प्रेम कविताएं
(1)
कविता और तुम
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वह एक कविता
जो धूप पर लिखी थी मैंने,
पसीने में गल गयी…
झरने पर
लिखी गयी कविता की एड़ी
पहाड़ से फिसल गयी…
पहाड़ वाली कविता
बाढ़ में
बह-दह गयी…
हवा पर
लिखी कविता को
रोटी सुँघ कर
ले उड़ा कोई कौआ!
झील वाली कविता
चन्द्रग्रहण में जल गयी…
बारिश वाली कविता को
मछलियां कुतर गयी…
हाँ, लेकिन तुम पर
लिखी गयी कविता
सुरक्षित है,
और अस्तित्व में रहेगी सदा-
धूप,हवा,बारिश,
पहाड़,झील,झरने के रूप में…
(2)
गर प्रेम को ए.टी.एम कहूँ,
गर प्रेम को ए.टी.एम कहूँ, मेरे ए.टी.एम कार्ड
का पासवर्ड है तुम्हारी मुस्कुराहट! ऐ
मिट्ठू,
बस एक तेरे उदास होने से
मैं कंगाल हुआ जाता हूँ… तुम्हें लिखते हुए मैंने
प्रकृति के ठीक सामने
एक आईना रख दिया…
ऐ मिट्ठू!
तुम जो उदास होती हो ना, कोहरे में
छुपा होता है चाँद। रात मुँह लटका कर
रात भर मुझसे
सवाल-जवाब किया करती है। तेरा
सिन्दूर नही,
एड़ी को चूम रहा अलता हूँ! मेरी यात्रा
तुमसे है,
चाहो तो हमसफ़र कहो मुझे
या मुस्कुराओ इस पागलपन पर, लेकिन
मुस्कुराती रहो ताउम्र। प्रेशर कुकर की
सीटी है तेरी मुस्कुराहट,
रात राजमा है!
तेरे मुसकाने से
शहर में सुबह होती है।
मंगलसूत्र नही,
मंगलकामना हूँ
तेरे स्वप्न की
डायरी का प्रथम पृष्ठ( विषय सूचि)…
तुम्हारी रूह के
बाम वक्ष पर स्थित
लहसन हूँ…
(3)
गर मैं
प्रेम को कहूं पनघट,
तो तुम
आँखों को लिक्खो प्यास…
मेरी देह को समझो गगरी,
तुम्हारी देह को लिक्खो पनिहारिन…
सुनो प्रेयसी,
मटकने दो पनिहारिन को
उसे खेलते रहने दो
कीत-कीत थाह।
ताकि उचक सके गगरी,
कि दर्ज हो सके फिजाओं में
तुम्हारी देह का गंध…
कि हो सके
रेगिस्तान में भी धान की खेती,
ताकि लगता रहे
पनघट पर वैशाखी का मेला…
सुनो प्रेयसी,
ससरने दो चेहरे से घूंघट!
कि छिटकती रहे
दिन में भी चाँदनी…
कि टपकने लगे
मौसम की जीभ से घाम,
और बढ़ती रहे प्यास…
आह!
कि मैं बाँटता रहूं
पंडूकियों में चिट्ठियां,
और अंकित हो सके
पंडूकियों की चोंच पर हमारा प्रेम…
(4)
मैंने हवा को नही देखा,
पर हवा की आँखों में
मेरी तस्वीर ज़रूर होगी।
मैं तुम्हारी आँखों से
कवितायें लिखता हूँ,
तुम मेरी त्वचा से
पढ़ती हो…
धूप की जीभ पर
मेरा नमक
और तेरा शहद जब घुलता है,
इन्द्रधनुश बनते हैं…
तुम किताब के दो पृष्ठ हो,
जिसे नींद में भी
मैं पढ़ा करता हूँ!
और छाती से सटा कर
देखता हूँ स्वप्न….
तुम्हारा हर हर्फ़,
मेरी रूह के
गीटार की अभिव्यक्ति है।
यह दुनिया एक पुस्तकालय है,
मैं मन की आँखों से
मोर पंख को सुँघ कर
साँस लेता हूँ…
तुमसे प्रेम करना,
प्रकृति की
जिजीविषा की
परवरिश करने जैसा है…
भले ही मुझे स्वार्थी कहो,
पर मेरे इस स्वार्थ के
गहराने से
गहराता है रंग मेंहदी का
तेरी हथेली में,
कि द्वितिया की चाँदनी सी
निखरती हो तुम…
अमावस उगती है,
बुदबुदा कर
व्यथित पराजित डूब जाती है!
क्यूंकि तेरी याद तापने से
मुझे फ़ुर्सत ही कहाँ मिलती…
सुनो!
प्रेम में
प्रेम का हर लम्हा पूर्णिमा होता है…
और प्रेम में
विरह की रात
फ़लक पर दो चाँद!
एक पूर्ण
दूजा सम्पूर्ण पृथ्वी…
(5)
तुम्हें ‘चाहते रहने’ की पृथ्वी,
चाँद का चक्कर लगाती है,
और चाँद अठन्नी उछालता है
सूरज की कटोरी में!
शीतल होती है धूप…
हवा का आख़िरी बूंद पसीना,
मेरी यायावरी का जीवाश्म है।
चुलबुली धूप
तुम्हारी बाँयी हथेली में
ओस की मेंहदी रचती है।
मुट्ठी बंद करो!
तुम्हारी सहेली
चुराना चाहती है एक ताजमहल।
तुम्हें ‘चाहते रहने’ की
पृथ्वी का रंग,
तेरी नज़रों का गुलाम होता है।
इन्द्रधनुश,
हवा की कमर में
खोंसा हुआ चाभी का गुच्छा है।
तुम प्रथम चाभी से खोलना
कोहरे का पिटारा,
और पढना वो सारे प्रेम पत्र!
जो जान बुझ कर
अधुरा छोड़ रक्खा है मैंने।
तुम्हें ‘चाहते रहने’ की पृथ्वी,
एहसास की नाभि का
पर्यायवाची है।
उफ्फ़! ये अदायें तेरी,
कि सिहरता है पत्ता पत्ता!
कितनी नटखट हो तुम
कि बसंत को सौंप चुकी हो सत्ता।
उल्काओं का चटकना,
जैसे रोम-रोम गुदगुदी।
तुम्हें कुछ यूं चूमता हूँ!
जैसे गर्म साँसों की बगिया में
तितलियां पकड़ते हुए,
चुभता है मेरे सीने में
बारिश का एक कांटा।
तुम्हें चूमते हुए
तेरे बंद पलकों के
सामियाने तले
मैं सकपकाता गुलाब हो जाया करता हूँ।
ध्रुवतारा है
तुम्हारी हिचकी।
चिरई,
तुम्हारी कलाई घड़ी में
मैंने एक आकाश बोया है!
कि आज फिर अरब सागर में
मैंने मेरा रूमाल धोया है…
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आयुष झा आस्तीक
लेखक व् कवि
यांत्रिकी अभियंता – नोयडा सेक्टर
सम्पर्क -:
एकता नगर मलाड (मुंबई)
मोबायल – 8108279528
ई मेल – : ashurocksiitt@gmail.com
स्थायी निवास- ग्राम-रामपुर आदि , पोष्ट- भरगामा, जिला-अररिया , पिन -854334
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