इन दिनों जैसी मारा मारी एफ.डी.आई. पर मीडिया में-विपक्षी राजनीतिों में, मची हुई है उससे लग रहा है कि आजादी दिलाने वाली कॉंग्रेस कोई कथित इस्ट इण्डिया कम्पनी बुलाकर तुरन्त देश को गुलाम बनाने पर ही उतास्न् है और कतिपय विपक्षी दल ही केवल जनता के हिमायती बचे हैं ? कोई यह सोचने- सम।ने तक को तैयार नहीं है कि आखिर यह है क्या? दरअसल इसे देखने के दो पहलू हैं एक आर्थिक और दूसरा राजनैतिक। हमारे अर्थशास्न्नी प्रधानमंन्नी ने पहले भी भारत को आर्थिकस्न्प से सुद्रढ किया है जिसका जवर्दस्त असर भारतीय समाज के रहन सहन और हमारे आर्थिक विकास पर स्पष्ट दिख रहा है।हाथ कंगन को आरसी क्या?…और अब फिर एक नई दिशा देकर उन्होंने देश की दशा बदलने का साहस किया है।साहस इसलिये कि एक तो केवल एक दल की सत्ता नहीं है,दूसरे विपक्ष को कुछ करना नहीं केवल ऋणात्मक हल्ला बोलना है जो बहुत आसान होता है। वस्तुतः बिना पूॅजी के देश में विकास कार्य आगे बढ. नहीं सकते। देशी पूॅजी तो सीमित है अतःविदेशी पूॅजी आने से निश्चितस्न्प से ‘ग्रोथ’ बढ ेगी और स्न्पया मजबूत होगा तो मॅंहगाई कम होगी जिसका लाभ आम आदमी को ही पहुॅंचेगा। इसलिये सरकार ने देश में आर्थिक सुधारों के तहत विदेशी निवेश बढ ाने के लिये अन्य देशों की तरह , ५१प्रतिशत मल्टीब्राण्ड रिटेल में,४९प्रति.एयरलाइन्स में,७४प्रति.सूचना प्रसारण में और ४९प्रतिशत पॉवर एकसचेंज में विदेशी कम्पनियों को भारत में कार्य करने की, कुछ शर्तों पर अनुमति दी है।
क्योकि हमारे पास तो अपनी बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये ही पर्याप्त धन नहीं है यथा सङक, पानी, बिजली आादि.., तो एयर लाइन्स, पावर, तकनीकी सूचना आदि के लिये पूॅजी कहीं से तो लाना ही पड ेगी या ऐसे ही वैश्वीकरण के,आर्थिक सुधार के वर्तमान युग में हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहेंगे? तो क्या सरकार के इस कदम पर, .निर्णय जनता को या देश के तटस्थ अर्थशास्न्नियों को विचार करने का अधिकार नहीं है कि सरकार का यह कदम उनके लिये हितकर है या अहितकर? पर राजनैतिक द्रष्टि से केवल वे विरोधी राजनैतिक दल कुछ ज्यादा हल्ला मचा रहे हैं जो अपनी सत्ता होने के दौरान इस कार्यक्रम को देश में लाना चाहते थे पर नहीं ला पाये थे।एक तरफ गुजरात में विदेशी पूॅजी लाने के लिये नरेन्द्र मोदी का सम्मान किया जा रहा है। बिहार में नीतीश विदेशी पूॅजी के लिये लालायित बैठे हैं क्योंकि बिना इसके इन्फ्रास्ट्क्चर खड ा ही नहीं किया जा सकता। इसलिये विरोध के लिये विरोध केवल चंद विरोधी राजनीति ही कर रहे हैं या वे व्यवसायी जिनकी दलाली पर रोक लगेगी, या वे जो किराने में ५० से ७०प्रतिशत तक अनियन्न्नित मुनाफाखोरी कर रहे हैं या जिन्होंने अपने यहॉ पहले से ही विदेशी ऐसे ही शोस्न्म खोल रखे हैं पर चिल्लाने से नहीं चूकते कि एफ.