इमरान रिज़वी की कहानी ” मंज़िल और रास्ता “

 इमरान रिज़वी की कहानी ” मंज़िल और रास्ता “

– मंज़िल और रास्ता –

इमरान रिज़वी की कहानीज़िन्दगी एक न एक बार हर किसी को सफ़र का मौक़ा ज़रूर देती है..उसका भी ये पहला मौक़ा था जब वो घर से बाहर कहीं सफर के लिए निकल रहा था,
ऐसा नहीं था की इसके पहले कभी उसने सफर का कोई तजुर्बा हासिल न किया हो,छोटे मोटे नज़दीकी रास्तों का उसे खूब अनुभव था,लेकिन इस बार बात कुछ अलग थी,इस बार का सफर उसकी ज़िन्दगी में बेहद अहमियत रखता था,क्योंकि जिस मंज़िल के हासिल करने के लिए वो ये सफ़र करने जा रहा था वो उसकी ज़िन्दगी में बहुत ऊँचा मक़ाम रखती थी,या यूँ कह लीजिए वो उसकी ज़िन्दगी का मक़सद थी,

रास्ता बेहद तवील होने के चलते इस सफर पर बिना एक साथी के नही निकला जा सकता था,दरअसल काफी अरसे से इस सफर की ख्वाहिश होने के बावजूद भी वो एक अदद हमसफ़र के न होने के चलते ही इब्तिदा करने से घबरा रहा था,
अब जाने को तो उसके आस पास कई ऐसे लोग थे,जिनमे से किसी को भी वो अपने साथ लेकर जा सकता था,लेकिन वो लोग उसके दिल ओ दिमाग के मुताबिक नही थे,उसकी शख्सियत की कसौटी पर खरे नहीं उतरते थे, हालाँकि,उन लोगों में कोई खराबी रही हो ऐसा कुछ न था,सब एक से बढ़ कर एक हसीन खूबसूरत और खूबसीरत लोग थे,लेकिन जिस खूबी की उसे तलाश थी वो भी नही थी उनके पास,

अक्सर ऐसा होता है कि हमारे पास कई बेहतर से बेहतर लोग मौजूद हों,लेकिन फिर भी ज़ेहन के किसी एक कोने पर हम खुद को तन्हा पाते हैं…इसकी वजह शायद उन लोगों का हमारे मन के उस कोने तक न पहुच सकना होता हो,वो कोना जहाँ हम हकीकत में मिला करते हैं या जहाँ हमारी हक़ीक़त मिला करती है,

ज़ेहन के इस कोने का दरबान बड़ा सख्त होता है, ये हर किसी को अंदर आने भी नहीं देता,जैसे तैसे अगर कोई उस दरवाज़े के आस पास पहुच भी गया तो फिर सख्त तलाशी के दौर शुरू होते हैं, फिर तसल्ली न होने पर उसे वहीँ दरवाज़े से वापस भेज दिया जाता है,
बहुत कम लोग हमारी ज़िन्दगी में इस दरवाज़े को पार कर पाते हैं,और एक बार अंदर आ जाने पर बाआसानी बाहर नहीं निकल पाते,
किस्सा मुख़्तसर यह कि हमारी कहानी के इस किरदार को भी ऐसे ही किसी शख्स की तलाश थी जो उसे मिला भी,एक ऐसा शख्स जो सीधे उसकी निगाहों के रस्ते से मन में उतरा तो फिर उतरता चला गया,दरअसल वो मिल तो काफी पहले गया था लेकिन उसे इस बात का अहसास होने में थोडा सा वक़्त लग गया था,

फिर एक दिन वो वक़्त भी आया जब दोनों ने सफ़र की शुरुआत करने का फैसला किया…
वो दोनों बेहद खुश थे और उन्हें अब मन्ज़िल के मिल जाने का पक्का यकीन हो चला था,पूरी तयारी और जोश के साथ एक दूजे का हाथ थामे उन्होंने चलना शुरू कर दिया,एक दुसरे को देखते,हंसते मुस्कुराते से,जब वो उसकी आँखों में गहरे से झांकता तो उसके गालों पर लाली छा जाती…उन्हें ऐसा लगता मानो पूरी दुनिया की ख़ुशी इन चार आँखों के दरम्यान में सिमट आई हो,और इसके सिवा दुनिया में कुछ है ही नहीं….

