कवि हैं …संजय सरोज “राज”
– कविताएँ –
1. दिल की लगी……………….
दिल की लगी आज बुझाने चला हूँ
तडपता है दिल ये तेरी याद बनकर i
रोता है मजबूर औ बेकार बनकर ii
वही राज में आज बताने चला हूँ
दिल की लगी आज बुझाने चला हूँ
मालूम न था की ऐसा भी होगा i
मेरा दिल मुझसे जुदा भी तो होगा ii
नफ़रत की लौ मै जलाने चला हूँ
दिल की लगी आज बुझाने चला हूँ
होती है क्यों प्यार में रुसवाईi
होने के पहले ये मौत क्यों न आई ii
मोहब्बत की अर्थी सजाने चला हूँ
दिल की लगी आज बुझाने चला हूँ
ये दुनिया वालों कभी न प्यार करना i
घुट-घुट के जीना है और इसमें मरना ii
मोहब्बत का मातम मानाने चला हूँ
दिल की लगी आज बुझाने चला हूँ
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2. चेहरा
आज बहुत थक सा गया हूँ
ना जाने कितने रूप में
छाँव में और धुप में
पहन पहन कर
बदल बदल कर
अपनों में ही खो गया हूँ
पागल सा मै हो गया हूँ
अब तो मै क्या हूँ
और था मै क्या पहले,
कुछ भी तो याद नहीं है
दुनिया के इस रंग मंच पे
कितने किरदारों का
चोला मैंने पहना है
नित नई कहानी नया सबेरा
नया मुखौटा पहना है
आज लौटना चाहा अपने
असली वाले चोले में
लौट न पाया यही रह गया
अपने बनाये झमेले में
कभी देखता मै आईने में
तो देख के उसमे इस चेहरे को
पता नहीं ये कौन है कैसा
किसका नया ये जामा है
मेरा चेहरा कैसा था
अब तो यह भी याद नहीं
जैसे रेतों के भव्य इमारत
की कोई बुनियाद नहीं
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3. चाँद का चेहरा
देखा आज चाँद का चेहरा
कितना प्यारा चाँद का चेहरा i
नित- नित नए रूप में आता
सबके मन को हरदम भाता
कभी बड़ा बन कर आ जाता
कभी लघु रूप भी अपनाता
बड़ा सलोना चाँद का चेहरा
कितना प्यारा चाँद का चेहरा ii
बच्चो को भी हरदम भाए
बूढों को वह डगर दिखाए
विरह की काली रात में भी
अपनों की भी याद दिलाये
ऐसा है ये चाँद का चेहरा
कितना प्यारा चाँद का चेहरा iii
कभी पतली सी काली रेखा
कभी- कभी न किसी ने देखा
कभी गोला कभी वक्र बनाकर
कभी अर्ध में ही जाते देखा
सपनों में है एक राजा चेहरा
कितना प्यारा चाँद का चेहरा
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4. खिलौना टूट गया………………..
मुझे जब से मिला था प्यार तेरा
जीने की तम्मना जाग उठी थी
पर आज मुझे मालूम हुआ की
दिल का खिलौना टूट गया
पापा ने खेला कांच समझकर
जस का तस रख दिया सहजकर
उनसे भी तो साथ मेरा बचपन में ही छुट गया
पर आज मुझे मालूम हुआ की
दिल का खिलौना टूट गया
मम्मी ने खेला अपने दिल का
एक टुकड़ा था मै, उनका समझ कर
आई जवानी तो पतझड़ की तरह
सावन भी मुझसे रूठ गया
पर आज मुझे मालूम हुआ की
दिल का खिलौना टूट गया
तुने ( प्रेमी ने ) खेला एक खेल समझ कर
खेला और खेला, फिर मारी ठोकर
फिर भी नहीं मालूम हुआ की
मेरा रब भी मुझसे रूठ गया
पर आज मुझे मालूम हुआ की
“राज ” का खिलौना टूट गया
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5. आँखें……
ये आँखें बोलती हैं
सच को झूठ
झूठ को सच
सबको आँखे तोलती हैं
ये आँखें बोलती हैं
ग़म के हों कितने भी बादल
या ख़ुशी के हो सुनहरे पल
सारे जज्बात को अन्दर रखकर
नयन पटों को खोलती हैं
ये आँखें बोलती हैं
कोई रोक ले चाहे दरिया का पानी
बाँधी ना जाये आंसुओं की रवानी
मन ही मन में बोलती है
ये आँखें बोलती हैं
डुबकी लगा के गहराई थहा लो
ये झील है पानी का इसमें नहा लो
देखो फिर कैसे झूठ बोलती है
ये आँखें बोलती हैं
कोई न जाना की इसमें छुपा क्या है
जुबां इनकी क्या है और भाषाएं क्या है
भेद दिलों का सबके
दो पल में खोलती हैं
ये आँखें बोलती हैं
खुली आँखों में कई बंद राज होते है
एक हंसी “राज” को बरबस यूँ ही
अपने आस-पास टटोलती है
ये आँखें बोलती हैं
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परिचय -:
संजय सरोज
लेखक व् कवि
संजय सरोज मुंबई में अपनी पूरी फैमिली के साथ रहते हैं ,, हिंदी से स्नातक मैंने यहीं मुंबई से ही किया है. नेटिव प्लेस जौनपुर उत्तरप्रदेश है
फ़िलहाल मै एक प्राइवेट कंपनी में ८ वर्षों से कार्यरत हैं , कविताएं और रचनाएँ लिखते !
सम्पर्क -:
मोबाइल :- ९९२०३३६६६० /९९६७३४४५८८
ईमेल : sanjaynsaroj@gmail.com , sanjaynsaroj@yahoo.com