अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा इस बात से क्षुब्ध हैं कि भारत रूस के साथ रक्षा समझौते क्यों कर रहा है. दरअसल रूस के साथ भारत के ताजा समझौतों से अमरीका नाराज है. उसका कहना है कि यह रूस के साथ सामान्य संबंधों का समय नहीं है. हालांकि जवाब में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ठीक ही कहा कि रूस से हमारे संबंध बहुत पुराने हैं. भारत हमेशा से रूस के साथ खड़ा रहा है और रूस भी हमारा सहयोगी है. मोदी ने अमरीका की नाराजगी का जिक्र किये बगैर ये भी कहा कि रूस के साथ भारत के संबंध अतुलनीय हैं, भारत के लिए विकल्प बढ़ा है, लेकिन रूस हमारा सबसे महत्वपूर्ण रक्षा सहयोगी बना रहेगा. रूसी प्रधानमंत्री ब्लादिमीर पुतिन अभी अभी भारत का शानदार दौरा कर लौटे हैं और अब अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के स्वागत की तैयारियां शुरु हो गयी है. ओबामा 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस परेड के मौके पर मुख्य अतिथि के रूप में आ रहे हैं. इस दौरान वे भारत के साथ रणनीतिक सहयोग बढ़ाने और अनेक किस्म के सौदे समझौते भी करेंगे.
दोस्ती तो रूस ने निभायी थी 1971 की भारत-पाक लड़ाई में
इसमें कोई शक नहीं कि आज रूस के अलावा भारत के प्रगाढ़ संबंध अमरीका समेत तमाम यूरोपीय व अन्य देशों के साथ बने हैं. लेकिन रूस के साथ भारत के संबंध समय की कसौटी पर इतने खरे रहे हैं, कि किसी देश से उसकी तुलना हो ही नहीं सकती. इसलिए प्रधानमंत्री मोदी के इस बयान का मर्म अमरीका को 1971 के भारत-पाक युद्ध के संदर्भ में देखना समझना चाहिए. संयोग से 16 दिसंबर 2014 को उस भारत-पाक युद्ध के 43 साल पूरे हो गये हैं, जिसमें भारत ने पूर्वी पाकिस्तान को बांग्लादेश से अलग कर दिया था और जिस लड़ाई में रूस ने हमारा पूरा साथ दिया था. यह वह ऐतिहासिक दिन था, जब मात्र 14 दिनों की लड़ाई के बाद पाकिस्तानी फौज के 93 हजार सैनिकों ने ढाका (बांग्लादेश) में भारतीय सेना के सामने आत्मसमर्पण कर दिया था. पाकिस्तान पर हुई ऐतिहासिक जीत के इस दिन को भारत विजय दिवस के रूप में मनाता है.
पाकिस्तानी सेना को इस युद्ध में भारी नुकसान हुआ था, जिसका दंश आज भी वह भूला नहीं है. अभी हाल ही में पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ ने यह कहकर अपना दर्द बयां किया कि करगिल में घुसपैठ पाक ने 1971 की लड़ाई का बदला लेने के लिए किया था. दरअसल 1965 की लड़ाई के छह साल बाद ही सन 1971 में भारत पाक के बीच हुई इस निर्णायक लड़ाई में भारत ने पाकिस्तान के दो टुकड़े कर दिये थे.
ये और बात है कि पाकिस्तान के स्कूली किताबों में 1971 की इस लड़ाई के बारे में आज भी तथ्यों से परे भ्रामक बातें बताई जा रही हैं, बताया गया है कि भारत, रूस और अमेरिका की साजिश से ही भारत पूर्वी पाकिस्तान को तोड़कर बांग्लादेश बनाने में कामयाब रहा. उनकी किताबों में बांग्लादेश में न पाकिस्तानी फौज के अत्याचार की कहीं चर्चा है और न ही इस युद्ध में जुल्फिकार अली भुट्टो या उनकी पार्टी पीपीपी की भूमिका का ही कोई जिक्र है. पाकिस्तानी पाठ्य पुस्तकें बताती हैं कि बांग्लोदश बनने के लिए वहां मौजूद बंगाली हिंदू टीचरों ने ऐसा पाठ पढ़ाया जिससे पश्चिमी पाकिस्तान के प्रति वहां के लोगों में नफरत हो गई, भारत ने इन हिंदुओं के हितों की रक्षा के लिए उनका सपोर्ट किया और बांग्लादेश बना और रूस व अमेरिका ने भी अपने अपने कारणों से बांग्लादेश बनने का समर्थन किया.
