{ इं कुशलेश कुमार शाक्य } मानव जीवन अपनें स्वयं के कर्मों के कारण समस्याओं व दुःखों से भरा पड़ा है। मनुष्य के दुःखों को दूर करनें के लिए शाक्यमुनि गौतम बुद्ध नें अपनें समस्त सुखों को त्याग व स्वयं के शरीर को प्रयोगशाला बनाकर वर्षों गहन अध्ययन, अनुसंधान, विश्लेषण, चिंतन व मनन कर जो अनुभूतियां प्राप्त की उनके आधार पर उन्होनें उन सिद्धांतों का हजारो वर्ष पूर्व प्रतिपादन किया।
जिसमें मानव जीवन को निरोगी तथा उसके कल्याण के लिए उसकी सभी ज्वलंत समस्याओं का समाधान धम्म चक्र की चौबीस तीलियों के रूप में निहित कर दिया था। धम्म चक्र आज हमारे राष्ट्रीय ध्वज और बुद्धधर्म के गौरव को बढ़ा रहा है। जीवन एक युद्ध है, जीवन एक संग्राम है इस पर विजय पानें के लिए प्रकृति नें पति-पत्नी के रूप में मनुष्य को मिलाया है। जीवन को जीतनें के लिए हम दो ही पर्याप्त हैं।
सामान्यतः जनमानस को धम्म चक्र के बारे में यही जानकारी दी जाती है कि, चक्र के अन्दर विद्यमान चौबीस तीलियां मनुष्य को चौबीस घण्टे निरन्तर कर्मरत रहनें के लिए प्रेरित करती हैं। लेकिन इसके अतिरिक्त तथागत बुद्ध नें धम्म चक्र की चौबीस तीलियों के माध्यम से मनुष्य को सफल जीवन जीनें का मार्ग और समस्त दैनिक समस्याओं का समाधान बताया था,जो इस प्रकार परिभाषित है –
1-दोः अतियां हैं – इनसे बचो।
2-चारः महान सत्य।
3-आठः अष्टांगिकमार्ग।
4-दसः पारिमिताएं या दस गुण।
दो अतियां- एक इंद्रिय विषय सुख व विलासता की अति, दूसरी जीवन से विरक्ति व आत्मदमन की अति। मनुष्य को इन दोनों अतियों से बचकर मध्यम मार्ग पर चलना है।
– चार महान सत्य –
गौतम बुद्ध के द्वारा आविष्कारित किए गए चार महान सत्य बुद्ध दर्शन के प्राण हैं-
1- प्रथम महान सत्य-मानव जीवन की सभी स्थितियां और अवस्थाएं दुःखों से भरी पड़ी हैं। जैसे-जन्म लेना ही दुःख है, बुढ़ापा दुःख है, रोग दुःख है और मृत्यु दुःख है। मनुष्य जो इच्छा करता है उसकी प्राप्ति न होना दुःख है। और उसे जो सबसे अधिक प्रिय है उसका वियोग सबसे बड़ा दुःख है
2- द्वितीय महान सत्य– दुःख का कारण तृष्णा है। मनुष्य अपनी क्रियाशीलता स्वयं की इच्छापूर्ति के लिए करता है। सभी आधुनिक आकर्षण मनुष्य को दुःखों की ओर ले जाते हैं। जब तक कोई कारण न हो तब तक दुःख की उत्पfŸk नहीं हो सकती। मनुष्य की सांसारिक विषयों के प्रति जो आसक्ति है या उनसे लगाव ही उसके दुःखों का मुख्य कारण है।
3- तृतीय महान सत्य-तृष्णा के त्याग से ही दुःख का निरोध सम्भव है। मानव मन की तृष्णा ही उसें नई-नई परेशानियों व चिंताओं में डालती रहती है। राग-द्वेष पर कोई मनुष्य पूर्ण विजय पाकर शुद्ध आचरण के साथ लगातार ध्यान करते हुए प्रज्ञा प्राप्त कर लेता है तो उसका चित्त लोभ, मोह, राग-द्वेष आदि से बहुत दूर चला जाता है। इस तरह मनुष्य सांसारिक बंधनों से मुक्त होते हुए मोक्ष प्राप्त करता है, इसे ही निर्वाण कहते हैं।
4– चतुर्थ महान सत्य– दःख के मूल में अविद्या है। दुःख से छुटकारा पानें का उपाय अष्टांगिक मार्ग है। जिन कारणों से दुःख की उत्पत्ति होती है उनको नष्ट करनें का उपाय ही निर्वाण मार्ग है।
