राजनीति एवं विकास की किसी भी अवधारणा का जाति या मजहब से जोड़ा जाना किसी भी दृष्टिकोण से जायज नहीं है ,लेकिन बिहार में ऐसा नहीं है lलोकसभा चुनावों के परिदृश्य में ही अगर बात की जाए तो बिहार में अब भी जाति ही मुख्य चुनावी – मुद्दा बन कर उभर रही है । हरेक पार्टी एक खास जाति को साथ लेकर चलती है और ज्यादातर मामलों में उसी जाति को सहयोग देती नजर आती है l ऐसा यहाँ एक पार्टी नहीं बल्कि सभी पार्टियां करती हैं l हरेक पार्टी सार्वजनिक तौर से तो ये कहती नजर आती है कि “हम जातिवाद से परे हैं” , लेकिन बिहार की राजनीति को देखते हुए लगता है यहां बिना जाति के राजनीति हो ही नहीं सकती l लालू जहाँ यादवों के हितों को महत्व देते दिख रहे हैं और अपने राजपूत सांसदों की मदद से राजपूत वोटों पर कब्जा जमाने की फिराक में हैं , तो नीतीश कुर्मी-कोयरी को प्राथमिकता देते नजर आते हैं, रामविलास जी की प्राथमिकताएँ स्वाभाविक तौर पर स्वजाति पासवानों के लिए है, कुछ जातियाँ जैसे भूमिहार, कायस्थ, ब्राह्मण इत्यादि और वैश्य भारतीय जनता पार्टी की ‘प्रायोरिटी –लिस्ट’ में हैं l
बिहार के अधिकांश राजनेता (नीतीश विरोधी ) चुनावी –सभाओं में यह जरूर कहते नजर आ रहे हैं कि “नीतीश सरकार को विकास के लिए केंद्र से जो राशि मिली है वह खर्च नहीं हो पायी और बिहार में विकास मुख्यत: सड़क निर्माण का काम केंद्र सरकार के पैसे से हुआ है न कि राज्य सरकार के।“ लेकिन कोई भी राजनेता जातिगत समीकरणों से ऊपर उठकर विकास की बात को मुख्य चुनावी मुद्दा बनाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है l
चुनाव के इस माहौल में मेरी भिन्न पार्टियों के अनेक नेताओं से इस मुद्दे पर बातें हुई हैं और अधिकांश का यही मानना है कि “बिहार में जातिगत राजनीति अब भी हावी है और वोट व जीत का असली आधार यही है l” हालांकि चुनावी – मंच से खुलेआम जाति के नाम पर वोट देने की अपील तो बिहार के किसी कोने में नहीं की जा रही है लेकिन अपरोक्ष रूप से पूरी चुनावी –राजनीति इसी के इर्द-गिर्द घूम रही है l बिहार की राजनीति में जाति आधारित राजनीति का खेल मंडल कमीशन के दौरान लड़े गए चुनावों के दौरान सबसे सशक्त हुआ था और तब से लेकर आज तक राजनेताओं ने इसे निरंतर मजबूती प्रदान करने का ही काम किया l अन्य पिछड़ा वर्ग को मंडल कमीशन के तहत आरक्षण देने के फैसले के बाद से ही सूबे में जातीय ध्रुवीकरण की शुरुआत हुई थी l अब तो पिछड़ी जातियों को भी राजनीतिज्ञों ने ‘आरक्षण-भोगी’ एवं ‘गैर आरक्षण- भोगी’ भागों में बाँट दिया है ।
बिहार के किसी भी दिग्गज राजनेता ने जाति को चुनावी मुद्दा बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है । लगभग हर चुनावी मंच से राजनेता जात-पात से ऊपर उठने की बात तो करते हैं , लेकिन इस का त्याग कर अपना चुनावी ताना-बाना बुनने की पहल करता हुआ कोई भी नहीं दिखता l हरेक नेता अपने विरोधी को जात के नाम पर राजनीति करने वाला बता तो रहा है लेकिन खुद की जिम्मेवारी तय करने से संकोञ्च कर रहा है l सभी पार्टियों ने टिकट भी जातिगत समीकरणों को ध्यान रखकर बांटे हैं l
