जयश्री रॉय की कहानी “अपना दर्द “
अपना दर्द
धूल, धुंये से ढंके क्षितिज पर उस कनेरिया लपलपाहट को देख कर गोरा स्वयं को रोक नहीं पाया था. अपने सारे बंधन छुड़ा कर एक दीवाने की तरह वह उस दिशा में बेतहासा दौड़ता चला गया था. पीछे से उसके मित्र उसे पुकारते रहे थे. मगर उसे उस समय किसी की भी आवाज़ सुनाई नहीं पड़ रही थी.वारदात की जगह पर पहुंचते ही उसका दिल धक से रह गया था. घास-फूस की एकमुट्ठी भर झोंपड़ी कपास के गोले की तरह धू-धू कर जल रही थी. भीतर से छोटे बच्चों के चीखने की आवाज़ें आ रही थी. खिड़की से दो ज़र्द चेहरे झांक रहेथे. उन पर मौत की दहशत साफ़ लिखी थी
उस जलती हुई झोंपड़ी को घेर कर एक बड़ी भीड़ तमाशाई बन कर खड़ी थी. उसमें मौजूद लोग जानवर में तब्दील हो चुके थे. सभ्यता के कपड़ों में छिपे भेड़ियेअपने तमाम नख-दंत के साथ बाहर निकल आये थे. इंसानों की बोली बहसी गुर्राहटों में तब्दील हो चुकी थी. मनुष्य के खून के लिये मनुष्यों की जीभें लपलपा रही थी. दंगे के कुछ ही पलों में सभ्यता का झीना आवरण हटा अंदर का पशु अपने भयावह रुप में बाहर आ गया था
सबके मना करते- करते गोरा अपनी गर्म चादर को शरीर पर लपेटते हुये आग़ केउस बासंती कुंड में कूद पड़ा था. असह्य गर्मी और धुंये की गाढ़ी परतों को चीरते हुये वह अंदर उन बच्चों तक पहुंचा था और उन्हें अपनी चादर में समेटकर बड़ी मुश्किल से बाहर निकल आया था. अंदर आग़ और विषैले धुंये के बीचउसे लगता रहा था कि जैसे हवा के बिना उसके फेंफड़े सूज कर फट पड़ेंगे.
बाहर आ कर दोनों बच्चों को ज़मीन पर लिटा कर वह खुद खांसते हुये दोहरा होगया था. अब तक उस्के मित्र उसके पास आ चुके थे. सभी गोरा के दु:साहस सेआश्चर्य चकित भी थे और क्षुब्ध भी. बचपन के दोस्त गोपाल ने उसे बांह से पकड़ कर झिंझोर डाला था- “यह क्या पागलपन है गोरा? अगर तुझे कुछ हो जाता तो! याद नहीं, इन्हीं लोगों ने पिछले दंगे में तेरा घर फूंक दिया था?तेरे पूरे घर को मौत के घाट उतार दिया था…”
सुनते हुये गोरा ने धीरे से अपनी बांह छुड़ा ली थी- “भूला नहीं हुं गोपाल,तभी तो… तभी तो चुप नहीं रह पाता. जहां कहीं भी आग़ लगाई जाती है, मुझेउसमें मेरा जलता हुआ घर, परिवार नज़र आता है… और कुछ नहीं!”
इतना कह कर गोरा ने एक बच्चे को अपनी गोद में उठा लिया था- “चलो, इनबच्चों को अस्पताल पहुंचाना है.” अब बिना कुछ कहे गोपाल दूसरे बच्चे को उठा कर उसके पीछे चल पड़ा था, गोरा की बातें सुन कर आज उसे भी कोई अपना याद आ गया था. वह भी कभी इसी तरह मदद के लिये चिल्ला रहा था. इस दुनिया में सबके सुख तो अलग-अलग होते हैं मगर दुख एक जैसे ही होते हैं. उसे लगा,गोरा ने उसे उसके उसी दुख का वास्ता दिया है. अब वह रुक ना सका. उसे साथचलना ही पड़ा.
……………………………………………………………………परिचय :-
जयश्री रॉय
शिक्षा : एम. ए. हिन्दी (गोल्ड मेडलिस्ट), गोवाविश्वविद्यालय
प्रकाशन : अनकही, …तुम्हें छू लूं जरा, खारा पानी (कहानी संग्रह), औरत जो नदी है, साथ चलते हुये,इक़बाल (उपन्यास) तुम्हारे लिये (कविता संग्रह)
प्रसारण : आकाशवाणी से रचनाओं का नियमित प्रसारण
सम्मान : युवा कथा सम्मान (सोनभद्र), 2012
संप्रति : कुछ वर्षों तक अध्यापन के बाद स्वतंत्र लेखन
संपर्क : तीन माड, मायना, शिवोली, गोवा – 403 517 – मोबाइल : 09822581137, ई-मेल : jaishreeroy@ymail.com
जय श्री की यह लघु कथा मर्म स्पर्शी to है ही साथ ही साथ सन्देश देती है परस्पर सद्भावना बनाये रखने की लेखिका को साधुवाद
अभी राजकुमार धर द्विवेदी जी की पोस्ट में बहुत सारी विधाएं पढ़ने और समझने को मिली ! पर आपकी उह कहानी , अपने आप में ,कहानी की दुनिया में महत्तवपूर्ण स्थान रखती हैं ! एक अच्छी कहानी के लियें साधुवाद !!
बढिया कहानी ,आपने बहुत ही कम शब्दों में बहुत बड़ी बात कह दी ! साभार
शानदार कहानी ,दिल के अन्दर बैठ कर लिखी हैं शायद !