– अष्टांगिक मार्ग –
अष्टांगिक मार्ग पर चलनें से मनुष्य की सभी स्वार्थपूर्ण इच्छाओं का नाश एवं सम्यक् कर्म करके ही निर्वाण की प्राप्ति होती है।
1-सम्यक् दृष्टि– मनुष्य को सही ज्ञान व बोध होना अर्थात् अंधविश्वास, भ्रम, व भय से मुक्ति। अच्छे बुरे कर्मों की भलीभांति पहचान होना ही सम्यक् दृष्टि है। सम्यक् दृष्टि द्वारा किए गए कर्म ही मानव को दुःखों से दूर रख वास्तविक जीवन का सुख प्रदान कर सकते हैं।
2-सम्यक् संकल्प– इसमें मनुष्य के संकल्प जितनें श्रेष्ठ और ज्ञानयुक्त होंगे उतना ही उसका मन प्रसन्न रहेगा। मनुष्य को अप नें ज्ञान व अनुभव के आधार पर काम करनें का संकल्प लेना चाहिए।
3-सम्यक् वाणी– सम्यक् वाणी का तात्पर्य होता है कि हम सत्य बोलें। मिथ्या वचन, चुगली करना, बेमतलब बोलना आदि से बचें। इन वाणियों के दोषों रहित वचन बोलना ही सम्यक् वाणी है। वाणी के द्वारा किसी के मन को चोट न पहुंचाएं या हिंसा न करें । यह हिंसा के परिणाम सबसे ज्यादा घातक होते हैं।
4-सम्यक् कर्म-सही या योग्य कर्म करना। मनुष्य को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि जिस कार्य को वह करनें जा रहा है उससे दूसरों के अधिकारों एंव उनकी भावनाओं का हनन न हो। कर्म से ही मनुष्य महान बनता है उच्च कुल में जन्म लेनें से नहीं।
5-सम्यक् आजीविका– हमें ऐसी जीविका अर्जित करनी चाहिए जिससे किसी को हानि न हो और न ही किसी के प्रति अन्याय की भावना हो।
6–सम्यक् व्यायाम– हमें अपनी इंद्रियों पर संयम रखनें एवं गलत भावनाओं को रोकनें का प्रयास करना चाहिए। जैसे -मादक द्रव्यों का सेवन न करना।
7-सम्यक् स्मृति– मन की सतत् जागरूकता के द्वारा मन में उत्पन्न अकुशल विचारों को याद रखना। सतत् जाग्रति बनाए रखना ही सही स्मृति है।
8-सम्यक् समाधि– चित्त की एकाग्रता ही समाधि है। चिंतन,मनन, ध्यान या चिŸk में स्थायी परिवर्तन लानें को सम्यक् समाधि कहते हैं
–दस पारमिताएं–
दस पारमिताएं ऐसे गुण हैं जिन्हें विकसित कर मनुष्य अपनें अहंकार को समूल नष्ट कर सकता है। क्योंकि अहंकार से ही क्रोध की उत्पत्ति होती है। अहंकार को मिटा कर ही मनुष्य निर्वाण का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। भिक्षाटन करनें से ‘ अंहकार शून्यता ’ का भाव मन में जाग्रत होता है।
इसीलिए शाक्यमुनि बुद्ध घर-घर जाकर भिक्षाटन करते और लोगों को समझाते भी थे कि, प्रेम और प्रज्ञा का मार्ग क्या है? वह भिक्षाटन को लोगों से सम्पर्क स्थापित करनें का एक अच्छा माध्यम मानते थे।
अहंकार मनुष्य के विवेक को नष्ट कर देता है। इसी अहंकार के चलते मानव का सही सोच और सम्यक् कर्म धीरे -धीरे समाप्त होनें लगते हैं । इसका मनुष्य को जीवन पर्यंत अहसास भी नहीं हो पाता है। इस रोग से संसार का प्रत्येक मनुष्य किसी न किसी रूप में पीड़ित है।
पहली पारमिता- निष्क्रमणः अर्थात् ग्रहस्थ जीवन का त्याग। मनुष्य के पास अपना कुछ नहीं, भोजन भी भिक्षा मांग कर करना। अपनें चित को निर्मल करनें के लिए कर्म करना।
