**वैश्विक सद्भाव को असहिष्णुता से सबसे बड़ा खतरा

*तनवीर जाफरी

वैश्विक स्तर पर कथित रूप से आतंकवाद के खिलाफ युद्ध लड़ रहे अमेरिका ने अब वैश्विक आतंकवाद के अतिरिक्त इस्लामी देशों में फैली असहिष्णुता की भावना को विश्व के लिए एक बड़ा संकट बताया है। अमेरिकी विदेशमंत्री हिलेरी क्लिंटन ने कई इस्लामी देशों में अल्पसंख्यकों के प्रति बढ़ती हुई असहिष्णुता पर चिंता ज़ाहिर की है। अमेरिकी कांग्रेस की पिछले दिनों हुई बैठक में क्लिंटन ने कहा कि इस प्रकार भावना रखना विश्व की बड़ी समस्याओं में से एक है। धार्मिक सहिष्णुता की स्वीकार्यता की ज़रूरत महसूस करते हुए उन्होंने कहा कि ऐसे कई देशों में असहिष्णुशील मुस्लिम केवल गैर मुस्लिमों को ही नहीं बल्कि मुस्लिम जगत से जुड़े अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को भी नहीं बख्शते। गोया उन्होंने साफतौर पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता व धार्मिक स्वतंत्रता के मध्य समीकरण एवं सामंजस्य स्थापित करने की ज़रूरत पर ज़ोर दिया। हिलेरी क्लिंटन द्वारा व्यक्त की गई उक्त चिंता को दुनिया के समझने के दो पहलू हो सकते हैं। एक तो यह कि यह उसी अमेरिका के विदेश मंत्री का वक्तव्य है जोकि आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध के बहाने सभ्यता के संघर्ष का स्वयंभू सिपहसालार बना हुआ है। और दूसरे यह कि आखिर हिलेरी क्लिंटन द्वारा लगाए गए आरोपों में वास्तविकता कितनी है। असहिष्णुता की ऐसी मिसालों की यदि विस्तार से बात की जाए तो निश्चित रूप से इन पर कई बड़े से बड़े ग्रंथ लिखे जा सकते हैं। परंतु पाकिस्तान व अफगानिस्तान जैसे दो पड़ोसी देशों में घटने वाली कुछ ताज़ातरीन घटनाएं ही अपने-आप में यह समझ पाने के लिए काफी हैं कि हिलेरी क्लिंटन द्वारा लगाए जाने वाले आरोप केवल आरोप ही नहीं बल्कि यह एक हकीकत भी हैं।

पिछले दिनों पाकिस्तान से यह खबर आई कि कुछ कट्टरपंथी आतंकी संगठनों द्वारा वहां के रहने वाले सिख समुदाय के लोगों को जज़िया कर अदा किए जाने की धमकी दी गई। कई सिख परिवार के सदस्यों से जज़िया के नाम पर जबरन पैसे वसूले भी गए। धर्म के नाम पर अल्पसंख्यक पाक नागरिकों से इस प्रकार का सौतेला व्यवहार आखिर धार्मिक असहिष्णुता नहीं तो और क्या है? इसी प्रकार भारतीय समाचार पत्रों तथा टी वी चौनल्स के माध्यम से प्रायरूऐसी खबरंे सुनाई देती हैं जिनसे यह पता चलता है कि पाकिस्तान से भारत घूमने-फिरने आए हिंदू समुदाय के सदस्य यहां से वापस पाकिस्तान नहीं जाना चाहते। इसका जो कारण वे लोग बताते हैं उन्हें सुनकर यह साफतौर पर मालूम होता है कि पाकिस्तान अपने देश में रहने वाले अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों के हितों की पूरी तरह रक्षा नहीं कर पा रहा है। वहां के मुस्लिम समाज के अल्पसंख्यक वर्ग शिया तथा ईसाईयों के साथ भी भेदभाव बरते जाने, उनपर ज़ुल्म किए जाने तथा उन्हें आत्मघाती हमलों का शिकार बनाए जाने की खबरें तो अक्सर आती रहती हैं। इस प्रकार की घटनाओं पर नियंत्रण न कर पाना पाकिस्तान सरकार की नाकामी को साफतौर पर दर्शाता है। ज़ाहिर है असहिष्णुशीलता की इसी प्रकार की घटनाएं दुनिया को यह सोचने के लिए मजबूर कर देती हैं कि सहिष्णुता की कमी वास्तव में कहीं इस्लामी धार्मिक शिक्षाओं की वजह से तो नहीं है?