सच तो ये है कि इस युद्ध में भारतीय सेना ने अमरीका द्वारा पाकिस्तान की रक्षा के लिए दी गयी इस उपमहाद्वीप की तब एकमात्र पनडुब्बी रही यूएसएस डिआब्लो (पाकिस्तानी नाम-पीएनएस गाजी) को भी 4 दिसंबर 1971 को डुबो दिया था. और जब भारतीय सेना कराची पर कब्जे की तैयारी करने लगी तो तब उसके रहनुमा रहे अमरीकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने बौखला कर 8 दिसंबर 1971 को किंग क्रूज मिसाइलों, सत्तर लड़ाकू विमानों और परमाणु बमों से लैस अपने सातवें युद्धक बेड़े यूएसएस एंटरप्राइजेज को दक्षिणी वियतनाम से बंगाल की खाड़ी की ओर कूच करने का आदेश दे डाला था. दस अमरीकी जहाजों वाले इस नौसनिक बल को अमरीका ने टास्क फोर्स 74 का नाम दिया था.
उधर चुपके से ब्रिटेन ने भी अपने विमानवाहक पोत ईगल को भारतीय जल सीमा की ओर रवाना कर दिया था. यही नहीं भारत को घेरने के लिए अमरीका ने चीन को भी उकसाया था. लेकिन चीन सामने नहीं आया. कई अन्य देशों के माध्यम से पाकिस्तान को लड़ाकू विमानों और हथियारों की मदद करवायी गयी थी. फिर भी भारत घबराया नहीं.
इस मौके पर सोवियत संघ ने यादगार तरीके से भारत का साथ दिया था. सोवियत संघ के राष्ट्रपति ब्रेझनेव ने 13 दिसंबर को अपनी परमाणु संपन्न पनडुब्बी व विमानवाहक पोत फ्लोटिला को एडमिरल ब्लादीमिर क्रुग्ल्याकोव के नेतृत्व में जब भारतीय सेना की रक्षा के लिए भेजा तो अमरीकी-ब्रिटिश सेना ठिठक गयी. आखिरकार भारतीय सेना को ऐतिहासिक जीत हासिल हुई. युद्ध के ऐसे नाजुक मौके पर रूस का भारत के साथ पूरी ताकत से खड़ा होना भारत कैसे भूल सकता है. याद रहे कि इस लड़ाई से महज तीन माह पहले ही 9 अगस्त 1971 को भारत ने रूस के साथ एक बीस वर्षीय सहयोग संधि पर हस्ताक्षर किये थे. भारतीय जनता तो रूस के इस समर्थन की ऋणी है.
दरअसल बांग्लादेश (तब पूर्वी पाकिस्तान) में पाकिस्तानी सेना बर्बर अत्याचार कर रही थी. वहां के बंगाली मुसलमानों को दोयम दर्जे का माना जाता था. 1970 में हुए चुनाव में अवामी लीग को 300 में से 167 सीटें हासिल हुई थी, पर पश्चिमी पाकिस्तान के शासकों ने अवामी लीग को सत्ता सौपने की बजाय उनके खिलाफ सैन्य ‘ऑपरेशन ब्लीज’ छेड़ दिया. एक तो उन्हें पाकिस्तान की सत्ता में वाजिब हक नहीं दिया गया और इस बारे में आवाज उठाने पर पाक सेना उनका नरसंहार और बंगाली मुसलमान महिलाओं के साथ बलात्कार करने लगी. पाक सेना ने करीब तीस लाख बंगाली मुसलमानों का कत्लेआम किया. करीब एक करोड़ बांग्लादेशियों ने भागकर भारत में शरण लिया.
तब बुचर ऑफ बंगाल के नाम से कुख्यात पाकिस्तानी सेना के जनरल टिक्का खान का आदेश साफ था – ‘हमें जमीन चाहिए – लोग नहीं’. और तब वहां तैनात पाकिस्तानी मेजर जनरल फरमान खान ने अपनी डायरी में लिखा – ‘पूर्वी पाकिस्तान की हरी भरी धरती को हम लाल खून से रंग देंगे’. ‘ऑपरेशन ब्लीज’ के बाद पाक ने पूर्वी पाकिस्तान से सारी विपक्षी पार्टियों, बुद्धिजीवियों और आंदोलनकारियों का सफाया करने के लिए ‘ऑपरेशन सर्चलाइट’ छेड़ा. इससे बौखलाये बांग्ला मुक्ति वाहिनी ने समूचे पूर्वी पाकिस्तान में व्यापक आंदोलन छेड़ दिया, जिसे भारत का समर्थन हासिल था. मानवाधिकारों के इस घोर हनन पर तब अमरीका और ब्रिटेन न सिर्फ खामोश थे, बल्कि तब तो वे पाकिस्तान के साथ इस कदर खड़े थे कि जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अमरीका को इस कत्लेआम की जानकारी देते हुए लिखा कि भारत पूर्वी पाकिस्तान से आये शरणार्थियों का बोझ नहीं सह सकता और उन्हें वापस भेज देगा, तो अमरीका के राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने भारत पर आर्थिक प्रतिबंध लगाने की चेतावनी दी थी. एक बार तो निक्सन ने अपने गृह सचिव हेनरी किसिंजर से फोन पर बातचीत में इंदिरा गांधी को कुतिया तक कहकर संबोधित किया था.