दूसरी पारमिता-‘ शील कीः ’ मन, कर्म और वाणी से किसी को आहत न करना तथा सब पर दया करना ही शील कहलाता है। मनुष्य को जीवन में शील का गुण विकसित करते हुए पांचशीलों को अपनाना चाहिए- किसी प्राणी की अकारण हिंसा न करना, चोरी न करना, व्यभिचार न करना, असत्य न बोलना और नशीले द्रव्यों का सेवन न करना ही परम कल्याणकारी है। इसके पालन से मनुष्य की आर्थिक स्थिति मजबूत होती है।
तीसरी पारमिता- सम्यक् प्रयत्न करना। चित शुद्धि के प्रयत्न, स्मृतिमान रहनें के प्रयत्न और सम्प्रज्ञ रहनें के लिए प्रयत्न जो मनुष्य को निर्वाण की ओर ले जाता है।
चौथी पारमिता- प्रज्ञाः प्रज्ञा दो प्रकार है। पहली बाहरी प्रज्ञा जो मनुष्य को पुस्तकीय ज्ञान, उपदेशों को सुनकर ज्ञान, चिंतन मनन के द्वारा प्राप्त किया गया ज्ञान। दूसरी भीतरी प्रज्ञा या सच्ची प्रज्ञा स्व अनुभव के द्वारा प्राप्त ज्ञान, आत्म-निरीक्षण से प्राप्त सच्चा ज्ञान अर्थात् सत्य के इस प्रत्यक्ष अनुभव से मनुष्य दुःख से मुक्त हो जाता है।
पाचंवी पारमिता- सहिष्णुताः सहिष्णुता का विकास। दूसरों के प्रति मनुष्य को अपनें मन में स्नेह और करूणा का भाव जगाना चाहिए।
छठी पारमिता- सत्यः प्रत्यक्ष अनुभूत सत्य। वर्तमान का अनुमान या काल्पनिक ज्ञान नहीं। मनुष्य को सदैव सत्य के साथ रहना चाहिए। अपनें द्वारा प्राप्त किए गए अनुभव को ही सत्य मानना।
सातवीं पारमिता- अधिष्ठानः पहले मन में दृढ़संकल्पता। कोई भी कार्य करनें से पहले मनुष्य को अपनें मन में दृढ़संकल्प लेना चाहिए कि मैं सफलता पाकर ही रहूगा। निर्वाण प्राप्त करनें की अवस्था में यह पारमिता बहुत सहायक सिद्ध होती है।
आठवीं पारमिता- मैत्रीः इसका अर्थ है शुद्ध और निःस्वार्थ प्रेम। जब मनुष्य का मन, चेतन तथा अवचेतन मन विकारों से रहित हो जाता है तब वह दूसरे के सुख के लिए कामना करता है। सच्चा प्रेम कभी किसी को दर्द नहीं देता है।
नौवीं पारमिता- उपेक्षाः मन व शरीर की प्रिय एवं अप्रिय संवेदनाओं के प्रति तटस्थ रहना। यह सदैव स्मरण रहे कि प्रत्येक वर्तमान क्षण का संवेदनात्मक प्रत्यक्ष अनुभव अनित्य है, और यह अस्त होनें के लिए ही उदय हुआ है। इसलिए मनुष्य को अपनें मन में उपेक्षा को भाव जाग्रत करना है। सांसारिक आर्कषण के प्रति आसक्त नहीं होना है।
दसवीं पारमिता-दानः सांसारिक मनुष्य का यह कर्तव्य है कि वह सम्यक् रूप से धन अर्जित करते हुए अपनें परिवार का भरण पोषण करे। यदि अर्जित धन पर जब उसके मन में लोभ पैदा हुआ तो वह अहंकार का भाव जगा लेता है। इसलिए गृहस्थ मनुष्य को अपनी कमाई का एक भाग दूसरों की भलाई में अवश्य खर्च करना चाहिए। इससे उसके मन में अहंकार का भाव जन्म ही नहीं लेता है। दान हमेशा शुद्ध मन से किया जाना चाहिए न कि किसी लोभ और लालच में।
। अपना प्रकाश स्वयं बनें।
लेखक परिचय – :
इं कुशलेश कुमार शाक्य,
चीफ इंजीनियर ;एडीशनल ,
धामपुर शुगर मिल्स लि0,
यूनिटः असमोली, जिला-सम्भल,
उत्तर प्रदेश, पिन कोड – 244304 – (INDIA)
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