हमारे देश और दुनिया में विभिन्न धर्मों व समुदायों के मध्य इस प्रकार की अनेकानेक ऐसी धार्मिक व सामाजिक मान्यताएं व रीति-रिवाज हैं जिनका सीधा संबंध लोगों की आस्था,उनके संस्कार तथा धार्मिक विश्वास से जुड़ चुका है। इनमें तमाम रीति-रिवाज व मान्यताएं ऐसी भी हैं जो भले ही इन्हें मानने वालों के लिए आस्था का प्रश्र क्यों न हो परंतु दूसरे समुदायों अथवा दूसरे धर्मों के अनुयाईयों के लिए ऐसे कई रीति-रिवाज या तो आलोचना का विषय हैं अथवा उनके द्वारा उसका मखौल उड़ाया जाता है। ऐसा ही एक धार्मिक प्रचलन है पशुओं की बलि दिया जाना। हालांकि पशुओं की बलि देना किसी एक धर्म से जुड़ा विषय नहीं है फिर भी जानबूझ कर कई उन्मादी प्रवृति के लोग तथा सांप्रदायिक विद्वेष फैलाने में महारत रखने वाले तत्व इस प्रथा को धर्म विशेष से जोडऩे की कोशिश करते रहते हैं। मानो वह किसी एक समुदाय में ही चला आ रहा प्रचलन हो। क्या हिंदू तो क्या मुसलमान इन दोनों ही प्रमुख धर्मों के अनुयाईयों में पशुओं की बलि दिए जाने का प्रचलन है। ज़ाहिर है इन दोनों ही धर्मों के लोग बड़े पैमाने पर मांसाहारी भी हैं। जहां बकरीद जैसे त्यौहार पर पूरे विश्व में मुस्लिम समुदाय के लोगों द्वारा पशुओं की कुर्बानी दी जाती है तथा बकरीद के दिन को इस्लामी जगत की एक ऐतिहासिक घटना से जोडक़र देखा जाता है वहीं हिंदू धर्म में भी विभिन्न अवसरों पर एक बड़े हिंदू वर्ग द्वारा पशुओं की बलि चढ़ाए जाने का प्रचलन है।
कहा जाता है कि लगभग 1700 वर्ष पूर्व इस्लाम धर्म के पैगंबर हज़रत इब्राहिम जोकि अल्लाह तथा उसकी इच्छाओं के प्रति पूरी तरह समर्पित थे उन्हें एक रात सोते समय सपने में अल्लाह की तरफ से यह हुक्म हुआ कि वे अपने जीवन की सबसे प्रिय चीज़ को अल्लाह की राह में कुर्बान कर दें। हज़रत इब्राहिम ने अल्लाह के इस निर्देश का पालन करते हुए अपने जीवन की सबसे प्रिय शै अर्थात् अपने पुत्र हज़रत इस्माईल को अल्लाह की राह में कुर्बान करने का संकल्प किया क्योंकि हज़रत इब्राहिम को अपने जीवन में सबसे अधिक प्यार अपने बेटे इस्माईल से ही था। वे इस्माईल को लेकर एक एकांत स्थान पर गए और आंखों पर पट्टी बांधकर अपने बेटे की कुर्बानी का संकल्प किया। यहां तक कि उन्होंने अपने बेटे इस्माईल की गर्दन पर छुरी भी चला डाली। परंतु इस्लामी मान्यताओं के अनुसार जब हज़रत इब्राहिम ने अपनी आंखों पर बंधी पट्टी खोली तो यह चमत्कार देखा कि इस्माईल सही सलामत उनके पास खड़े हैं और जिस पुत्र इस्माईल पर उन्होंने छुरी चलाई थी वह चमत्कारिक रूप से एक दुंबा (भेड़) बन चुका है। बताया जाता है कि अल्लाह हज़रत इब्राहिम के इस संकल्प से तथा ईश्वर के निर्देश का पालन करने की उनकी प्रतिज्ञा से खुश हुआ और अल्लाह ने उनके बेटे को बचाकर चमत्कार स्वरूप बेटे के स्थान पर एक भेड़ को भेज दिया। उसी दिन की याद में मुस्लिम समुदाय द्वारा इस्लाम धर्म में हलाल बताए गए जानवरों की कुर्बानी दी जाती है।