भाजपा विरोधी दलों के लोग यह कह रहे हैं कि भाजपा का रामविलास पासवान और उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी के साथ गठबंधन पूर्णतः जातिगत –समीकरणों पर आधारित है , तो दूसरी तरफ नीतीश विरोधी पार्टी के नेता नीतीश के द्वारा स्वजातियों को दिए गए प्रश्रय व जातिगत समीकरणों को ध्यान में रख कर गृह-जिले को दी गयी अतिशय- प्राथमिकताओं को चुनावी मुद्दा बनाने पर तुले हैं । वहीं लालू विरोधी उन पर अपने शासनकाल में यादवों को पूर्ण रूप से संरक्षण देने और उनके विकास में ही लगे रहने का आरोप लगा रहे हैं ।
मोदी (नरेंद्र मोदी ) विरोधी कई वरिष्ठ नेताओं का यह भी मानना है कि “इस बार बिहार में कोई भी ऐसा मुद्दा नहीं है जो एक लहर पैदा कर सके। हर नेता अलग-अलग तरीकों से वोट बैंक को रिझाने में लगे हैं। लेकिन एक बात की समानता हर पार्टी के पर्दे के पीछे के राजनीति में है और वह है जाति का मुद्दा l”
बिहार के संदर्भ में हरेक राजनीतिक दल या महत्वपूर्ण राजनेता अपने राजनीतिक हितों को पोषित करने के लिए जातिगत खेमों पर ही आश्रित दिखता हैl ऐसे में समाज का सबसे अहम वर्ग यानी आम – जनता सुविधाओं से वंचित नजर आता है l वोट- बैंक की खातिर हर क्षेत्र से टिकट देते समय हरेक पार्टी जाति का अहम ध्यान रखती है l
लेकिन इन सब से इतर पिछले आठ सालों से बिहार की बहुप्रचारित सुशासनी -कमान संभाले और चुनावी मुहिम में अपनी एक अलग पहचान बनाने की कवायद में जूटे नीतीश कुमार सवालों के घेरे में हैं l जो नीतीश कुमार आज वोट हासिल करने की ललक में “जाति – बंधन “ तोड़ने वाले राजनेता के रूप में अपनी एक पहचान बनाने को ललायित दिख रहे हैं और ऐन चुनावों के वक्त अपनी एक अलग पहचान बनाने की फिराक में इस यथार्थ को कि “बिहार की राजनीति जाति के इर्द- गिर्द ही घूमती है “ झुठलाने की कोशिश में लगे हैं, उनके बारे में सबसे बड़ी सच्चाई तो यही है कि वे खुद मंडल कमीशन के ‘पौरुष’ से ही उत्पन्न हुए हैं l क्या बिहार की जनता इस सच को नहीं जानती कि १९९० के दशक में वे किसके साथ थे और उनकी राजनीति का मुख्य आधार क्या था ? क्या श्री कुमार इस बात से इन्कार करने का साहस कर सकते हैं कि उन्होंने मंडल कमीशन लागू होने के बाद‘आरक्षण पिछड़ों का हक’ की बात नहीं कही थी ? क्या जिस मंच से लालू ने क्षुद्र – राजनीति के तहत “भूरा बाल साफ करो “ का नारा बुलंद किया था उस मंच पर श्री कुमार आसीन नहीं थे ? लालू ने जाति आधारित जिस समय सामाजिक -विखंडन की राजनीति को हवा दी, क्या उस समय श्री कुमार लालू के सबसे अहम रणनीतिकार नहीं थे ? श्री कुमार के द्वारा वोट –बैंक की खातिर ‘पसमांदा’ व ‘महादलित’ जैसे समीकरणों की उत्पति क्या जाति –आधारित राजनीति का हिस्सा नहीं है ? क्या अपने गृह-जिले व राजगीर पर श्री कुमार की ‘विशेष – कृपा’ के पीछे जाति की राजनीति की कोई भूमिका नहीं है ? बिहार के पुलिस व प्रशासनिक महकमों में अहम पदों पर श्री कुमार के स्वजातियों की तैनाती के पीछे का मकसद क्या है ? श्री कुमार के शासन-काल में ‘संगठित ठेकेदारी राज “ में उनके स्वजातियों के दबदबे की सच्चाई क्या है ? क्या श्री कुमार आगामी लोकसभा –चुनावों के प्रत्याशियों के चयन में जातिगत –समीकरणों को नजरंदाज करने का साहस दिखा पाएँगे ? क्या जाति आधारित राजनैतिक- विचारधारा की जड़ों को उखाड़ने फेंकने के अपने दावों में नीतीश फेल नहीं हुए हैं ? ‘न्याय के साथ विकास’ की बात करनेवाले नीतीश जी के द्वारा कुर्मी और कोयरी के नाम पर वोट मांगने की रणनीति बनाना क्या उनके असली चाल, चरित्र और चेहरे को उजागर नहीं करता है ?
