– निर्मल रानी-
इन दिनों देश के विभिन्न राज्यों से मांस की बिक्री पर प्रतिबंध लगने या हटाए जाने की खबरें आए दिन आ रही हैं। टी वी चैनल भी इन मसालेदार खबरों पर चर्चा कराकर अपनी टीआरपी बढ़ाने में लगे हुए हैं। ऐसा प्रतीत होता है मानो कि देश को दूसरी तमाम जनसमस्याओं से पूरी तरह मुक्ति मिल गई हो और वर्तमान समय की सबसे बड़ी समस्या यही रह गई हो कि किस की थाली में किस प्रकार का भोजन रहना चाहिए और किस प्रकार का नहीं। कौन शाकाहारी रहे और किसे मांसाहार नहीं करना चाहिए। कौन-कौन से जानवर मांसाहार हेतु काटे जा सकते हैं और कौन से नहीं। विभिन्न राजनैतिक दलों द्वारा अपने राजनैतिक नफे-नुकसान का अत्यंत सूक्ष्म अध्ययन करते हुए इस विषय को देश के विभिन्न राज्यों में वहां की धर्म व समुदाय आधारित जनसंख्या के अनुसार उछाला जा रहा है। इन सभी विवादों के बीच कम से कम इस बात पर तो एक राष्ट्रीय सहमति बनती दिखाई दे रही है कि खान-पान किसी भी व्यक्ति का निजी मामला है। और यह निर्धारित करना किसी दूसरे व्यक्ति का काम नहीं हो सकता कि कोई शख्स क्या खाए और क्या न खाए। कोई शाकाहारी व्यक्ति किसी मांसाहारी व्यक्ति पर जबरन शाकाहार नहीं थोप सकता न ही किसी मांसाहारी व्यक्ति को किसी शाकाहारी को मांसाहार के पक्ष में उनके लाभ व उपयोगिता संबंधी प्रवचन थोपना चाहिए।
जहां तक भारत में बीफ के मांस पर प्रतिबंध का प्रश्र है तो इस प्रतिबंध के पक्षधर लोगों को यह भी सोचना चाहिए कि भारत में भले ही वे बीफ पर प्रतिबंध लगाने के पक्ष में मुखरित हो रहे हों परंतु जापान,आस्ट्रेलिया,अरब,अफ्रीका,ब्रिटेन,चीन के अतिरिक्त अनेक अमेरिकी और यूरोपीय देश ऐसे हैं जहां बीफ मांस सामान्य रूप से खाया जाता है। क्या इन देशों के मांसाहारी लोागें को हम असामान्य बुद्धि रखने वाला या अशिक्षित समाज के लोग कह सकते हैं? परंतु निश्चित रूप से भारतीय समाज के वह लोग जिन्हें अपने संस्कारों में विरासत स्वरूप शाकाहार प्राप्त हुआ है वे मांसाहार को कतई पसंद नहीं करेंगे। ऐसे लोगों की भावनाओं का हमें आदर भी करना चाहिए। यदि संभव हो तो जैन समुदाय जैसे शाकाहारी समुदाय के त्यौहारों के अवसर पर खासतौर पर पर्यूषण जैसे पवित्र त्यौहार का सम्मान करना चाहिए। परंतु इसमें सरकारी आदेशों अथवा अदालती आदेशों का सहारा नहीं लेना चाहिए। न ही इस विषय का घालमेल सत्ता व राजनीति के साथ करने की ज़रूरत है। पिछले दिनों महाराष्ट्र व जम्मू-कश्मीर सहित जिन-जिन राज्यों से बीफ अथवा अन्य कई मांसाहार पर प्रतिबंध लगाए जाने की खबरें आईं उन्हीें राज्यों से यह समाचार भी मिले कि ऐसे प्रतिबंध तो इन राज्यों में पहले भी लगते रहे हैं और ऐसे कानून पहले से ही मौजूद हैं। परंतु पहले कभी इस विषय को शोर-शराबे और प्रतिष्ठा का विषय नहीं समझा गया। फिर आिखर इन दिनों अचानक इस मुद्दे को टीवी चैनल के माध्यम से उछालने की और इन पर राजनैतिक रोटियां सेंकने की ज़रूरत क्यों महसूस हुई? ज़ाहिर है इसके पीछे महज़ समुदाय विशेष के तुष्टिकरण की सियासत ही काम कर रही है। कोई राजनैतिक दल किसी समुदाय विशेष को खुश करने के लिए मांस पर प्रतिबंध के पक्ष में मुखरित हो रहा है तो किसी को ऐसी आवाज़ उठाने वालों का आक्रामक रूप से विरोध करने में ही अपना भला दिखाई दे रहा है।
