प्रभात झा**,,
प्रति वर्ष गणतंत्र दिवस पर सारा देश नारा लगाता है- ‘गणतंत्र अमर रहे’ पर उसकी अमरता कैसे बनी रहे, इस पर 63 वर्ष बाद भी उतना ध्यान नहीं दिया जा रहा जितना देना चाहिए। पहले गणतंत्र दिवस पर जो सवाल उपजे थे, वे सभी सवाल आज विकराल रूप लिए हुए न केवल मौजूद हैं बल्कि चेतावनी दे रहे हैं कि नहीं संभाला गया तो कहीं हम भारत से अलग न हो जाएं। भारतीय गणतंत्र के 6 दशक बीत जाने के बावजूद न तो हम बाह्य रूप से रक्षित हैं और न हीं आंतरिक रूप से सुरक्षित। जब देश की राजधानी को ही- ‘‘रेप कैपिटल’’ के रूप में जाना जा रहा हो तो दूरदराज क्षेत्रों में लोग कितने सुरक्षित होंगे, इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। हम मजबूती का नारा लगा रहे हैं और गणतंत्र अंदर से हिलने लगा है। हम विश्व के सबसे बड़े गणतंत्र हैं पर सबसे कमजोर गणतांत्रिक राष्ट्र के रूप में हमारी गिनती होती है। हर बार हारने के बाद भी पाकिस्तान और बंगलादेश हमारे लिए सिरदर्द हैं और चीन से तो हम जवाबतलब भी नहीं कर पाते। उल्टे कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि सीमाओं पर उसके अतिक्रमण को हम मौन रूप से स्वीकार ही कर रहे हैं।
एक सर्वेक्षण के अनुसार 25 करोड़ युवाओं में से 32 प्रतिशत युवाओं ने कहा है कि यद्यपि भारत के विकास दर में वृद्धि हुई है लेकिन उनका जीवन सुखमय नहीं हुआ है। भारत में ही आय विषमता का दौर तेजी से बढ़ रहा है जो हम सबके लिए चिंता का विषय है। इस समय भारत की अर्थव्यवस्था संकट के दौर से गुजर रही है। भारत में रहने वाले 1 अरब 25 करोड़ लोगों के लिए यह गंभीर संकट का दौर है।
एनएसएसओ की हालिया रिपोर्ट के अनुसार 25 करोड़ 30 लाख लोगों के पास रोजगार नहीं है। अर्थव्यवस्था मंद है। देश के विकास की दर दिनोंदिन कम होती जा रही है। सारी दुनिया कह रही है कि यह सदी एशिया की सदी होगी। लेकिन क्या हम ऐसी प्रगति से एशिया में अपनी भूमिका निभा पाएंगे। कहीं न कहीं हम सभी आशंकित हैं।
अंतर्राष्ट्रीय सहायता एजेंसी ‘सेव द चिल्ड्रेन’ ने कहा है कि भोजन की कमी के कारण भारत में बच्चों की आधी आबादी का पूरी तरह से शारीरिक और मानसिक विकास नहीं हो पा रहा है। ये तिरसठसाला कैसा गणतंत्र है? इस सर्वेक्षण में शामिल 24 प्रतिशत लोगों के अनुसार उनके यहां 16 साल के कम उम्र के बच्चों को अक्सर भूखे रहना पड़ता था। 29 प्रतिशत लेागों ने उनके बच्चों को पर्याप्त भोजन नहीं मिलने की शिकायत की है। 27 प्रतिशत लोग हर हफ्ते अपने बच्चों के लिए मांस, दूध और सब्जी नहीं खरीद सकते। 66 प्रतिशत लोगों ने माना कि पिछले पूरे साल खाने की बढ़ती कीमतों से वे चिंतित रहे हैं। 29 प्रतिशत लोगों ने परिवार के लिए खरीदे जाने वाले राशन में कटौती करनी शुरु दी है। 17 प्रतिशत लोगों ने परिवार के लिए खाना जुटाने के लिए अपने बच्चों को स्कूल छुडवाकर उन्हें काम पर लगा दिया है। तिरसठसाला गणतंत्र में आने वाली पीढ़ी की बदहाली का यह ताजा रपट है। हम कैसे भारत का निर्माण करेंगे। आने वाला भारत मजबूत होगा या मजबूर होगा। भारत के नौनिहालों की स्थिति अगर यही रही तो हम एक मजबूत राष्ट्र की कल्पना कैसे कर पायेंगे? इस स्थिति से उबरने के लिए ठोस और कारगर कदम की महती आवश्यकता है।
