सफेदपोशों में सिहरन पैदा करती चारा फैसला

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किसी ने ठीक ही कहा है, ‘‘सांप और संचिका दोनों विष से भरा होता है किन्तु विष सर्प के बजाय संचिका का विष सर्वाधिक कष्टदायी होता है।’’ यह कथन भारतीय राजनीति पटल पर एक अलग अंदाज के रूप में ख्यात श्री लालू प्रसाद यादव पर सटीक बैठा। 17 साल तक संचिका रूपी विष से बचते बचाते अंततः उन्हें उनके किये कुकर्मों का फल भारतीय लोकतंत्र में मिल पाया। जिस शख्स के लिए देश का प्रधानमंत्री तक पैरवीकार रहा हो (संदर्भ सी.बी.आई. निदेशक जोगिन्दर सिंह और तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दर कुमार गुजराल) उसके बाद भी धीमी न्याय प्रणाली का शिकार श्री लालू जी बन ही गए। पशुपालन विभाग का घोटाला ने एक बार साबित कर दिया कि निरीह और मूक पशुओं की आह से बचो। जिस बिहार की धरती ने प्रेम, अहिंसा, भाईचारा विशेषकर पशुओं के लिए अस्पताल एवं उनके रक्षा के लिए सम्राट अशोक- काल से राज्य सत्ता व्यवस्था करती आई है वैसे में श्री लालू जी को मूक निरीह पशुओं का आह लगा। स्वयं को गोपालक और गोभक्त बने लालू जी का नास्तिकता से आस्तिक बनने की ओर बढ़ता कदम भी उन्हें सजा से नहीं बचा पाई। सत्ता से देवता तक किन्हीं का संरक्षण नहीं मिला। फलतः आज रांची के बिरसा मुंडा जेल में अपना सजा के पांच वर्ष गुजारने को मजबूर हैं।
वर्ष 1970 के पटना विश्वविद्यालय के छात्र संघ चुनाव में महासचिव का पद जीतकर राजनीति में पदार्पण करने वाले श्री लालू जी एक समय बिहार की आवाज थे। आजादी के बाद बिहार के सर्वाधिक लोकप्रिय नेताओं में शुमार श्री लालू जी को अपार जनसमर्थन भी मिला। वर्ष 1973 में जब पटना विश्वविद्यालय छात्र संघ का चुनाव हुआ तो ये अध्यक्ष चुने गए। उसके बाद देश में जे.पी. आंदोलन का लहर पैदा हुआ, उसमें जे.पी. के निकटतम ब्रिगेड में श्री लालू जी का प्रवेश हुआ। 1977 में छपरा संसदीय क्षेत्र से जनता पार्टी के टिकट पर सांसद बने। किंतु वर्ष 1980 में जब चुनाव हुआ तो छपरा से इन्हें शिकस्त भी मिली। 1987 में भी पराजय का सामना करने वाले श्री लालू जी हताश नहीं हुए। वर्ष 1980 में बिहार के सोनपुर विधानसभा से जीतकर फिर विधानसभा की ओर अग्रसर हुए। 1989 तक वहां के विधायक रहे। 1989 में छपना संसदीय सीट को फिर कब्जे में किया। 10 अप्रैल 1990 को बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ लिया। इस दरम्यान कभी इंदिरा इज इंडिया के तर्ज पर लालू इन बिहार के आगोश में पूरा बिहार की राजनीति चल चुकी थी। कहा जाता है कि सत्ता और पावर व्यक्ति को उन्मादी बना देता है और श्री लालू जी इस बीमारी से ग्रसित होते गये। अब लालू जी को महसूस होने लगा कि मैं ही राजा हूं और सामन्तवादी कीड़ा इनके दिमाग में बुलबुलाने लगा। फलतः पीड़ित, दलित, शोषित की राजनीति करने वाले श्री लालू जी इन वर्गाें को सिर्फ सपनों में डालकर परिवारवाद और जातिवाद के दंश से बिहार को लहुलुहान करना शुरु कर दिया। अपने आपको कानून और संविधान से भी ऊपर समझने का गरुर ही उन्हें आज इस मुकाम पर लाकर खड़ा किया। श्री लालू जी को बिहार का आवाम ने जिस आशा के साथ सर आंखों पर बिठाया उसका दुरुपयोग ही इस ‘राजा’ को और राजा बनाने वाले को बिरसा मुंडा जेल का वासी बना दिया।