इसी हालात में अक्सर तो ऐसा होता की दोनों मन्ज़िल के बारे में भूल ही जाते और सफर के पेंचो खम में एक दूसरे के साथ का मदमस्त कर देने वाला अहसास उन्हें मदहोश किये रहता…एक दूसरे में खोये हुए से,थमे हुए,अहसास की उस मंज़िल पर पहुचे हुए जहाँ से कोई वापस नहीं आना चाहता लेकिन कुछ मजबूरियों के चलते वापस आ जाना ही पड़ता है….लेहाज़ा उन्हें भी वापस आना ही पड़ता और फिर दोनों सफर की मंज़िल तय करना शुरू कर देते थे…
एक दूसरे से बातें करते और मंज़िल के बारे में सोचते हुए बकिया ज़िन्दगी और वहां रहने सजाने और बिताने के बारे में घण्टो तक बातें किया करते थे….कभी कभी दोनों में किसी बात को लेकर मीठी बहस भी हो जाती थी जो आखिर में एक राय होकर खत्म भी हो जाती थी…

इसी सफर में एक मौक़ा ऐसा भी आया जब दोनों को अपनी मन्ज़िल सामने नज़र आने लगी…साफ़ शफ्फाक और एकदम आँखों के सामने बस चन्द क़दमो की दूरी पर,वो मंज़िल जिसकी तलाश में उन्होंने इतना लम्बा और खूबसूरत सफर तय किया था,दोनों दुगनी रफ़्तार से मन्ज़िल की तरफ बढ़ने लगे….एक दूजे का हाथ थामे वो उस जानिब बढ़ ही रहे थे की अचानक से उसकी हमसफ़र ने उसको रोक दिया…वो शख्स वहीं ठिठक कर खड़ा हो गया….और सवालियां निगाहें उसके चेहरे पर गड़ा दीं….
क्यों रोकती हो?मन्ज़िल सामने आ गयी है….
हाँ,देखा…
फिर?हमने इतना लम्बा सफर इसीलिए तो तय किया है जाना,इसी मंज़िल को हासिल करने के लिए जो हमारे सामने है…फिर रोकती क्यों हो?

हमसफ़र जवाब देती है-हाँ किया तो सही…लेकिन ज़रा उस सफ़र का भी सोचो…जो हमने एक दूजे के साथ तय किया है…उस सफ़र के अहसासात,एक दूसरे के साथ का लुत्फ़….और सबसे बढ़कर यह जानना कि दो लोगों के साथ और हमसफ़री के हक़ीक़ी मायने क्या होते हैं….मेरा तुमसे सवाल बस इतना है…क्या इस मंज़िल पर पहुच कर भी हम उस अहसास को दोबारा और वैसे ही कभी भी जी पाएंगे?जैसा की हमने इस सफ़र के दौरान जिया है?
उसकी बात जायज़ थी,शख्स एक सोच में पड़ गया,लेकिन हमसफ़र ने आगे बोलना जारी रखा,
ज़रा सोचो न जाना,हम आज इस मन्ज़िल के एकदम पास पहुच गए हैं….थोड़ी देर में हम इसके अंदर होंगे,कुछ आराम करेंगे,थोडा जश्न मनाएंगे,फिर उसके बाद?उसके बाद हमारे पास करने के लिए क्या बचेगा?ये जो इस सफ़र में हमने एक दूसरे को जिया है,एक दूसरे कि तकलीफों में हम साथ रहे हैं और खुशियों के जिन पलों को हमने सांसो में उतारा है अपनी,उन पलों को हम दोबारा पा सकेंगे क्या?

वो शख्स वहीँ पास एक पत्थर पर बैठ कर उसकी बातें ध्यान से सुनने लगा….हमसफ़र उसके क़दमों के पास बैठी और उसके जानू पर अपना सर रख के उसे सफ़र की मीठी यादों और तजुर्बों का ज़िक्र करने लगी…..
यह बड़ी अजीब सी स्थिति थी…..जिस मक़सद के लिए उन्होंने यह सफर अंजाम दिया था वो एकदम सामने होने के बाद उन्हें अपने मक़सद के बजाये वो रास्ता ज़्यादा भा रहा था जिसके ज़रिये वो यहां तक पंहचे थे,