आजादी के बाद केन्द्र में चार – साढ़े चार दशक से भी ज्यादा समय तक कांग्रेस का राज रहा और अब भी कांग्रेस-नीत यूपीए के नाम पर वही शासन में है। राज्यों की सरकारों में भी वर्षों तक कांग्रेस का ही बोलबाला रहा। आम आदमी के साथ चलने का वादा करने वाली कांग्रेस आम आदमी को ही पीसती रही। इंदिराजी ने गरीबी हटाओ का नारा बीसवीं सदी के आठवें दशक में ही दिया था और इसी लुभावने नारे के चलते कांग्रेस सत्ता पर काबिज हुयी। पर चार दशक बीत गए। फिर भी गरीबी, भुखमरी का विकटतम जाल भारत में पसरा ही हुआ है और पसर ही रहा है। विश्व के 231 राष्ट्रों और द्वीपों में से हम अभी भी कमजोर राष्ट्र के तौर पर 153वें नम्बर पर आते हैं। न हमारी नीयत साफ है और न ही नियति हमारे साथ है। हम एक दूसरे को ठगने में लगे हैं। विश्व का सबसे अमीर व्यक्ति भारत का है। पर भारत विश्व का सबसे गरीब देश कहलाने की श्रेणी में है। यह कैसी विडम्बना है? हम भारतय विदेशों की सरजमीं पर अच्छे चिकित्सक और अच्छे अभियंता के रूप में जाने जाते हैं पर भारत में अभी भी लाखों चिकित्सक और अभियंता डिग्री लिए हुए नौकरी की तलाश में नेताओं और अधिकारियों के दरवाजे पर भटकते नजर आते हैं। ऐसा नहीं है कि हमने प्रगति नहीं की है पर तराजू के एक पलड़े पर प्रगति की बाट रखे और दूसरी तरफ अवनति की तो देखने में आता है आज भी अवनति का पलड़ा भारी है। नैतिकता का पाठ विश्व को पढ़ाने वाला भारत, रामायण और गीता के संदेश को विश्व में देनेवाला भारत, कृष्ण के पांचजन्य से गुंजायमान होने वाला भारत, राम की मर्यादा से सुशोभित होने वाला भारत, सीता की अग्निपरीक्षा से गुजरनेवाला भारत, लवकुश की साहस पर गर्व करने वाला भारत, भगवान हनुमान की सेवा-सुरक्षा पर नाज करने वाला भारत, शबरी के बेर की मिठास से भगवान राम को प्रसन्न करने वाला भारत, पांच पांडवों की एकजुटता से कौरव वंश का नाश करने में समर्थ रहने वाला भारत विश्व में अमरदीप की तरह अमर ज्योति बिखेरता रहा पर आज वही भारत अपने घर की समस्याओं से जूझ रहा है। जाति, धर्म, पंथ, भेद, लिंग, भेष-भूषा आदि विषयों को लेकर इस पर आनेकता में एकता के दर्शन नहीं कर पा रहे। हमारी अखंडता और अक्षुण्णता पर प्रश्नचिन्ह लगे हुए हैं अतः हमारे लिए यह अवसर सोचने समझने के साथ साथ करने का भी है।
सन् 2012 के अतीत पर हम नजर डालें तो लगता है कांग्रेसनीत यूपीए ने सत्ता नहीं चलाई बल्कि भारतीय लोकतंत्र को ताश के पत्तों की तरह बिखेर दिया। 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन में 1.76 लाख करोड़ का घोटाला, राष्ट्रमंडल खेल घोटाला, आदर्श सोसायटी घोटाला, कोयला घोटाला सहित एक नहीं अनेक घोटाले उजागर हुए और हम भारतवासियों पर नित्य नये घोटालों की कालिख पुत रही है। देश में घोटालों का ऐसा सिलसिला चला कि हम 176 देशों में 94वें स्थान पर भ्रष्ट देशों की सूची में आ गये। अमेरिका की अनुसंधान एवं सलाहकार संस्था के अनुसार 2001-2010 के बीच 123 अरब डॉलर काला धन दिवेश भेजा गया है। इसमें भारत 8वें स्थान पर है। यह रकम इतनी बड़ी है कि इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि बीते एक दशक के दौरान भारत में शिक्षा, स्वास्थ्य और आधारभूत ढांचे के निर्माण पर इससे कम खर्च हुआ है। भ्रष्ट व्यवस्था का आलम यह है भारतीय अर्थव्यवस्था को केवल 2012 में ही अवैध वित्तीय लेन-देन के चलते करीब 1.6 अरब डॉलर (85 अरब रुपये) का नुकसान उठाना पड़ा है। पिछले कुछ महीने पहले भारतीय वाणिज्य उद्योग परिषद (फिक्की) ने कहा था कि उसके आंकड़ों के मुताबिक 45 लाख करोड़ का काला धन विदेशी बैंकों में जमा है जो कि भारत के सकल घरेलू उत्पाद का करीब करीब 50 प्रतिशत का हिस्सा है और भारत के वित्तीय घाटा का नौ गुना है।