डी.आई. से देश लुट जायेगा।अभी कल ही एक चैनल बता रहा था कि किस तरह ५स्न् किलो किसान को देकर २५स्न् किलो टमाटर उपभोक्ताओं को बिचौलियों द्वारा बेचे जाते हैं? वे जानते हैं कि एफ.डी.आइ.से प्रतिस्पर्धा बढ ेगी और दलालों की मनमानी नहीं चलेगी।एफ.डी.आइ. से किसानों को ने केवल एक किलो टमाटर का दस स्न् मिलेगा वरन् उपभोक्ता को पन्द्रह स्न् किलो टमाटर मिलेगा, नुकसान होगा तो केवल दलालों को। अब इन्ही से पूॅछो कि भैया भोपाल,इन्दोर में विदेशी ‘वेस्ट प्राइज’ का करोंद वाला शोस्न्म कितने सालों से चल रहा है?उ.प्र. में वालमार्ट कयों ?अगर वह लूट रहा है तो पहले उसे निकालो न ? पर हिप्पोक्रेसी यही तो है कि करना कुछ और कहना कुछ और।
कौन जानता था कि राम से लेकर गॉंधी तक के इस देश में एक ऐसी लोकतांन्निक मिली जुली सरकारी व्यवस्था आयेगी जब जनहित के कार्यों का निर्णय भी, बिना किसी बहस के भीङतंन्न में मनमसोस कर लागू करने में सरकार को दॉंतों पसीना आयेगा? इसीलिये इन दिनों यह चर्चा ही जोरों पर है कि खुदरा बिक्रेताओं को बेराजगार कर विदेशी व्यापारियों को अपना पैसा सीधे इस व्यवसाय में लगाने की अनुमति देना भारत सरकार का अत्यंत घातक कदम है ं? बिना जाने, केवल अपनी राजनीति चमकाने के लिये चिल्लपौं मची है। एफ.डी.आइ.,विपक्ष ने गत वर्ष स्थगित करा दिया था,शासन को ।ुका दिया था और दूसरी ओर यह आरोप लगने लगा था कि सरकार काम नहीं करती? ,इतने दिन संसद को नहीं चलने दी और अब वे डिवेट की मॉंग करते हैं।सरकार ने संसद चलने देने के लिये यदि कोई प्रकरण कभी स्थगित कर दिया तो विपक्ष अपनी जीत सम।ने लगा।पर प्रश्न यह है कि एफ.डी.आइ.पर एक तो बहस हो ही नहीं सकी। न ही कोयले पर संसद का उपयोग बहस के लिये हुआ। संसद बंद कर क्या विपक्ष ने एक अच्छे अवसर को देश से नहीं छीन लिया ? वे कैसे बिना बहस के कह सकते हैं कि कोयला में किसी एजेंसी का अनुमानित कथ्य, सही में घपला है?,एफ.डी.आइ.जन हित में नहीं है? अब एक तरफ भारत सरकार भारी धन व्यय कर बड े बड े विापन अखबारों में छपवाकर, किसान सम्मेलन कर एफ.डी.आइ.के लाभ गिनायेगी, बहसें आयोजित कर सत्य सम।ाने के प्रयास होंगे तो दूसरी ओर बाजार बंद कराये जायेंगे ,मुनाफाखोर व्यापारी दबाव बनाने को आमादा होंगे और अनेक विपक्षी दल संसद को नहीं चलने देकर बाहर यह बताने में अपनी पूरीऋणात्मक उर्जा लगायेगे कि ख्ुादरा क्षेन्न में विदेशी निवेश की अनुमति दी गई तो इस क्षेन्न में काम कर रहे करोड ों लोग बेरोजगार हो जायेंगे,देश रसातल में चला जायेगा।
