एक साल पहले आम चुनाव में नरेंद्र मोदी ने मनमोहनसिंह सरकार के उदारीकरण के नीतियों, आक्रमक पूँजीवाद सेउपजी निराशाओं और गुस्से को भुनाते हुए अपने आप को एक विकल्प के रूप में पेश किया था,देश की जनता ने भी उन्हें हाथोंहाथ लिया था,अब जबकि मोदी सरकार के एक साल पूरे हो गये हैं, यह सवाल पूछा जा सकता है कि क्या मनमोहन और मोदी सरकार में कोई फर्क है या दोनों के माडल एक है बस चेहरे बदल गये हैं? निश्चित रूप से कुछ बाहरी फर्क तो दिखाई हीपड़ रहे हैं,जहाँ पहले पी.एम.ओ. में बैठे केंद्रीय शख्स को छोड़ कर पूरा मंत्रिमंडल सत्ता को एन्जॉय करता हुआ दिखाई पड़ता था अब अकेले केंद्रीय शख्स ही सत्ता को एन्जॉय करता हुआ नजर आ रहा है, हमारे पहले के प्रधानमंत्री यदा-कदा ही तकरीर करते हुए दिखाई पड़ते थे,जबकि अब के प्रधानमंत्री हमेशा भाषण के मोड में रहते हैं और कोई मौका हाथ से जाने नहीं देते हैं।दोनों सरकारों के मुखियाओं के फैशन सेन्स और सूट-बूट में भी खासा फर्क है। हमारे मौजूदा प्रधानमंत्री एक बेहतरीन सेल्समैन हैं जो पिछले एक साल में दुनिया भर में घूम घूम करमेक इन इंडियाका नारा बुलंद कर रहे हैं। एक और फर्क ब्रांडिंग का है, मोदी प्रधानमंत्री के साथ एक “ब्रांड” भी हैं, सारा जोर इसी ब्रांड को बचाए और बनाये रखने में लगाया जा रहा है, मनमोहनसिंह के मामले में ऐसा नहीं था।
लेकिन मनमोहनसिंह के नीतियों और निकम्मेपन से त्रस्त जनता ने इन सब बदलावों के लिए थोड़े ही वोट दिया था, वायदे भी कुछ और ही किये गये थे, पलक झपकते ही सुशासन, विकास,महंगाई कम करने,भ्रष्टाचार के खात्मे,काला धन वापस लाने,सबको साथ लेकर विकास करने, नवजवानों को रोजगार दिलाने जैसे भारी भरकम वायदे किये गये थे।यह वायदे पूरे हुए हैं इसपर तो अरुण शौरी तक को संदेह हैं जिन्होंने करन थापर के साथ अपने इंटरव्यू में मोदी सरकार की आलोचना करते हुए कहा था कि यह सरकार सिर्फ हेडलाइंस में बने रहने के लिए काम कर रही है,जमीनपर कुछ नहीं बदला है।सारेवायदे ताक पे रख दिए गये लगते हैं और संघ के उन अनकहे वायदों को सिस्टमिक तरीके से एजेंडे परलाया जा रहा है जो भारतीयों में विभाजन,भेद पैदा करने वाले और एक भारत के आईडिया के खिलाफ हैं।अब इस फरेब का असर भी दिखाई पड़ने लगा है,चुनाव प्रचार अभियान में विकास औरसुशासन को लेकर गढ़े गये नए- नए जुमले और बदलाव,विकास और समृद्धि लाने के आसमानी नारे भारी पड़ते नजर आ रहे है, पस्त पड़ा विपक्ष अपने आप को संभाल कर अब गुर्राने लगा है।कल तक चूका हुआ मान लिए गये नेता अचानक प्रासंगिक नजरआनेलगे हैं और मोदी सरकार की सब से बड़ी पूँजी “ब्रांड मोदी” की लोकप्रियता में भी गिरावट हो रही है। इंडिया टुडे के सर्वे के अनुसार पिछले साल अगस्त में जहाँ लोगों 57 प्रतिशत लोगों ने मोदी को प्रधानमंत्री पद लिए योग्य ठहराया था वहीँ इस साल अप्रेल में यह दर घट कर 36 प्रतिशत रह गयी है।