बिहार में अधिकतर गाँव हैं और उन की स्थिति बेहद चिंताजनक है l गाँवों का विकास न लालू राज में हुआ था न ही आज नीतीश जी के बहुप्रचारित व महिमा-मंडित सुशासनी राज में l आज भी गाँवों में लोग शिक्षा, स्वास्थ्य, सिंचाई और रोजगार जैसी बुनियादी सुविधाओं के लिए सरकार की तरफ आँख लगाए हुए हैं l बदलाव के लिए दिए गए मतों से सत्ता में आए नीतीश जी के आठ सालों से ऊपर के कार्य-काल में भी बिहार में विकास के कार्यों का निष्पादन जातिगत समीकरणों को ध्यान में रखकर किया जाता रहा l बिहार का हरेक राजनीतिक तबका यह बात तो कहता है कि अगर वह सत्ता में आएगा तो राज्य से पलायन जरूर खत्म या कम कर देगा लेकिन सालों से यहाँ की जनता जिस तरह अपने राज्य को छोड़ कर जा रही है , उससे यह अनवरत जारी प्रकिया बिना किसी सार्थक पहल के खत्म हो जाए इसकी उम्मीद कम ही है l
बिहार की राजनीति में लगभग हरेक जाति के अपने-अपने बाहुबली नेता हैं और ऐसे बाहुबली नेता सभी राजनीतिक पार्टियों की जरूरत हैं l इसी तर्ज पर इन बाहुबली नेताओं को चुनावों में राजनीतिक दलों के द्वारा जातिगत समीकरणों को ध्यान में रख कर प्रत्याशी भी बनाया जाता हैl मामला साफ है कमोबेश सभी राजनीतिक पार्टियाँ बिहार में बाहुबलियों का सहारा लेती हैं क्योंकि जातिगत बाहुबल और पैसे की ताकत राजनीति की बिसात में अहम भूमिका जो निभाती है l
अब बात की जाए चुनावी – रेस में सबसे आगे दिख रही पार्टी भाजपा (भारतीय जनता पार्टी ) की l जब देशभर में भाजपा के नये नायक नरेंद्र मोदी को राष्ट्रवाद और विकास के सबसे सुदृढ़ प्रतीक के तौर पर प्रोजेक्ट किया जा रहा है, ठीक उसी वक्त बिहार में उन्हें ‘पिछड़ा’ कह कर प्रचारित किया जा रहा है l २०१४ के लोकसभा चुनाव के लिए भाजपा बिहार में जिस रणनीति पर काम कर रही है, उसमें मोदी की जाति को प्रचारित किया जाना मुझे उसे (भाजपा को ) भी बाकियों (अन्य पार्टियों ) की श्रेणी में ही रखने को मजबूर करती है l अगर सूत्रों की मानें तो इस काम के लिए भाजपा ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक – संघ की प्रचार- मशीनरी का भी भरपूर फायदा उठाने का फैसला लिया है l इस रणनीति के तहत राज्य में पिछड़ी जातियों के बीच यह बात फैलायी जा रही है कि मोदी तेली – जाति से आते हैं, जो पिछड़ी जाति में शुमार होता है l रणनीति यह भी है कि बिहार में राम- मंदिर आंदोलन जैसा पुराना दौर लौटाने के लिए पिछड़ों को लामबंद किया जाए l मोदी की जाति को प्रचारित कर पिछड़ी जातियों के बीच यह संदेश दिया जाए कि जब एक पिछड़े नेता के प्रधानमंत्री बनने का वक्त आया तो उसी वर्ग के नीतीश कुमार ने उन्हें धोखा दिया और अब विरोध कर रहे हैं l इस रणनीति के तहत पिछड़े वोट- बैंक में सेंध लगाने की योजना है और इसी वजह से पार्टी ने ‘पिछड़ा वर्ग-प्रकोष्ठ’ को मोर्चा का दर्जा देकर उसे ‘सामाजिक-मोर्चा’ का नाम दिया है l प्रचारित किया जा रहा है कि यह मोर्चा आरक्षण के भीतर अति-पिछड़ों को आरक्षण दिलाने के लिए संघर्ष करेगा l इसके अलावा भाजपा ने हर वर्ष २७ सितंबर को ‘सामाजिक – न्याय दिवस’ मनाने का ऐलान भी किया है l