जिस कार्य को, विरोधी कभी खुद सत्ता में रहते लागू कराना चाहते थे अब वही बाहर रह कर जनता विरोधी कह ,इसे हटाना चाह रहे हैं। विरोध विषय का नहीं ,शासन को एक अच्छे कार्य का श्रेय न मिल जाये इसका विरोध है या बदनाम कर शासन गिर जाये ?।हल्ले से ऐसे लग रहा है कि एक बार फिर ईस्ट इ्रण्डिया कम्पनी भारत में आकर हमें गुलाम बनाने बाली है। यह कटु सत्य है कि आज वैश्वीकरण और उदारबाद की आर्थिक सुधार की परिस्थितियों में बिना विदेशी निवेश के ,केवल आतरिक पॅूजी प्रवाह से हम विकास के उत्कृष्ट लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकते। बेंक,इंश्योरेंस,टेलीकॉम में पहले एफ.डी.आई आई थी,तब भी एसी आशंकायें बताई जा रहीं थीं पर उससे भारत के बेंक बेहतर ही हुये हैं ,आदि आदि। पर बहस अगर मुद्दों पर हो तो कुछ सम।ने की बात भी बने और तस्वीर साफ हो क्योंकि जिन देशों में यह अनुंमति दी गई है न तो वे गुलाम हुये हैं न लुट गए हैं। पर बहस हो कहॉं ? संसद तो चलने नहीं दी जायेगी।जिदबाजी पर दोनों पक्ष अडे. रहेंगे तो जनता केवल भावनात्मक स्न्प से भ्रमित होगी और देश को लाभ की बजाय क्षति अधिक होगी। क्योंकि देशी बनाम विदेशी का संवेदनात्मक मामला बनाकर लोग बिना एफ.डी.आई सम।े विरोध करने के आदी हैं या फिर भले इसे मान्न ५३ शहरों में पहले लागू करना हो,हॉं है तो नीतिगत फैसला। दूसरी ओर विपक्षी बिना मनन किये तरह तरह के काल्पनिक आरोप लगाने लगे हैं।सरकार को अल्टीमेटम देकर ।ुकाना चाहते हैं।इतना ही नहीं शासन के सहयोगी एक दो घटक तक रंग बदल चुके हैं। हालॉंकि अगर केन्द्र ने निर्णय कर ही लिया है तो प्रदेश सरकारें अपना हानि-लाभ विचार कर इसके कार्यान्वयन करने के लिये स्वतंन्न हैं इसलिये विरोध करने का तो कोई औचित्य ही नहीं रहा।केन्द्र किसी पर यह थोप नहीं रहा है। विकल्प आपके हाथों में है ,परेशान नहीं हों।
हों। इसलिये बिना विचारे अनाप शनाप वक्तव्य देना कहॉं तक उचित है?पर विरोध मानें विरोध? एक मुख्यमंन्नी जो अपनी मूर्ति स्वयं लगवाकर स्वंय को माला पहना कर, दलितों का कथित हित साधने में लगी रहीं और राहुल गॉंधी के दौरों से बेहद परेशान थीं, ने तो यहॉं तक कह दिया था कि विदेशी कम्पनियों के मालिक राहुल गॉंधी के दोस्त हैं इसलिये उन्हें लाभ पहुॅंचाने के लिये केन्द्र सरकार यह कार्य कर रही है। जब कि अभी यही नहीं मालूम कि कितनी और कौन कम्पनियॉं भारत में निवेश करेंगीं?एक और मुख्यमंन्नी ने कहा कि अपने प्रदेश में वे विदेशियों को घुसने नहीं देंगे जब कि वही मुख्यमंन्नी बहुत पहले ही अपनी राजधानी में विदेशी ‘शॉपिंग मॉल’ खुलवा चुके है। एक पूर्व असफल मुख्य मंन्नी ने घोषणा की थी कि यदि उक्त बालमार्ट का मॉल खुला तो वह स्वंय आग लगायेंगे।अब.बताइये इस माहौल में जनता कैसे वास्तविकता.सम।