मोदी सरकारअपने एक साल पूरे होने पर जश्न के मूड में है जिसे “जनकल्याण पर्व”नाम दिया गया है, यह 26 मई से शुरू होगा और 1 जून तक चलेगा।इसके जरिए मंत्री, पार्टी के सांसद और वरिष्ठ पदाधिकारी पूरे देश में गरीबों,कमजोर वर्गो और किसानों के लिए चलाई जा रही कल्याण योजनाओं के बारे में लोगों को बतायेंगे। इधर राहुल गाँधी आरोप लगा रहे हैं कि मोदी राज में किसान और मजदूर घबराए हुए हैं क्योंकि उद्योगपतियों के लिए उनकी जमीन छीनी जा रही है और मोदी सरकार कारोबारियों का कर्ज चुका रहे हैं जिन्होंने उन्हें दिल्ली जीतने में मदद की थी।राहुल के इस आरोप को झुठलाया भी नहीं जा सकता है।पिछले एक साल में मोदी सरकार की नीतियां कारपोरेट को फायदा पहुँचाने वाली रही है और खुद मोदीअडानीऔर अंबानी जैसे लोगों के साथ ज्यादा दिखाई दिए हैं।जब से मोदी प्रधानमंत्री बने हैं, अडानी की कंपनी की पूंजी में जबरदस्त बढ़ोतरी हुई है। इधर मोदी सरकार के इसजश्न में शामिल होने के लिए गरीब, मध्यवर्ग, किसानऔर अल्पसंख्यकों को पास कोई वजह नहीं है।मोदी सरकार सोशल सेक्टर में लगातार कटौती कर रही है, चालू वित्त वर्ष में बच्चों और महिलाओं से सम्बंधित योजनाओं केआवंटन में50 प्रतिशत कमी कर दी गयी है। गरीबों के लिए सब्सिडी को बोझ बताया जा रहा है, खुद प्रधानमंत्री मनरेगा जैसी योजनाओं का मजाक उड़ा रहे हैं,किसानों से भूमि अधिग्रहण के जरिये जबरन जमीन छीनने को सरकार ने अपना जिद बना लिया है, श्रम कानूनोंमें बदलाव के जरिये मजदूरों को और कमजोर बनाया जा रहा है, अल्पसंख्यक डरे हुए हैं और उनकाभरोसा टूट रहा है।अलग तरीके सेहुकूमत करने, पेश आने और अपने अभिभावक आर.एस.एस. को उसके विभाजनकारी सामाजिक एजेंडे को लागू करने में छूट को एकतरफ रख देंतो मनमोहन और मोदी की सरकार में कोई फर्क नहीं बचेगा और वास्तविक रूप में मोदी मनमोहन माडल का विकल्प नहीं विस्तार दिखाई पडेंगा, अब जबकि बदलाव का ज्वार शांत पड़ चूका है और परिवर्तन के तथाकथित नायकों का रंग उतर चूका है सारीआकांक्षायें और उम्मीदेंनिराशायें बन के सामने आने लगी हैं।
नरेन्द्र मोदी ने अपनी सरकार के एक साल पूरे होने के दिन शंघाई में भारतीयों को तकरीबन “इलेक्शन मूड” में संबोधित करते हुएअपनी जीत को याद किया और कहा कि उस समय लोगों के मन में एक ही बात थी कि ‘दुख भरे दिन बीते रे भइया‘ और इसी को ध्यान में रखकर वोट डाला और गरीब मां के बेटे को पूर्ण बहुमत देकर प्रधानमंत्री बना दिया।