मिसाल के तौर पर महाराष्ट्र में शासन की ओर से पर्यूषण पर्व के दौरान मांसाहार पर प्रतिबंध लगाने के पक्ष में जहां भारतीय जनता पार्टी खड़ी नज़र आई वहीं महाराष्ट्र की कूप मंडूक शिवसेना ने जैन समुदाय का आक्रामक विरोध करने तथा मांसाहार के पक्ष में खड़े होने में ही अपनी सफलता का आंकलन किया। सेना की ओर से पहले तो यह गैरजि़म्मेदाराना बयान दिया गया कि मुसलमानों को तो पाकिस्तान में पनाह मिल जाएगी परंतु जैन समुदाय के लोग भागकर कहां जाएंगे। इस प्रकार की तल्ख टिप्पणी कम से कम ऐसे राजनैतिक दल को कतई शोभा नहीं देती जो केंद्र व राज्य की सत्ता में भागीदारी कर रही हो और सत्तारूढ़ दल की सहयोगी पार्टी हो। शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने पार्टी के मुखपत्र सामना में लिखे गए अपने संपादकीय आलेख में लिखा है कि-‘जैन समुदाय के लोग धर्मंाध न बनें। उनकी धर्मांध मानसिकता उन्हें हिंदुओं का दुश्मन बना देगी। बिल्कुल वैसे ही जैसेकि धर्मंाध मुसलमान हिंदुओं के दुश्मन बन गए। इसलिए पर्यूषण का आडंबर न किया जाए। पर्यूषण में हिंसा न करने का आग्रह करते जैन क्या इन दिनों ब्लैक मनी लेना बंद कर देंगे? मुंबई में ज़्यादातर बिल्डर जैन हैं। क्या वे अपने सौदे में पर्यूषण काल में काला धन नहीं लेंगे? हिंसा विचारों में भी होती है। याद रखें कि 92-93 के दंगों में इस जैन समाज के कारोबार की रक्षा शिवसेना ने की थी और वे यह भी न भूलें कि जैन लोगों के कारोबार को उखाड़ फेंकने में हमें ज़्यादा समय नहीं लगेगा। इसलिए कह देता हूं कि जिसे जो खाना है खाने दो’।
उद्धव ठाकरे के उपरोक्त शब्द पूरी तरह से आक्रामक व जैन समाज को चेतावनी दिए जाने के लहजे में लिखे गए हैं। क्या एक जि़म्मेदार राजनैतिक दल के मुखिया को ऐसी शब्दावली का इस्तेमाल करना चाहिए? उधर दूसरी ओर शिवसेना के साथ महाराष्ट्र नव निर्माण सेना के कार्यकर्ताओं द्वारा मुंबई में जैन मंदिरों के सामने खड़े होकर मांस बनाने व बेचने जैसा भोंडा प्रदर्शन कर मांसाहारी लोगों को अपने पक्ष में करने का प्रयास किया गया। जैन समुदाय के शाकाहारी लोगों को मानसिक रूप से आहत करने का इससे घटिया तरीका दूसरा कोई नहीं हो सकता। जैन समुदाय के संतों व ऋषियों ने अपने समाज को जीव हत्या के विरुद्ध संस्कारित किया है। ऐसे में उनके मंदिरों के समक्ष प्रदर्शन स्वरूप मांस बेचना इस समुदाय का निरादर करने के सिवा और कुछ नहीं है। परंतु सेना द्वारा ऐसा सिर्फ इसलिए किया जा रहा है क्योंकि उन्हें जैन समुदाय के अल्पसंख्यक मतों से ज़्यादा ज़रूरत राज्य के बहुसंख्य मांसाहारी मतों की है। लिहाज़ा उन्हें अपमानित करने में भी सेना के नेता ज़रा भी नहीं हिचकिचा रहे हैं। कुछ ऐसी ही स्थिति कश्मीर में भी पैदा हुई है। वहां बीफ के मांस पर प्रतिबंध के बाद कुछ मौकापरस्त अलगाववादी नेताओं ने श्रीनगर के लाल चौक पर गौहत्या किए जाने की घोषणा कर डाली। हालांकि कश्मीर पुलिस द्वारा इन नेताओं को गिरफ्तार किए जाने की खबरें आईं हैं। परंतु कश्मीर के अलगाववादी नेताओं को राज्य में अमन-शाति व भाईचारे के मद्देनज़र किसी धर्म विशेष के लोगों को भडक़ाने वाली ऐसी घोषणा नहीं करनी चाहिए। कश्मीरी नेताओं का यह कदम भी महाराष्ट्र के शिवसेना नेताओं के बयानों से कम नहीं।