इसी प्रकार हिंदू धर्म में कभी इंद्र देवता को खुश करने के लिए तो कभी अपने व अपने परिवार या समाज को संकट से मुक्ति दिलाने के लिए तो कभी किसी देवी-देवता को प्रसन्न करने की गरज़ से पशुओं की बलि चढ़ाए जाने का प्रचलन है। पड़ोसी देश नेपाल में तो गढि़माई पर्व के दौरान नेपाल की राजधानी काठमांडू से मात्र 150 किलोमीटर की दूरी पर स्थित बारा जि़ले के बरियारपुर कस्बे में स्थित गढ़ीमाई मंदिर पर प्रत्येक पांच वर्ष के अंतराल पर पशुओं की बलि दिए जाने का एक ऐसा ऐतिहासिक आयोजन होता है जैसाकि पूरे विश्व में कहीं भी नहीं होता। सन् 2009 में लगभग पांच किलोमीटर क्षेत्र के गढि़माई मंदिर के समीप लगभग पांच लाख पशुओं की बलि एक ही दिन में चढ़ाई गई थी। भारत-नेपाल सीमा से सटे इस क्षेत्र में मधेसी समुदाय के लोगों द्वारा यह त्यौहार पशुओं की बलि देकर मनाया जाता है। परंतु चूंकि जो लोग मांसाहार को उचित नहीं मानते अथवा पशुओं के अधिकारों की बात करते हैं या मधेशी समुदाय से संबंध नहीं रखते ज़ाहिर है उनके लिए इस प्रकार का प्रचलन या बकरीद जैसे इस्लामी त्यौहार पर जानवरों की कुर्बानी दिए जाने का प्रचलन आलोचना का कारण बना रहता है। और ऐसे लोग इस प्रकार के त्यौहारों की आलोचना करने या ऐसी प्रथाओं को तर्कों की कसौटी पर तौलने से बाज़ नहीं आते। परिणामस्वरूप इन रीति-रिवाजों का पालन करने वाले समुदायों की भावनाएं आहत होती हैं।
पिछले दिनों भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा एक गैर सरकारी स्वंय सेवी संगठन द्वारा पशुओं की बलि रोके जाने के संबंध में दायर की गई एक याचिका पर सुनवाई के उपरांत भी धार्मिक त्यौहारों पर किसी भी तरह की पशु बलि को रोके जाने हेतु सरकार को इससे संबंधित आदेश दिए जाने से इंकार कर दिया गया। ेमाननीय सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में बाकायदा यह स्वीकार किया कि अदालत पीढिय़ों से चले आ रहे ऐसे अभ्यासों के लिए अपने आंखें बंद नहीं कर सकती। सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायधीश जस्टिस एचएल दत्तु तथा जस्टिस अमिताभ राव वाली दो सदस्यीय बेंच ने इस विषय पर दिए गए अपने निर्णय पर कहा कि ‘गांवों में ऐसा विश्वास है कि अगर पशुओं की बलि दी जाएगी तो बारिश होगी। लिहाज़ा अदालत को ऐसीे विश्वास आधारित परंपराओं में दखल नहीं देना चाहिए’। मुख्य न्यायधीश महोदय ने कहा कि ‘हम सदियों से चली आ रही परंपराओं के लिए अपनी आंखें बंद नहीं कर सकते जिसपर पीढ़ी दर पीढ़ी गौर किया जाता रहा है’। हालांकि इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि मानवीय दृष्टि से पशुओं की हत्या करना पहली नज़र में कतई मुनासिब प्रतीत नहीं होता। परंतु पशुओं की बलि रोकने संबंधी शोर-शराबा प्राय: उसी वर्ग द्वारा खासतौर पर किया जाता है जो या तो स्वयं संस्कारित रूप से शाकाहारी है या अपनी धार्मिक मान्यताओं या बाध्यताओं के चलते मांसाहार से दूर रहता है। या फिर इन दिनों जैसाकि हमारे देश में खासतौर पर देखा जा रहा है वो लोग मांसाहार का या पशुओं की बलि दिए जाने का विरोध करते नज़र आ रहे हें जिन्हें इस मुद्दे को उछालने में अपना राजनैतिक लाभ होता नज़र आ रहा है भले ही ऐसे लोग स्वयं भी मांसाहारी ही क्यों न हों।