े ? प्रथम द्रष्टया यह तो सम। में आता है कि खुदरा व्यवसाय में करोङों लोग रोजगार कर,अपनी रोजी रोटी चला रहे हैं। अब जब विदेशी कम्पनियॉं यहॉं उक्त कार्य करेंगी तो देशी व्यवसायी उनके सामने इसलिये नहीं टिक पायेंगे कि न तो विदेशियों की भॉंति भारी पूॅजी लगाकर भारतीय छोटे व्यवसायी कच्चामाल या उत्पादों का संग्रहण अधिक दिनों के लिये खरीद कर रख सकेंगे,न बड े बड े विापनों का प्रदर्शन कर सकेंग,े न ही रंग विरंगी आकर्षक पैकिंग से नई पीढि यों को आकर्षित कर पायेंगे,न ही विदेशी कन्याओं को उॅची तनख्वाहें देकर ग्राहकों को खींच सकेगे और न ही एकड ों भूखण्डों में शानदार बिल्डिंगें बनाकर लिफ्टों में,स्वमेव सरकती सीढि यों में, लोगों को आधुनिक गिफ्टें दे सकेंगे।
यह भी सही है कि प्रारंभ में विदेशी मॉल सस्तें में ग्राहकों को सामग्री उपलब्ध करायेंगे,रिलायंश फ्रेश जैसे,.. और इनका अभ्यस्त होने पर अपना रंग दिखाना शुस्न् कर उपभोक्ताओं से अधिक लाभ लेना प्रारंभ करेंगे,किसानों की उपज का मनमाना रेट देंगे ही,क्योंकि एक तो वे यहॉं लाभ कमाने के लिये भारी पूॅंजी लगा कर धंधा करने आ रहे हैं सेवा करने नहीं।दूसरे विापनों, पैकिगों, सैल्समेनों की उॅंची तनख्वाहों,मॉंल के लिये मंहंगी जमीनें खरीदने आदि आदि का पैसा निकालेंगे तो क्रेता की,यानी हमारी ही जेब से। फिर अनुमान है कि यही सामान हमें इतना मंहगा पङेगा कि जिसकी कल्पना आज नहीं की जा सकती यह भी सही है कि एक करोड ों लोगों को नौकरियॉं मिलेंगी पर चार करोड से अधिक उन छोटे दुकानदारों को बेरोजगार करके जो न तो तकनीकी कुशल हैं और न बिना पूॅंजी के अकुशल होने के कारण, अन्य कोई कार्य कर सकते हैं।प्रभावितों की संख्या लगभग बीस करोड तक हो सकती है तब बेरोजगारी से इस देश का जो हॉल होगा वह भी अकल्पनीय है। आखिर अमेरिका में बेरोजगारी १५प्रतिशत बढ ने का एक कारण यह भी है कि वहॉं विदेशी कम्पनियों को खुली छूट दी गई।
तो हमें कुछ तो अन्य देशों से सीखना चाहिये।थाईलेण्ड में तो सुना है कि विदेशियों को निकालने तक का निर्णय लेना पङा।कमोवेश यही हाल अन्य देशों का हो रहा है।अब चूॅकि बराक ओबामा गत भारत यान्ना में कह गये थे कि जिन्हें हमने अपनी अर्थव्यवस्था खुली छोड ी है वे बाजार हमें भी खुलना चाहिये तो क्या इसीलिये हम आधुनिक होने के लिये भारतीयों को बेरोजगारी की आग में ।ोंक दें ?शासन द्वारा सम।ाया जा रहा है कि कृषि एवं फलों की उपजों/ उत्पादों का बहुत भाग नष्ट होने या सड ने से बचाया जा सकेगा। बिचौलिये समाप्त होंगे जिससे उपभोक्ता को लाभ होगा। नई तकनीक आयेगी। शीतग्रह बढ ेंगे। प्रश्न केवल यही है तो क्या यह कार्य अपने देश के लोगों से नहीं कराया जा सकता?यह सही है कि २००९ की तुलना में हमारे यहॉं विदेशी निवेष इन दिनों कम हुआ है।