बावजूद इसके कि मुस्लिम धर्म में बीफ का मांस खाने को धार्मिक मान्यता हासिल है,आज देश में राष्ट्रीय स्तर पर मुस्लिम उलेमाओं को अपने समाज को यह समझाते हुए सुना जा रहा है कि वे गौहत्या से बाज़ आएं और बकरीद जैसे कुर्बानी के त्यौहार पर भी गौहत्या न करें। इस उद्देश्य के फतवे भी विभिन्न उलेमाओं द्वारा कई बार जारी किए जा चुके हैं। यह फतवे इस गरज़ से जारी नहीं किए जाते कि इस्लाम धर्म में बीफ के मांस खाने की मनाही है। बल्कि ऐसे फतवों का मकसद केवल यह होता है कि भारत जैसे देश में जहां विभिन्न धर्मों और विभिन्न मान्यताओं के लोग सामूहिक रूप से रह रहे हों उस देश में मात्र गौहत्या के चलते हमारे समाज में अशांति व तनाव का वातावरण पैदा न होने पाए। खाने-पीने की हज़ारों नेमतें खुदा ने बख्शी हैं। ऐसे में यदि धार्मिक सौहाद्र्र के लिए मुस्लिम समाज गौमांस को त्याग भी दे तो आिखर इसमें बुराई भी क्या है? बल्कि ऐसे कदम तो हमारे सद्भाव और भाईचारे को मज़बूत बनाते हैं। परिणामस्वरूप राष्ट्र्र मज़बूत होता है। परंतु ठीक इसके विपरीत यदि कश्मीरी अलगाववादी या महाराष्ट्र में सेना के नेतागण अपने ही राज्यों के अल्पसंख्यक समुदायों के लोगों को अपने घटिया प्रदर्शनों या विचारों से आहत करने की कोशिश करते हैं तो यह हमारे देश के लोकतंत्र पर सीधा प्रहार है। मुमकिन है कि इस प्रकार के कूप मंडूक नेताओं की ऐसी घातक सियासत उन्हें कुछ समय के लिए स्थानीय समाज में लोकप्रिय क्यों न बना देती हो परंतु इस प्रकार की आपत्तिजनक कोशिशें दूसरे क्षेत्रीय अल्पसंख्यक लोगों के दिलों में भय तथा असुरक्षा का वातावरण पैदा करती हैं। केंद्र सरकार को देश के सभी धर्मों व समुदायों की भावनाओं का समान रूप से आदर करते हुए ऐसे कूपमंडूकों के विरुद्ध सख्त कानूनी कार्रवाई करनी चाहिए जो अपनी क्षेत्रीय वोट बेंक की राजनीति करने की खातिर दूसरे क्षेत्रीय अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों का अनादर करते हैं तथा अपने घटिया बयानों व ओछे प्रदर्शनों के द्वारा दूसरों के जज़्बातों को ठेस पहुंचाने का दु:स्साहस करते हैं। यदि इन पर समय रहते नकेल नहीं कसी गई तो यह भविष्य में और भी अधिक आक्रामक बयानबाजि़यां करते रहेंगे। परिणामस्वरूप हमारे देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था प्रभावित समुदाय की नज़रों में संदिग्ध होने लगेगी।
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निर्मल रानी
लेखिका व् सामाजिक चिन्तिका
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर निर्मल रानी गत 15 वर्षों से देश के विभिन्न समाचारपत्रों, पत्रिकाओं व न्यूज़ वेबसाइट्स में सक्रिय रूप से स्तंभकार के रूप में लेखन कर रही हैं !
संपर्क : – Nirmal Rani : 1622/11 Mahavir Nagar Ambala City13 4002 Haryana , Email : nirmalrani@gmail.com – phone : 09729229728
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