जब तुम्हेँ हो मालूम…
कि तुम्हारा वजूद छाती पर उभरी दो गोलाईयोँ..
… और जांघोँ के बीच धँसे माँस के टुकड़े
के अलावा कुछ भी नहीँ…!तुम गोश्त हो.. जिसे रोज़ बिस्तर की सेज की तश्तरी मेँ
सजाया जाता है…
ढ़ककर एक उम्र तक बचाया जाता है…
किसी लज़ीज खाने की तरह…!
तारीफ़ेँ तुम्हारी आँखोँ की, होँठोँ की, गालोँ की..
देह के रंग की, लम्बे बालोँ की
ज़िस्म के हर हिस्से की..
क्योँकि तुम सिर्फ़ ज़िस्म हो…!
तुम्हारा व्यक्तित्व..
कहाँ मायने रखता है इस ज़िस्म के आगे..!
‘तुम सिर्फ़ और सिर्फ़ एक ज़िस्म हो..’
ये मान बैठी हो तुम भी..
सोँ सोते-जागते, उठते-बैठते,चलते-फिरते
दुपट्टा संभालने की कोशिश मेँ मरी जा रही हो..
जीँस टाप पहने भले ही झुठलाना चाहो इस सच को
पर वो क्या है?
जो
मेरी वो कविता.
जो आजकल अश्लीलता के आरोपोँ का सामना कर रही है..
सच को ढाके तोपे रखने का टेलरपना आपको ही मुबारक हो..
हम तो बड़े मुँहफट है साहेब
औरत होना…!
कितना मुश्किल है- औरत होना,
जब तुम्हेँ हो मालूम…
कि तुम्हारा वजूद छाती पर उभरी दो गोलाईयोँ..
… और जांघोँ के बीच धँसे माँस के टुकड़े
के अलावा कुछ भी नहीँ…!
तुम गोश्त हो.. जिसे रोज़ बिस्तर की सेज की तश्तरी मेँ
सजाया जाता है…
ढ़ककर एक उम्र तक बचाया जाता है…
किसी लज़ीज खाने की तरह…!
तारीफ़ेँ तुम्हारी आँखोँ की, होँठोँ की, गालोँ की..
देह के रंग की, लम्बे बालोँ की
ज़िस्म के हर हिस्से की..
क्योँकि तुम सिर्फ़ ज़िस्म हो…!
तुम्हारा व्यक्तित्व..
कहाँ मायने रखता है इस ज़िस्म के आगे..!
‘तुम सिर्फ़ और सिर्फ़ एक ज़िस्म हो..’
ये मान बैठी हो तुम भी..
सोँ सोते-जागते, उठते-बैठते,चलते-फिरते
दुपट्टा संभालने की कोशिश मेँ मरी जा रही हो..
जीँस टाप पहने भले ही झुठलाना चाहो इस सच को
पर वो क्या है?
जो तुम्हेँ टाप हमेशा नीचे खीँचते रहने को मजबूर करता है?
ज़िस्म का छूना, टकराना, चिपकना इत्तेफाकन भी…
तुम्हेँ असहज कर देता है…!
सोचो.. जानो.. समझो इनकी साज़िश, शातिर चालोँ को..
जिस ज़िस्म के साथ हुई तुम आज़ाद पैदा..
उसी ज़िस्म की कैद मेँ तुम्हेँ बंदी बनाये रखा है…!
इस ज़िस्मानी एहसास को तोड़ निकलोँ बाहर..
लड़ोँ अपने व्यक्तित्व के लिये..
बताओँ कि तुम बहुत कुछ हो..
इस ज़िस्म के सिवा…!
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