विदेशी कम्पनियॉं हमारी सरकार को सैकड ों करोड स्न् के निवेश का प्रलोभन दे रहीं हैं तो क्या यह निवेश बिना लघु व्यापारियों के बेराजगार किये बिना, अन्य तकनीकी क्षेन्नों में निवेश से नहीं किया जा सकता? भारत की प्राचीन परम्परा हाट बजारों की रही है उन्हें बीमार करके फिर बुनकरों आदि जैसा पेकेज देना पड े या हमारे उत्पादों की जगह विदेशी उत्पाद यहॉं भर जाये ंतो हमारे कुटीर उधोगों का क्या होगा? एक बहुत पुराना उदाहरण हमारे पूर्वज सुनाया करते थे कि पहले भारतीयों में चाय पीने की आदत नहीं थी,तब अंग्रेजों ने मुफ्त में चाय पिला पिला कर हमें इसका आदी बनाया था। अब हम विश्व के सबसे बड े चाय उपभोक्ता बन गये हैं।
जिस चाय के पीने से स्वास्थ को हानि ही होती है,कोई फायदा नहीं, अब हम उसके बिना रह नहीं सकते और जिसके निर्यात से जो हमें भारी विदेशी मुद्रा मिलती,वह हानि तो हो ही रही वरन् अब वही चाय पॉंचसौ स्न् किलो लेकर हमें पीनी पङ रही है। यही स्थिति कोल्ड डि्ंक्स की है।जब से दूध ब्राण्डेड हुआ है भले देशी लोगों ने किया हो तो न केवल मंहगा होता जा रहा है वरन् पालतू पशु के सारे लाभों से हम वंचित हो शुद्घ ,सस्ते और स्वास्थवर्धक दूध,दही,घी के लाले पड गये। कृषि और चमड ा का कुटीर उधोग सब ठप्प हो गया है।विापनों की चमक दमक ने हमें भौतिकवादी विकास के नाम पर, शहरीकरण ने गॉंव निर्जन कर ,हमें पेटेल पर आश्रित कर कारों से स्टेटस बनाने का प्रदर्शनकारी बना ,तेल के देशों का गुलाम बना दिया है। इत्यादि… समय रहते हमें चेतना चाहिये।दरअसल भारत की पारम्परिक स्थितियॉं अन्य देशों से नितॉंत भिन्न हैं। यहॉं का सोच केवल अर्थ केन्द्रित न होकर परस्पर समभाव का है।इसलिये विकसित बनने के नाम पर , आधुनिक प्रतिस्पर्धा में हम पाश्चात्य की तरह दिवालिये बनने की ओर कहीं न मुड ने लगें ?अपने पॉंवों पर खुद कुल्हाड ी न मारें? अतः सतर्क रहने की आश्यकता है।विदेशी निवेश अवश्य हो पर देशवासियों को बेरोजगार करने की शर्त पर नहीं।हम अपने सांस्कृतिक धरातल पर ही सबको साथ लेकर आगे बढ ें और सशक्त बनें तो बेहतर होगा। हॉलाकि हम इतने बड े देश में अपने श्रोतों से सड क,बिजली,पानी जैसी प्राथमिक समस्यायें ही पहले सुल।ा लें तब अन्य मुद्दों पर विचार करें। इसलिये किसानों की जिन्सों को सुरक्षित,संरक्षित और विकसित,कोल्ड स्टोरेज,प्रोसेसंिग यूनिट डालने आादि एवं उपभोक्ता को सस्ते में सामग्री मिलने,विचौलिया हटाने के निये एफ.डी.आई. आवश्यक प्रतीत होता है।
*******
*Disclaimer: The views expressed by the author in this article are his own and do not necessarily reflect the views of INVC.
75 चित्रगुप्त नगर,
कोटरा,भोपाल-3
09826015643