हालांकि मोदी को पिछड़े वर्ग का नेता प्रचारित करनेवाली भाजपा के रणनीतिकारों के सामने सबसे बड़ी दिक्कत नीतीश कुमार और लालू प्रसाद से मिलनेवाली चुनौती है l इनके ‘वोट-बैंक’ में भी पिछड़ी जाति के वोटर हैं l यह सच है कि बिहार के जातीय- समीकरण में अन्य -पिछड़ी जातियाँ यानी ओबीसी और अति -पिछड़ी जातियां यानी एमबीसी की अहम भूमिका है l राज्य में तकरीबन ३३ फीसदी ओबीसी हैं, तो एमबीसी भी तकरीबन २२ फीसदी हैं l एमबीसी में पिछड़ी जातियों के ११ फीसदी कोइरी व कुर्मी को जोड़ दिया जाये, तो ३३ फीसदी का मजबूत गंठजोड़ बनता हैl नीतीश कुमार इसी पर अपना कब्जा जमाना चाहते हैं क्योंकि उन्हें मालूम है कि १३ फीसदी यादव मतदाता उनके साथ नहीं आएंगे l बिहार की मौजूदा विधानसभा में भाजपा के ९१ विधायकों में से ४१ अति पिछड़े और महादलित हैं l भाजपा ये भली –भाँति जानती है कि उनके अति पिछड़े और महादलित विधायक नीतीश कुमार के साथ रहने पर चुनाव जीते थे l ऐसे में अति पिछड़े और महादलित के वोट हासिल करने की गंभीर चुनौती भाजपा के सामने है l भाजपा यह मान कर चल रही है कारोबारी वर्ग से उनको समर्थन मिलता रहा है और आगे भी मिलेगा l बिहार में सात फीसदी बनिया हैं, जिनके वोट भाजपा को पारंपरिक रूप से मिलते रहे हैं l जातिगत आंकड़ों के इस उलझे हुए राजनीतिक गणित में तकरीबन पौने पांच फीसदी भूमिहार और पौने छह फीसदी ब्राह्मण अहम हो गए हैं l इसलिए आज हर कोई ‘ब्रह्मर्षि –समाज’ की बात कर रहा है l कभी (नीतीश की शह पर ही सही,ऐसा लालू प्रसाद आज कल संदेश देते दिख रहे हैं ) ‘भूरा बाल साफ करने’ का नारा देनेवाले लालू प्रसाद भी अब भूमिहारों के ‘मान-मुनव्वल’ में जुटे हैं lउधर, नीतीश कुमार शायद ये जान चुके हैं कि भूमिहार अब उनके साथ नहीं हैं , बावजूद इसके उन्होंने प्रतीकात्मक तौर पर सूबे में डी.जी.पी. और मुख्य -सचिव भूमिहार को ही बनाया हुआ है l उधर भाजपा यह मान कर उत्साहित है कि भूमिहार उनके साथ हैं l राजनीतिक विश्लेषकों और नेताओं को इस बात का ज्ञान व भान है कि भूमिहारों की संख्या भले ही कम हो, लेकिन वे कई सीटों के नतीजों को प्रभावित करते हैं l ब्राह्मण पारंपरिक तौर पर कांग्रेस के साथ रहे हैं, लेकिन सूबे में कांग्रेस का कोई अस्तित्व ही नहीं बचा तो फिर उनके पास दूसरी पार्टी का रुख करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है और ये भारतीय जनता पार्टी के साथ खड़े दिखते हैं l
इन सबके बीच भाजपा को समझना होगा कि समाज के लोगों का दिल जीतने और उन पर राज करने के लिए उस क्षेत्र विशेष की सामाजिक संरचना को जानना-समझना बेहद आवश्यक है ना कि तात्कालिक चुनावी फायदे के लिए जाति की धूरी पर की गयी राजनीति से चुनावों में महज चंद वोटों की बढ़त हासिल कर लेना l इतिहास गवाह है कि किस तरह से अंग्रेजों ने भारत की सामाजिक संरचना का बेहतरीन आकलन और इस्तेमाल कर अपनी सत्ता लंबे समय तक कायम रखी थी l
