रितु शर्मा की कविताएँ
शिव कुमार झा टिल्लू की टिप्पणी : श्रीमती रितु शर्मा हिंदी साहित्य के अंतर्जाल प्रचार माध्यम में एक परिचित कवयित्री हैं .इनकी कविताओं का एक अनोखा सबल पक्ष है ममता का अद्भुत उद्बोधन . वर्तमान उत्तरआधुनिक साहित्य में समालोचक से लेकर रचनाकार , यहाँ तक की कतिपय पाठक भी देशकाल की वर्तमान दशा और उसके उत्थान मात्र को ” सुधि-साहित्य ” की संज्ञा दे रहे हैं. यह उचित भी है . आवश्यकतायें ही अनुसंधान का सृजन करती है. लेकिन यह भी देखना होगा की युग कितने भी आगे चले जाएँ ” भाव ” का आरोहण कभी समाप्त नहीं हो सकता. इनकी कविताओं में भाव का अनर्गल अश्रु- उद्दीपन नहीं है .सारी अभिव्यंजना मौलिक लगती है, जिसमे विचारों की सार्थकता है . ये वर्तमान बाल साहित्यिक परिपेक्ष्य से ऊपर उठकर सोचती हैं , उचित भी है आज जब साक्षरता का मतलब अक्षर का ज्ञान ही नहीं दैनन्दिनी में प्रयुक्त सामाजिक , सांस्कृतिक , धार्मिक , नैतिक से लेकर तकनीकी शिक्षा की मौलिक जानकारी आवश्यक हो गयी है . तो पुरा- अर्वाचीन ” लोरी ” मात्र को ही बाल साहित्य क्यों माना जाय ? इसलिए इनकी बाल कवितायें अभी तो शिक्षित संतान की मनोदशा जैसी दिखती है, लेकिन भविष्य में इसे बालरूपक माना ही जाएगा …..कभी देखना तुम
चांदनी रात में
मेरी आँखों में
सपने नही
पत्थर तैरते हैं …
गूंगे बहरे बेजान पत्थर ( टिप्पणीकार , शिव कुमार झा टिल्लू , जमशेदपुर )
खामोशियाँ
जब खामोशियाँ
समझ ली जाती है
इक मौन !
हम भी
चुराते हैं आँख
ओरो की तरह
और-प्रयास करते हैं
पी जाने का
अगस्त्य की तरह
घुटन का समंदर
एक ही घूँट में,
समझ लेते हैं
फैले सन्नाटे को ही
सच
फेर लेते हैं मुंह
अनिवार्य प्रश्नों से
तब-
अनावश्यक हो जाती है
क्रान्तिया
और बलिदान
मानव का मानव हित
यह धरा लगती है फिर
एक
ज़िंदा लाश
और हम मनाते से
मातम दोहराते हैं
अभिशापो को।
वो ! लड़की और धागे
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वो ! लड़की
अपने घर के कच्चे आँगन में
इस तरह पूरती है धागे
जैसे हो हालात,
उसका हर टांका
लगता है इक दुआ
और फलित हो जाते हैं भाव,
सतरंगी धागे देते हैं
अहसास
दुआओ के रंगों का
लगता है रब
खुद रंग भर देता है
और लड़की
हो जाती है
भावो का इन्द्रधनुष,
उसके हाथ
बांधे है मन की डोर
वो कभी तो आयेगा
किसी धागे का रंग लिए
और-लड़की
गुनगुना उठेगी
पहाडिन का एक गीत
और मोहबत
हो जायेगी जिन्दा
इन वादियों में
लड़की के
सतरंगी धागों के साथ ।
..सुकून
……….
कई बार
अंदर का अंतर्नाद
बाँध तोड बह जाता है
चीखें
तेज़ कटार सी
छाती में उतर जाती हैं.
हो जाती हू बेचैन
करती हू इंतज़ार
साँझ की
तनहाई का
और
बिछा देती हू
खामोशी की
सफेद चादर
जिसके
हरेक फंदे को
बुना है मैंने
सुकून के धागे से
टाँके हैं
खुश्बुओं के फूल
चारों ओर से लपेट
लेट जाती हू
आँखे मूंदे
तब लौट जाती हैं
लहरें वापिस
ये सुकून की
खामोशी है
या
खामोशी का सुकून ??
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माँ मुझे अक्सर डांटती
माँ मुझे अक्सर डांटती
और कहती …
“ए बावली दिन रात
किताबो में सर दिए
पढती लिखती रहती हैं
सुन
आँखे पत्थर की हो जाती हैं
फिर कहती हो नींद नही आती ..”
ए माँ ..मेरी भोली माँ …
काश !तुमने देख लिए होते
मेरी आँखों में
मेरे पत्थर हुए सपने …..
तो फिर रातो को
मेरे जागने का सबब जान जाती ..
कभी देखना तुम
चांदनी रात में
मेरी आँखों में
सपने नही
पत्थर तैरते हैं …
गूंगे बहरे बेजान पत्थर …..!!!
रात
बाते करते करते
माँ सो गयी
फिर कायनात
माँ बन गयी
और भर्ती रही हुंकार
माँ समझती
मेरी हसरते
पंख दिए उड़ने को
और दी हिदायत
बाहर ना जाने की ….
फिर कायनात की
आयी हुंकार
खोल अपने पंख
और उड़ जा
तुम्हारा ही हैं
सारा ब्रह्माड….!!
सम्प्रति – शिक्षिका
मन के भावो को उकेरना अच्छा लगता हैं
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