‘‘कहाँ खो गयो गाँव’’
जीवन के खटराग झेलते, मन को दिया विराम।
बहुत दिनों के बाद आज मैं पहुंचा अपने गाँव।।
इत उत देखा जांचा परखा मिला न अपना गाँव।
ताल तलैया सब गायब थे कहां खो गया गाँव।।
बचपन में छुप-छुप जहां खेले मिला न वो खलिहान।
मड़ै अनाज वही खेतन मा गायब है खलिहान।।
अमिया, जमुनी, टपका, गूलर सबका है अवसान।
नंगी धरती माँ की छाती तपता है असमान।।
जिन पेड़ों पर लटक-लटक कर खेला लपचू डंडा।
नहीं निशानी अब कुछ बाकी ना काका का डंडा।।
सभी के साथ स्वयं पीते थे माठा गाढ़ा दादा।
अब ना भैंस रही मोहरे पर सिर खुजलायें दादा।।
कमी नही थी दूध दही की था एक ऐसा गाँव।
इत उत देखा जांचा परखा मिला न अपना गाँव।।
ताल तलैया सब गायब थे कहां खो गया गाँव।
जिन गलियों में धूल में खेले डांट पिलाई अम्मा ने।।
पोंछ-पाँछ के फिर आंचल से गोद बिठाया अम्मा ने।
दे दी नेक सलाहें गिन-गिन तुम अच्छा ही करना।
रोज मदरसे जाते रहना नागा कभी ना करना।।
जहां गड़ा था कभी का कोल्हू पेरी जाती ईख।
पुलिस दरोगा कुर्क कर गया धरती मारे चीख।।
शक्कर मिल भी चल गई अब तो दाम बढ़ गया गन्ने का।
पर खांड नाब ना ढूंढे मिलत मजा किरकिरा गन्ने का।।
आन, मान, मर्यादा गायब है यह कैसा गाँव।
गाय, बैल, घसियारे गायब ना बरगद की छांव।।
इत उत देखा जांचा परखा मिला न अपना गाँव।
ताल तलैया सब गायब थे कहां खो गया गाँव।।
सभी फैसले चबूतरे पर होते थे निज गाँव।
बूढ़े काका की बातों को धरते थे सिर पांव।।
अब तो थाना कोर्ट कचेहरी लूट रहे है गाँव।
इत उत देखा जांचा परखा मिला न अपना गाँव।।
ताल तलैया सब गायब थे कहां खो गया गाँव।
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रामदीन,
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