इसी वर्ष जनवरी माह में पाकिस्तान में पंजाब प्रांत के गवर्नर सलमान तासीर की हत्या के विभिन्न पहलू पाकिस्तान में व्याप्त असहिष्णुता की भावना के जीवंत उदाहरण हैं। पाकिस्तान में ईश निंदा कानून की समीक्षा किए जाने की सलमान तासीर की सलाह को सहन न करते हुए उनके ही अंगरक्षक मुमताज़ कादरी द्वारा उनकी हत्या किया जाना असहिष्णुता का यह कितना बड़ा उदाहरण है। क्या इस्लामी शिक्षाएं इस बात की इजाज़त देती हैं कि जिसकी रक्षा के लिए किसी को तैनात किया गया हो वह उसी की हत्या कर डाले? दूसरा पहलू-हत्यारा मुमताज़ कादरी जब अदालत पहुंचता है तो उस इस्लाम व मानवता के दुश्मन अपराधी पर वकीलों द्वारा फूलों की बारिश की जाती है। गोया सहिष्णुता की धज्जियां उड़ाने वाले का कितना बड़ा सम्मान और वह भी अपने-आप को पढ़े-लिखे व बुद्धिजीवी बताने वाले वर्ग के द्वारा? तीसरा पहलू-हत्यारा अपना जुर्म कुबूल करता है और जज परवेज़ अली शाह न्याय करते हुए उसे सज़ा-ए-मौत देने की घोषणा करते हैं। परंतु उस सज़ा देने वाले जस्टिस शाह को जान से मारे जाने की धमकियां इसी असहिष्णुशील वर्ग द्वारा दी जाती हैं। और मजबूर होकर जस्टिस शाह को देश छोडक़र सऊदी अरब में जाकर पनाह लेनी पड़ती है। गोया इस एक घटना में और वह भी किसी आम आदमी की नहीं बल्कि एक गवर्नर जैसे अति विशिष्ट व्यक्ति की हत्या से जुड़े मामले में असहिष्णुता का ऐसा नंगा नाच जोकि पाकिस्तान में बिल्कुल जंगलराज की तरह चल रहा हो, क्या यह घटना पूरे विश्व का ध्यान घोर असहिष्णुता का केंद्र बनते जा रहे पाकिस्तान की ओर खींचने के लिए काफी नहीं है?

उधर दूसरे पड़ोसी देश अफगानिस्तान की भी तालिबानों ने यही हालत बना रखी है। खबरों के अनुसार तालिबानों ने पूरे अफगानिस्तान में गत् दस वर्षों के अंदर जितने भी ईसाई गिरजाघर थे लगभग सभी नष्ट कर डाले। वहां भी अल्पसंख्यक समुदाय से जुड़े लोगों को धार्मिक स्वतंत्रता के साथ रहने नहीं दिया जाता। इन तालिबानी ताकतों ने भी अपनी धार्मिक असहिष्णुता का प्रमाण देते हुए पूरी दुनिया का ध्यान उस समय अपनी ओर आकर्षित किया था जबकि इन्होंने बामियान प्रांत में पत्थरों की विशाल चट्टानों में गढ़ी गई बुद्धा की विशालकाय ऐतिहासिक मूर्तियों को तोपें चलाकर ध्वस्त कर दिया था। उनका कहना था कि अफगास्तिान में मूर्तियों का कोई स्थान नहीं है। इन तालिबानी ताकतों ने केवल शांतिदूत गौतम बुद्ध की मूर्तियों को ही ध्वस्त नहीं किया बल्कि इसके बाद उन्होंने सैकड़ों गायों की हत्या कर सैकड़ों वर्षों तक अफगानिस्तान में बुद्ध की मूर्तियां मौजूद रहने के लिए पश्चाताप किए जाने जैसा पाखंड भी किया। स्कूल,संगीत, महिलाओं का बाज़ार में निकलना,खेल-कूद, टी वी तथा फिल्म आदि देखने का यह तालिबानी ताकतें किस कद्र विरोध करती हैं यह खबरें तो दुनिया समय-समय पर सुनती ही रहती है।