आखिरकार बांग्ला मुक्ति वाहिनी के आंदोलन को कुचलने के लिए 3 दिसंबर 1971 को पाकिस्तान ने ‘ऑपरेशन चंगेज’ के कोड नाम से पूर्वी पाकिस्तान समेत अनेक भारतीय ठिकानों पर हवाई हमला बोल दिया. भारत ने इस हमले का करारा जवाब दिया और महज 14 दिनों में ही पाक को घुटने टेकने को मजबूर कर दिया.
इस युद्ध में पाकिस्तान ने कराची को भारतीय हमले से बचाने लिए ईरान के साथ हवाई सुरक्षा का समझौता किया था, लेकिन ऐन मौके पर रूस के जवाबी हमले के डर से ईरान के शाह कराची को हवाई सुरक्षा मुहैया करने से पीछे हट गये थे. इसका खुलासा पिछले ही साल श्रीनाथ राघवन ने अपनी किताब में किया है. राघवन लिखते हैं कि इस युद्ध में इजरायल ने भी भारत को हथियार मुहैया कराये थे. तब इस्राइल के पास हथियार कम थे, लेकिन प्रधानमंत्री गोल्डा मीर ने हस्तक्षेप कर ईरान को भेजने के लिए रखे गये हथियारों की खेप भारत को भिजवा दी थी. और यह तब था जब इजरायल के साथ भारत के राजनयिक संबंध भी नहीं थे और भारत ने तो 1948 में इसके देश के रूप में गठन के खिलाफ वोट दिया था. क्या भारत इसे भूल सकता है? 1971 की लड़ाई में इजरायल के इस योगदान को ध्यान में रखने के बाद भी भारत ने इस युद्ध के करीब दो दशक बाद 1992 में प्रधानमंत्री नरसिंह राव के काल में उसके साथ औपचारिक राजनयिक संबंध स्थापित किये.
सन 1971 के युद्ध के दौरान पश्चिमी देशों खासकर सुपर पावर अमरीका और ब्रिटेन की भूमिका भारत विरोधी और पाकिस्तान परस्त थी. इसी तरह उसने पाकिस्तान का समर्थन 1965 के युद्ध में भी किया था. यह दुनिया के वे देश थे, जिनका संयुक्त राष्ट्र में दबदबा था और इन्हीं से नेहरू कश्मीर मामले में न्याय लेने गये थे.
अगर अमरीका पर 9/11 का हमला नहीं होता और आतंकवाद फैलाने में पाकिस्तान की भूमिका उजागर न हुई होती, तो शायद आज भी अमरीका पाकिस्तान के ही पक्ष में खड़ा होता. प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने अमरीका को अपना स्वाभाविक सहयोगी करार देकर भारत-अमरीका संबंधों के एक नये युग का सूत्रपात किया था. अमरीका को भारत की दोस्ती की अहमियत जरा देर से समझ में आयी, पर देर आयद दुरूस्त आयद. अब उसे भारत-रूस की दोस्ती से ईर्ष्या करने की बजाय अपने साथ संबंधों को विश्वास की अटूट गहराई तक ले जाने के बारे में सोचना चाहिए. 1971 की लड़ाई में तो वो चीन को भारत पर हमले के लिए उकसा तक रहा था, पर आज बदले हालात में अमरीका और भारत दोनों जानते हैं कि उनके सामने असली चुनौती चीन ही है. उम्मीद है कि राष्ट्रपति बराक ओबामा इस बात को जरूर ध्यान में रखेंगे. वे भारत को महज रणनीतिक सहयोगी और बाजार न समझें. अमरीका को रूस की तरह भारत का दोस्त बनने के बारे में सोचना चाहिए.
Former Managing Editor, i9 Media
Former Managing Editor, The Sunday Indian
Former Resident Editor–RASHTRIYA SAHARA (Hindi Daliy), Delhi & Patnaप्रकाशित – : पुस्तक घाटी में आतंक और कारगिल’
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Onkareshwar Pandey is a bi-lingual (Hindi-English) Journalist and a known Indian Media personality with an experience of over 30 years in Print, Television, Radio & Digital Media. He is a four time experienced Editor and a keen Social Worker on various issues including Language, Media, Health, Women and Culture etc.Onkareshwar Pandey provides Kaizen Solution for Media to make it a Prestigious & Profitable Brand. He has conceptualized, launched and led several Print Media products such as Magazines, Newspapers and Periodicals. He has been successful in transforming the Media into a real brand rich with innovative content, ideas and brand development initiatives and has successfully made it into a profitable venture and thus is rightly regarded as an Expert Media man.
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सवाल वाजिब हैं ! पांडे जी पर क्या सिस्टम समझ पाएगा !
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