव से दुसरे गॉव तक,
शहर तक
और फिर पुरे देश तक—
अब खबरे
हेड-लाइन्स में बदली जा चुकी है
अब खबरे दौड़ती है
3g नेटवर्क पर
टीवी के चैनल्स पर
हमारे मोबइल के की-पैड पर फिसलती उंगलियों पर–
अब खबर
कोई अचरज नहीं जगाती
खबर, अब सिर्फ खबर भर है
अब कानो-कान दौड़ते किस्सों वाले कान
अपार्टमेंटों , कालोनियों में बट गए
अब खबरे हमसे भौचक्का रहती है !
वह रूप बदलती है
ज्यादा से ज्यादा वीभत्स रूप में,
खबरे चाहती है कि हम पहले जैसा कह उठे
हाय ! ये कैसे हो गया,
और हम !
एक तुलना कर के निकल लेते है
केदारनाथ से ज्यादा
भुज के भूकंप में मरे थे !
हां शायद,
यार मुझे पक्का याद नहीं !
और खबर रो पड़ती है
4) तय करो
तय करो,
नदी और
पनियल सांप का मिलना,
तय करो
अल्हड बच्चे का घर लौटना,
तय करो
बादलों का सही समय पर आना,
बादल !
फिर बादल तय करेगा…
मेरा कविता लिखना
और तुम्हारा कविता पढ़ना
चलो
तय करो !5) अनावश्यक विस्तार
मैं डरता हूँ
अपने अनावश्यक विस्तार से,
जैसे,
मेरी कविताये
बात की बात में
बढ़ती ही चली जाती है
जैसे बात,
कहाँ से कहाँ तक निकल आती है
जैसे
मुझमे से कई,
कई-कई सारे,
“मैं” निकल आते है
और
बात ही बात में
मेरे सभी मैं,
मुझसे ही बहस करते है !
तभी,
हाँ बस तभी से,
मैं डरता हूँ
अपने अनावश्यक विस्तार से
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परिचय -:
वीरू सोनकर
कवि व् लेखकशिक्षा- : क्राइस्ट चर्च कॉलेज कानपूर से स्नातक उपाधि (कॉलेज के छात्र संघ कवि व्म लेखक हामंत्री भी रहे )
डी ए वी कॉलेज कानपूर से बीएड
संपर्क – : क्वार्टर न. 2/17, 78/296, लाटूश रोड, अनवर गंज कालोनी, कानपूर
veeru_sonker@yahoo.com, 7275302077
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