बहरहाल सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इस संबंध में दिए गए निष्पक्ष निर्णय से यह स्पष्ट हो गया है कि धार्मिक परंपराओं अथवा मान्यताओं में दखल अंदाज़ी नहीं की जानी चाहिए और यह विषय हर हाल में न केवल संस्कारित है बल्कि सदियों से लोगों की धार्मिक भावनाओं व मान्यताओं से जुड़ा हुआ भी है। ऐसे में इस विषय को तर्क की कसौटी पर तौला जाना कतई मुनासिब नहीं है। इसके बावजूद कुछ अज्ञानी िकस्म के लोग जानबूझ कर इस विषय पर ऐसे वक्तव्य देते रहते हैं गोया पशुओं की बलि देना केवल एक ही धर्म के लोगों का प्रचलन हो। पिछले दिनों हमारे देश में जैन समुदाय के पवित्र त्यौहार पर्यूषण के अवसर पर विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा पशु बलि को रोकने से संबंधित तरह-तरह की घोषणाएं की गईं। परिणामस्वरूप देश में तनाव का वातावरण पैदा हो गया। देश में निष्पक्ष विचारधारा रखने वाले उदारवादी सोच के लोगों ने एक ही वाक्य में इस विषय पर अपने विचार रखते हुए कहा कि कौन क्या खाता है और क्या नहीं, किसे क्या खाना चाहिए और क्या नहीं खाना चाहिए यह उसका अपना बेहद निजी मामला है। परंतु इसके बावजूद इस विषय पर देशव्यापी राजनीति होती हुई देखी गई। कई नेता इस देश में ऐसे भी हैं जो इस प्रकार के विवादित विषयों पर तरह-तरह के आपत्तिजनक बयान देकर मीडिया में सुिर्खयां बटोरना चाहते हैं। इनमें खासतौर पर दक्षिणपंथी हिंदुत्ववादी विचारधारा रखने वाले कई नेता ऐसे हैं जो ऐसे मुद्दों की तलाश में रहते हों जिन्हें आधार बनाकर समुदाय विशेष पर सीधे निशाना साधा जा सके। अफसोस की बात तो यह है कि विवादित वक्तव्य देने वाले ऐसे लोग इत्तेफाक से देश की संसद तथा विभिन्न विधानसभाओं के सदस्य भी हैं।
ऐसे लोग एक ओर तो दूसरों की धार्मिक मान्यताओं व भावनाओं को आहत करने का काम करते हैं तो दूसरी ओर अपने पक्ष में भी दूसरे समुदायों या अपनी स्वयं की भावनाओं के आहत होने का वास्ता देते हें। अप्रत्यक्ष रूप से ऐसे लोग दूसरे धर्मों या समुदायों अथवा अन्य विश्वासों के लोगों की धार्मिक अथवा सामाजिक रीति-रिवाजों अथवा मान्यताओं में दखल अंदाज़ी करने का सीधा प्रयास करते हैं। और इसी बहाने वे अपने पक्ष में राजनैतिक माहौल खड़ा करने की कोशिश करते हैं। ऐसे लोगों को इस बात से बाखबर रहना चाहिए कि प्रत्येक वर्ग की अपनी निजी भावनाएं व धार्मिक आस्थाएं हैं और माननीय अदालत के इस संबंध में दिए गए फैसले को मद्देनज़र रखना ही सबसे बड़ी बुद्धिमानी है। क्योंकि धार्मिक आस्थाओं व मान्यताओं को किसी भी सूरत में तर्कों की कसौटी पर तौला नहीं जा सकता। हां इस विषय पर राजनीति ज़रूर की जा सकती है जैसाकि देश में होती देखी जा रही है। यानी कि एक मांसाहारी भी केवल अपने राजनैतिक हितों को साधने के लिए पशुओं की बलि या मांसाहार के विरुद्ध अपना परचम बुलंद किए दिखाई दे रहा है।
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निर्मल रानी
लेखिका व् सामाजिक चिन्तिका
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर निर्मल रानी गत 15 वर्षों से देश के विभिन्न समाचारपत्रों, पत्रिकाओं व न्यूज़ वेबसाइट्स में सक्रिय रूप से स्तंभकार के रूप में लेखन कर रही हैं !
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