वैसे तो देश के तकरीबन हर प्रांत में चुनाव के वक्त उम्मीदवारों के चयन में जाति को ध्यान में रखा जाता है, पर बिहार में कई सीटों की उम्मीदवारी सिर्फ और सिर्फ जाति के आधार पर तय होती है l उम्मीदवारों के चयन का आधार सिद्धांत या सामाजिक क्रियाकलाप पर ना कर के सिर्फ और सिर्फ जाति के आधार पर करना बिहार की राजनीति का सबसे दुःखद पहलू है l यह कहने में मुझे कोई झिझक नहीं है कि आजादी के ६७ सालों के बाद विकास के तमाम दावों के बावजूद भी बिहार में हालात बदले नहीं हैं और चुनाव में जाति ही मुख्य फैक्टर है l इसी ध्रुवीकरण और पिछड़ों की अस्मिता के नाम पर लालू प्रसाद ने बिहार पर डेढ़ दशक तक राज किया और अगर बिना लाग-लपेट कहूँ तो बिहार का विनाश ही कर दिया l लेकिन लालू – राज से त्रस्त लोगों ने बदलाव के नाम पर नीतीश कुमार को नायक बनाया, पर नीतीश कुमार के लिए भी जातिगत वोट – बैंक की राजनीति से ऊपर उठना मुमकिन नहीं हुआ l उन्होंने भी “महादलित और पसमांदा मुसलमान” जैसे राजनीति से प्रेरित समीकरणों की वकालत तक ही अपने आप को सीमित रखा l
भाजपा के रणनीतिकारों की अगर मानें तो जातिगत समीकरणों के बीच मोदी की ‘राष्ट्रवादी व हिंदू – हृदय सम्राट’ और ‘विकास – पुरुष’ की छवि को बिहार में पेश तो किया जाएगा, लेकिन उनकी जाति को भी इससे जोड़ा जाएगा l दरअसल भाजपा यह मान कर चल रही है कि मोदी के खिलाफ मुस्लिम – वोटों का ध्रुवीकरण संभव है, लिहाजा मुस्लिम – वोटरों के बरक्स पिछड़ों का एक नया वोट बैंक तैयार किया जाए , पर विराट –भारत की बात करनेवाली पार्टी द्वारा तेली और पिछड़ों के नाम पर वोट मांगने की रणनीति बनाना हतप्रभ तो जरूर करता है l
बिहार की आज की ज़रूरत मध्यम, लघु और सीमांत किसानों, खेतीहर मज़दूरों, ग्रामीण और शहरी दस्तकारों, मध्यम, लघु और सीमांत-उद्यमियों,असंगठित और संगठित क्षेत्र के मज़दूरों, लघु,मध्यम और सीमांत व्यवसायियों के हितों एवं जातिगत भेद भुलाकर गरीबों -पिछड़ों के राजनीतिक और सामाजिक हक़ हासिल करने के लिए काम करना है l
नीतीश कुमार के सत्ता –रूढ होने के बाद ऐसा लगा था कि बदलाव की शुरुआत होगी और बिहार में नई राजनीति ‘समग्र – विकास’ की राजनीति चलेगी और जनतांत्रिक शक्तियां मज़बूत होंगी, सभी जातियों के गरीबों का एका बनेगा, सभी जातियों के गरीबों को उनका हक़ भी मिलेगा, जातिवाद की राजनीति का अंत होगा और राजनीति और समाज-नीति सभी गरीबों के हक़ में चलायी जाएंगी । मगर ऐसा नहीं हो पाया बल्कि फर्क सिर्फ इतना ही हुआ कि राजनीति पर कतिपय मध्यवर्ती जातियों का कब्ज़ा हुआ । वस्तुतः समग्र विकास की राजनीति स्थापित ही नहीं हो पायी ।
बिहार के पिछले आठ-साढ़े आठ सालों की राजनीति पर ही नज़र डालें तो ऐसा ही प्रतीत होता है कि अभी तक की राजनीति में जातिगत –समीकरणों के हितार्थ बिहार की जनता को मोहरे के तौर पर ही इस्तेमाल किया जा रहा है और जातिगत भावनाओं से उठने की केवल दिखाऊ बातें की जा रही हैं, मगर अंतर्वस्तु में राजनीति में आज की तारीख तक उनको (बिहार की जनता) उनका वो हक़ नहीं मिला है, जिसके वो हक़दार हैं ।