“बेशक रास्ता मंज़िल नहीं हुआ करता,लेकिन मन्ज़िल हमेशा मन्ज़िल हो यह भी तो ज़रूरी नही न,महज़ कुछ पुराने ख्यालात की बिना पर किसी मन्ज़िल को मन्ज़िल और रस्ते को रास्ता क़रार दिया हुआ है हमने….लेकिन क्या यह ज़रूरी है कि हज़ारों साल पहले लिखी गयी जगह आज भी मन्ज़िल ही हो या फिर रास्ता वही रास्ता हो…..”
हमसफ़र की बातें उसकद कानो के ज़रिये ज़ेहन की नसों में तैरती जा रही थीं….उसके नज़रिये में कुछ इंक़लाबी सा बदलाव आ रहा था…उसे सोचने पर मजबूर होना पड़ गया,जिसे वो अब तक मन्ज़िल समझ रहा था और उसकी याद में पागलों की तरग दौड़ लगाता फिर रहा था वो आज अगर पा भी ली तो क्या?

यह सफर अगर खत्म हो गया तो फिर आगे क्या होगा?जीवन का रोमांच और मक़सद फिर वो किसमें तलाश करेगा?कहाँ ढूंढेगा ज़िन्दगी को और कैसे?इन्ही ख्यालों की उधेड़बुन में दोनों देर तक खोये रहते हैं,एक बारगी कुछ फैसलाकुन अंदाज़ में सर झटके जाते हैं,मुस्कुराया जाता है…उदास हुआ जाता है और फिर बातें शुरू हो जाती हैं…..फिर एक बारगी अचानक उसके होंटो पर एक शांत सी मुस्कुराहट खेलने लगी है,वो अपनी हमसफ़र की आँखों में देखता है…नज़रें मिलते ही उसके होंटो पर भी वही मुस्कान तैर जाती है…मानो वो कह रही हो,मैं समझ गयी तुम्हारे मन की बात….यह बात बहुत कम लोग महसूस कर पाते हैं लेकिन सफर में एक मन्ज़िल ऐसी भी आती है जबकि लफ्ज़ कम पड़ जाते हैं या यूँ कहें की लफ़्ज़ों की ज़रूरत नहीं रह जाती है…ऑंखें ही सब हाल बयान कर दिया करती हैं….बड़ा खूबसूरत होता है यह अहसास जिसे कि आज तक लफ़्ज़ों में बयान नहीं किया जा सका है, उनको बड़ा अच्छा लगता था हर बा जब ऐसा होता था,दोनों अपनी जगह से उठते हैं और एक दूजे का हाथ थामे एकबारगी होंटो पर होंट रखे एक दूसरे को कुछ देर तक चूमते रहते हैं,और मन्ज़िल के सामने दूसरी ओर को जाते हुए एक बेहद दिलकश लेकिन सुनसान और अंतहीन रास्ते की जानिब बढ़ जाते हैं….इस बिना किसी आने वाली मंज़िल के तय किये…मानो दोनों के दिल में यह सच बैठ गया हो…की यही सफर ही तो वो मंज़िल है…जिसकी उन्हें तलाश थी…..इसे खत्म नही होने देना है कभी…..वरना इसके साथ ही एक दिन वो भी खत्म हो जायेंगे……

कहीं पीछे छूट गयी उनकी वो पुरानी मन्ज़िल, जो दरअसल कभी उनकी मन्ज़िल थी ही नहीं……उनको जाते हुए देखती है….मानो उन दोनों से कह रही हो कि….मुबारक हो तुम्हें! आज तुमने एक दूजे को खुद से जुदा होने से बचा लिया है,और अपने रिश्ते को ज़िंदा ओ जावेद कर दिया है……आखिरी मर्तबा पीछे मुड़कर देखने के बाद फिर एक दूसरे में खोये दोनों अपने अंतहीन रास्ते पर आगे बढ़ जाते हैं…..

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इमरान रिज़वी
लेखक व् कवि

जन्मस्थान- लखनऊ (17-4-1988) (आरंभिक शिक्षा वहीँ)

शिक्षा-टीडी कॉलेज से एमकॉम, वर्तमान में यू एन एस लॉ कॉलेज ,जौनपुर से विधि छात्र,
वर्तमान निवास जौनपुर,

लेखन क्षेत्र- मुख्यतः कहानियाँ एवम् कविताएँ,

ईमेल-emranrizvi@gmail.com –  मोबाइल –  9454324545

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