11 मार्च 1996 को पटना उच्च न्यायालय ने चारा घोटाले से संबंधित सभी मामलों की जांच सीबीआई को सौंपने का आदेश दिया, जिसकी संस्तुति 19 मार्च 1996 को उच्चतम न्यायालय ने कर दी। सीबीआई को 6 मामले में श्री लालू प्रसाद यादव की संलिप्तता लगी। फलतः इनके नाम भी आरोप पत्र में डाले गये जबकि वह काल बिहार में लालू जी के लिए स्वर्णिम काल था क्योंकि खुद बिहार के ‘राजा’ थे। इनके सामने पशुपालन विभाग घोटालों का सरताज बना था किंतु राजा इस मुगालते में जी रहा था कि वह कानून से बड़ा है। उल्लंघन भी करेंगे तो उनके मातहत उन्हें बचाकर ही दम लेंगे। 18वीं सदी के सोच से ग्रस्त सर्वहारा वर्ग का तथाकथित परिचायक 21वीं सदी में भी उसी भ्रमजाल में जीता रहा है। कानून व प्रशासन की हैसियत श्री लालू जी ने वैसी बना कर रख दी थी कि तत्कालीन सीबीआई अधिकारी श्री यू.एन विश्वास को इनको गिरफ्तार करने के लिए सेना से सम्पर्क करना पड़ा। इस कदर उस समय बिहार की नागरिक प्रशासन इनके तलबे सहलाता रहता था। किंतु सत्य सदैव विघ्नबाधाओं से परे होता है। सत्य का तकाजा है कि आज 17 साल बाद देश की राजनीति में हलचल पैदा करने वाले श्री लालू जी पर कानून का डंडा चला और अभी चारा घोटालों के कुछ ही मामलों में पांच साल की सश्रम सजा और 25 लाख दंड भी लगाया गया है। हालांकि यह दंड ऐसे राजनीतिक लोगों के लिए ‘‘ऊंट में मुंह में जीरा है।’’ किंतु कल तक इस भारत भूमि पर ऐसे सफेदपोश पकड़ में नहीं आते अगर पकड़ में भी आते तो कछुआ गति से चलने वाला न्याय तंत्र मृत्युपरांत फैसला देता। इसी केस में जिस-जिस तरह के अरोप श्री लालू प्रसाद की ओर से लगाया गया वह सिर्फ न्याय को प्रभावित करना, धीमी करना ही था जो बिहार के उस कहावत को चरितार्थ करता है कि ‘‘बना काम में झगड़ा डालो कुछ तो पंच दिलाएगा।’’
भारतीय संविधान को इन नेताओं ने तो माखौल बना कर रख दिया था। बहस-पर-बहस, तारीख- पर-तारीख के सहारे सतत् छूट लेने का माहौल में जीने वाला इस देश का राजनीतिक अपराधी आदि रहा है। यदि भारतीय उच्चतम न्यायालय ने दागी सांसदों औ विधायकों को रोकने वाली फैसला नहीं देता तो अभी तो इन लोगों की चांदी होती। हालांकि देश की बर्तमान केन्द्रीय सरकार की कैबिनेट ने उच्चतम न्यायालय के फैसले को बदलने के लिए आनन-फानन में अध्यादेश ले आया। भला हो राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी का जिन्होंने उस       अध्यादेश पर प्रश्न चिन्ह् लगाकर सरकार से जबाव तलब कर डाला था। इस अध्यादेश पर देश के विपक्षी दलों ने भी कड़ा तेवर अपना रखा था। अंततोगत्वा वह अध्यादेश वापस हुई और मंडल दौर के मसीहा को जेल की उपहार में संसद सदस्यता का त्याग करना पड़ रहा है। अपने ठेठ देसी लहजा और मसखेरपन के लिए देश ही नहीं विदेशी धरती पर मशहूर बिहार का यह जननायक की छवि वाला अक्खड़ नेता अपना अक्खड़पन का ही शिकार हुआ। नब्बे के दशक में इस नेता की तुति बोलती थी। फलतः इन्होंने शासन-प्रशासन कानून संचिका सबसे ऊपर अपने आपको माना, वहीं घमंड आज राष्ट्रीय जनता दल के इस स्वयंभू कर्णधार को जेल की सलाखों के पीछे डालने में काम किया है। बिहार की राजनीति तपिश में आज न वह गरमी और न वह उन्माद है, जो नब्बे के दौर