हमारे लिए दुखद प्रसंग यह है कि केन्द्र सरकार स्वयं ही भ्रष्ट लोगों को बचाने में लगी हुई है और सुप्रीम कोर्ट के दबाव के बाद भी कालेधन जमा करने वालों के नाम छुपा रही है, तो इस देश का कैसे कल्याण हो सकता है? हम कैसे शक्तिशाली राष्ट्र की कल्पना कर सकते हैं? पूरे भारत पर जब नजर दौड़ाते हैं तो पूर्वोत्तर की दशा पर सहसा रोना आता है। पूर्वोत्तर के लोगों के लिए आचार्य बिनोवा भावे ने कहा था, ‘‘अंग्रेजों ने जो स्वतंत्रता दी वह उनके पॉकेट में ही रही,’’ लगता है आचार्य ने जो बात कही थी वह गणतंत्र बनने के 6 दशक बाद भी पूर्णतया सही लगती है। सही मायनों में पूर्वोत्तर आज भी देश ही मुख्यधारा से नहीं जुड़ पाया।
सच तो यह है कि अलगाववादी ताकतों ने असम, मणिपुर, नगालैंड, त्रिपुरा, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, मिजोरम व सिक्किम में विकास की हवा पहुंचने नहीं दे रही है। पहाड़ी राज्यों में ट्रेन रूट व सड़कों का अभाव विकास को भी आगे नहीं बढ़ने दे रही। समूचे पूर्वोत्तर के बाशिंदे सड़क परिवहन पर ही निर्भर हैं। पूर्वोत्तर न सिर्फ अलगावादी समस्या से ग्रस्त है बल्कि इन राज्यों में सीमा विवाद भी उफान पर है।
राष्ट्रीय एकता और अखंडता अभी भी अधूरी है। असम में हिंदीभाषाओं पर हमले होते रहते हैं। बंगलादेश से घुसपैठ निरंतर जारी है। असम के कई सीमावर्ती जिलों में भयावह जनसांख्यिकी परिवर्तन आ चुका है और वहां भारत को तोड़ने की साजिश रची जा रही है। जम्मू-कश्मीर में पाक प्रायोजित आतंकवाद अपना तांडव दिखा रहा है वहीं पूर्वोत्तर में चरमपंथी देश की एकता व अखंडता को तोड़ने में लगे हैं। उधर, चीन भी अरुणाचल पर अपनी गिद्धदृष्टि लगाये हुए हैं। अरुणाचलवासियों और जम्मू-कश्मीर के लोगों को नत्थीवीजा दे रहा है। चीन अपनी इच्छानुसार सीमा पर अतिक्रमण करता है और भारत सरकार भयग्रस्त होकर चुप्पी साधे रहती है।
ऐसे में कुछ यक्ष प्रश्न आज भी अनुत्तरित हैं क्या हम उन सपनों को पाने में समर्थ रहे हैं जिन्हें महान स्वतंत्रता सेनानियों ने स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान देखा था? क्या हम गणतंत्र का वास्तविक स्वरूप पाने में सफल रहे हैं? क्या हम भुखमरी-गरीबी जैसी विकट समस्या से निजात पाने में सफल रहे हैं? क्या हमने भ्रष्टाचार के विषवेल को काटने या उसे कम करने में सफलता प्राप्त की है? क्या लोगों को वास्तविक आजादी मिली या हम भयमुक्त समाज बनाने में सफल रहे हैं। क्या हम बल, सर्वभौम व शक्तिशाली राष्ट्र बनाने में समर्थ रहे। अगर यह सब करने में असफल रहे हैं तो हमें तिरसठवेंसाला गणतंत्र पर यह शपथ लेना होगा कि राष्ट्रवाद के इस यज्ञ में हमें सभी वादों की आहुति देनी होगी और अपने-अपने दलगत विचारों को एक तरफ रखते हुए इस यज्ञ में एक साथ कूदना होगा। राजनीति को राष्ट्रनीति बनानी होगी। तभी जाकर हर भारतवासी का सपना पूरा होगा।
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प्रभात झा**,
लेखक राज्यसभा सांसद हैं एवं मध्य प्रदेश भाजपाध्यक्ष रहे हैं
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