जरा याद कीजिये पिछले लोकसभा चुनाव से पहले नरेंद्र मोदी,राहुल गाँधी को शहजादा कह कर संबोधित करते थे और अपने आप को एक आमचाय वाले के तौर पर पेश करते थे, अब वही राहुल गाँधी मोदी सरकार को सूट-बूट की सरकार कह रहे हैं,खेल वही है बस खिलाडियों ने एक दुसरे से अपनी जगह बदल ली है,एक साल बाद अबराहुल मोदी सरकार पर लगातार हमले किए जा रहे हैं और कांग्रेस को किसानों,मजदूरों की हितेषी के रूप में पेश करने की कोशिश रहे हैं। वे बहुत ही आक्रमकतरीके से सरकार के कॉर्पोरेट समर्थक नीतियों की आलोचना कर रहे हैं, उनका ‘सूटबूट की सरकार’ का जुमला तो लोगों के जुबान पर भी चढ़ गया है। इसके जवाब में मोदी सरकार के “इकलौते ताकतवर मंत्री” अरुणजेटली कांग्रेस पार्टी को ‘विकास विरोधी’ करार देते हुए कहते हैं कि ‘अगर कांग्रेस नेताओं के कुछ भाषणों का विश्लेषण किया जाए तो वे कार्ल मार्क्स से भी ज्यादा वामपंथी लगते हैं।यह वही कांग्रेस पार्टी है जिन्होंने इस देश में उदारवादी नीतियों की नीवं डाली है, पिछले दस सालों में यूपीए शासन के दौरान कांग्रेसी जेटली की भाषा बोलते हुए नज़र आते थे और रिटेल सेक्टर में विदेशी निवेश जैसे मुद्दों पर जेटली की पार्टी वामपंथियों के साथ सड़कों पर नजर आती थी।
दरअसल इस देश में विकास काएक ही माडल है जिसे सियासत के मैदान में सभी पार्टियाँ फूटबाल की तरह एक दूसरे तक पास करती हैं और विपक्ष में आने के बाद इसी की आलोचन करते हुए ठीक इसके उलट नीतियों की वकालत करने लगती हैं, यहाँ तक कि वामपंथी पार्टियां भी इन सबसे अछूती नहीं है, वे भी कोई वैकल्पिक माडल पेश नहीं कर पा रही हैं,अरविन्द केजरीवाल और आम आदमी पार्टी तो इसके क्लासिक उदहारण हैं ही, कुल मिलकर विरोध तोहै लेकिन विकल्प नजर नहीं आता।आर्थिक नीतियों के मामले में मनमोहन से लेकर मोदी,समाजवादी और वामपंथी तक सब सेम –सेम नज़र आ रहे हैं। ऐसे में विपक्ष में रहते हुए हर पार्टी बदलाव का ढोल बजाती है, पूंजीवादी परस्त नीतियों से त्रस्त जनता उनकी इस धुन पर नाचतीभीहै लेकिनअंत में बदलता कुछ नहीं होता है। फिलहाल जनता के पास इस राजनीतिक फरेब का कोई विकल्प नहीं है।
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जावेद अनीस
लेखक ,रिसर्चस्कालर ,सामाजिक कार्यकर्ता
लेखक रिसर्चस्कालर और सामाजिक कार्यकर्ता हैं, रिसर्चस्कालर वे मदरसा आधुनिकरण पर काम कर रहे , उन्होंने अपनी पढाई दिल्ली के जामिया मिल्लिया इस्लामिया से पूरी की है पिछले सात सालों से विभिन्न सामाजिक संगठनों के साथ जुड़ कर बच्चों, अल्पसंख्यकों शहरी गरीबों और और सामाजिक सौहार्द के मुद्दों पर काम कर रहे हैं, विकास और सामाजिक मुद्दों पर कई रिसर्च कर चुके हैं, और वर्तमान में भी यह सिलसिला जारी है !
जावेद नियमित रूप से सामाजिक , राजनैतिक और विकास मुद्दों पर विभन्न समाचारपत्रों , पत्रिकाओं, ब्लॉग और वेबसाइट में स्तंभकार के रूप में लेखन भी करते हैं !
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