मेरे विचार में जाति आधारित राजनीति का उद्देश्य सत्ता में बने रहने और अपना राजनैतिक अस्तित्व बरकार रखने तक ही सीमित है l जिसका विकास और जन-कल्याण से कोई सरोकार नहीं है l लेकिन बिहार के राजनीतिक तबके को आज भी अपने हितों की पूर्ति हेतू एक ही कारगर उपाय दिखता है‘जाति आधारित राजनीति “l जाति – रहित राजनीति का मुद्दा बिहार के किसी भी राजनीतिक दल के वास्तविक एजेंडे में नहीं है । जातिगत – समीकरणों का उन्मूलन आज समय की मांग है और इस सिद्धांत व नीति को सामाजिक-राजनीतिक जीवन में लागू किए बिना राजनीतिक – शुचिता की बातें करना केवल और केवल ‘ढपोरशंख ‘ है l इस के कुप्रभाव से मुक्ति के लिए ईमानदार और सार्थक अभियान चलाने की ज़रूरत है ताकि एक आम मतदाता अपने मतों का महत्व समझ सके और जाति के नाम पर इसकी बिक्री से परहेज करे । चुनावों को जाति के प्रभाव से मुक्त कराना ही सर्वहितकारी , स्वच्छ और आदर्श लोकतान्त्रिक – व्यवस्था की स्थापना की पहली शर्त है l
बिहार में १९७७ के बाद से समाजवादी विचारधारा पर आधारित राजनीति का ढ़ोल तो पीटा जा रहा है लेकिन इस बात की अनदेखी की जा रही है कि समाजवाद का मूल –सिद्धान्त जातीय आधार पर किसी भी तरह के भेद-भाव के खिलाफ है l बेबाकी से कहूँ तो विगत कुछ दशकों से बिहार में समाजवाद के जिस संस्करण के नाम पर राजनीति की जा रही है वो वस्तुतः समाजवाद के सिध्दांतो का मज़ाक ही है l
बिहार की जनता ने अनेकों अवसरों पर जातिगत समीकरणों से ऊपर उठ कर लोकतान्त्रिक –व्यवस्था को सुदृढ़ करने एवं बदलाव हेतू अपना मत दिया है l कर्पूरी ठाकुर , लालू यादव एवं नीतीश की सरकारों का गठन इसके उदाहरण हैं , लेकिन सतारूढ़ होने के बाद आगे चलकर इन्हीं राजनीतिज्ञों ने स्वहित की पूर्ति हेतू जातिगत राजनीति का कुचक्र गढ़ कर जनता की भावनाओं का निरादर ही किया है l आज बिहार का राजनीतिक समुदाय इस सच्चाई से जान- -बूझ कर अपनी आँखें मूँद रहा है कि जातिगत राजनीति के पोषण व प्रश्रय से अंतत: लोकतंत्र ही कमजोर होता है lइस संदर्भ में आज से करीब डेढ़ साल पहले नवादा जिले के मेरे भ्रमण के दौरान एक प्रबुद्ध – ग्रामीण के द्वारा कही गई बात “बिहार में जाति के वेंटिलेटर के सहारे ही जीवित है राजनीति” मुझे बिहार के संदर्भ में सबसे सटीक लगती है
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आलोक कुमार ,
(वरिष्ठ पत्रकार व विश्लेषक )
बिहार की राजधानी पटना के मूल निवासी। पटना विश्वविद्यालय से स्नातक (राजनीति-शास्त्र), दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नाकोत्तर (लोक-प्रशासन)l लेखन व पत्रकारिता में बीस वर्षों से अधिक का अनुभव। प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सायबर मीडिया का वृहत अनुभव। वर्तमान में विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के परामर्शदात्री व संपादकीय मंडल से सम्बद्ध l
*Disclaimer: The views expressed by the author in this feature are entirely his own and do not necessarily reflect the views of INVC.
finest analysis by shri alok ji related to cast politics in bihar and development issues of state.but i think development should be the main agenda in the pre and post election,it seems mr.modi is pursuing the development agenda in his election campaign..