में रहा है। वैसे भी आज तक अपना जीवन को अभयदान प्राप्त करने वाले श्री यादव पर सदैव कांग्रेस कृपा बरकरार रही है। किंतु आज राष्ट्रीय जनता दल और श्री लाल  जी जिस मुहाने पर खड़ा है, वहां तक पहुंचाने का श्रेय भी कांग्रेस जैसे दलों का एवं उनके सहयोगी सीबीआई का है। इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है क्योंकि रावर्ट वाड्रा मामला, मुलायम मामला या मायावती का मामला हो दहशतगर्दों की जमात कांग्रेसियों ने सदैव अपने हित के लिए सीबीआई का इस्तेमाल किया है। पता नहीं क्येां इस बार सोनिया हस्त इस शोषितों, बंचितों एवं तथाकथित अल्पसंख्यकों के पैरोकार पर नहीं पड़ा।
950 करोड़ रुपये का चारा घोटाला मामलों में श्री लालू जी का जेल जाना और उनकी संसद सदस्यता स्वतः रद्द होना, उनके राजनीति भविष्य पर प्रश्नचिन्ह् लगाए हुए हैं। राहू और केतु के काल का ग्रास बना यह देसी मसखरा का हश्र इस कदर होगा, इसका अनुमान खुद इन्हें नहीं होगा क्योंकि आज तक नेताओं को सजा मिलती हो, इसके उदाहरण नगण्य है। इसके अलावे जमीन से जुड़ा यह नेता अपने चौकड़ी के जाल में घीरकर कब जमीन से कट गया, इसे खुद पता नहीं चला। दिल्ली और पटना के चकाचौंध में गांवों के चौपाल से इसका नाता कब टूटा यह भी पता नहीं चला। आज बिहार की राजनीति में नितीश कुमार चल नहीं चलाए जा रहे हैं ऐसे में राजद ने आशा की जो किरण देखी थी वह धूलधूसमित हो गयी। हांलाकि राजनीति के मंजे इस खिलाड़ी को कांग्रेस ने जबरदस्त मात दी है। शायद यह मात राष्ट्रीय जनता दल के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह् न लगा दे। वैसे भी आज का राजनीति नीतियों सिद्धांतों से परे है। अपनी स्वार्थपूर्ति कहां होगी, यही दल, यहां के नेताओं का सिरोधार्य है। वैसे हालत में लोकसभा 2014 में राजद सिमटकर कहीं एक भी ना रहे। क्योंकि राजद को ऑक्सीजन देने के लिए लोक जनशक्ति पार्टी जो खुद ऑक्सीजन पर है, लगातार अपना बयान दे रहा है। कांग्रेस का मारा यह नेता लोजपा के सहारे बैतरणी पार करने की सपना तो नहीं, हां डूबने का सपना साकार कर सकता है। अपने जड़ों से कटने के बाद हमारी क्या हश्र होगी, अपने दायित्वों से मुंह मोड़ने एवं उसे दरकिनार करने का क्या हश्र होता है, इसके उदाहरण श्री लाल यादव है। अपने राजकीय दायित्वों व केन्द्रीय दायित्वों का अवहेलना करना इन्हें भारी पड़ा। चारा घोटालों की सजा वस्तुतः इस देश के सभी वर्गों, नौकरशाहों व राजनीति में लगे लोगों के मुंह पर करारा तमाचा है। भारतीय कानून व न्याय प्रक्रिया की धीमी प्रवृति ने इस देश में कानून के भय इन सफेदपोशों से निकल गया था। इस घोटाले की सजा उन हरामखोरों में सिहरन पैदा कर रही होगी, जिनके मुंह भ्रष्टाचार के कालिख से पूते हैं।
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sanjay-kumar-azad1**संजय कुमार आजाद
पता : शीतल अपार्टमेंट,
निवारणपुर रांची 834002
मो- 09431162589
**संजय कुमार आजाद, स्वतंत्र पत्रकार एवं लेखक हैं इन्होने बिरसा हुंकार का संपादक पद छोड़कर स्वतंत्र लेखन में है।
*लेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं और आई.एन.वी.सी का इससे सहमत होना आवश्यक नहीं।

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