उपरोक्त घटनाएं निश्चित रूप से न केवल वैश्विक मुस्लिम समाज के लिए चिंता का विषय हैं बल्कि मानवाधिकारों के लिए काम करने वाले मानवतावादियों के लिए भी चिंता की बात हैं। इन घटनाओं से एक बात और ज़ाहिर होती है कि असहिष्णुता की यह भावना अब केवल अनपढ़ कहे जाने वाले वर्ग तक ही शायद सीमित नहीं रह गई है बल्कि संभवतरूअब स्वयं को पढ़ा-लिखा व बुद्धिजीवी कहने वाला एक बड़ा वर्ग भी असहिष्णुता की राह पर चलने लगा है। इस प्रकार की सीमित सोच सीमित क्षेत्रों अथवा सीमित समुदाय तक तो किसी हद तक सहन की जा सकती है परंतु किसी भी देश के लिए राष्ट्रीय या वैश्विक स्तर पर इस प्रकार की असहिष्णुशील सोच को आगे लेकर चलना अथवा थोपना कतई संभव नहीं है। आज पूरा विश्व किसी न किसी बहाने से किसी न किसी मजबूरी के चलते, ज़रूरतवश, परिस्थितिवश अथवा वक्त के तकाज़े के तहत एक दूसरे से जुड़ा हुआ है। यह परिस्थितियां मानवीय रिश्तों पर आधारित हो सकती हैं, भौगोलिक, प्राकृतिक, साहित्यिक,सांस्कृतिक,व्यापारि

क,वैज्ञानिक,खेल-कूद संबंधी,खान-पान से जुड़ी आदि कुछ भी हो सकती हैं। परंतु विश्व स्तर पर इस प्रकार के मज़बूत एवं दूरगामी रिश्ते निश्चित रूप से धार्मिक व सांप्रदायिक सहिष्णुता की बुनियाद पर ही खड़े हो सकते हैं।

इन रिश्तों को आगे बढ़ाने के लिए प्रत्येक धर्म व समुदाय के लोगों को एक-दूसरे की भावनाओं व उसके धार्मिक विश्वासों का आदर करना नितांत आवश्यक है। जबकि असहिष्णुशीलता की भावना चाहे वह किसी भी धर्म अथवा समुदाय के लोगों में क्यों न हो, ऐसे लोगों को दुनिया,समाज यहां तक कि अपने ही समुदाय के उदारवादी व सहिष्णुशील सोच रखने वाले लोगों से अलग-थलग कर देती है। और ऐसे लोग कुंए के मेंढक की तरह अपनी ही गढ़ी हुई छोटी सी दुनिया में जीने के लिए मजबूर हो जाते हैं।  और जब किसी धर्म अथवा संप्रदाय की ऐसी असहिष्णुशील भावनाएं दुनिया को नुकसान पहुंचाने लगती हैं तथा ऐसे विचारों को दुनिया अपने लिए खतरा महसूस करने लगती है तो ज़ाहिर है अमेरिका ही नहीं किसी भी देश का ध्यान इस ओर आकर्षित हो सकता है। लिहाज़ा इस विषय पर चिंतन करने के लिए यह सोचने की आवश्यकता नहीं कि मुस्लिम देशों में सहिष्णुता की बढ़ती कमी का प्रश्र किसने खड़ा किया। बजाए इसके यह सोचना चाहिए कि ऐसा प्रश्न उठाने की नौबत क्यों आई और यह मौका किसने और क्यों दिया।

**Tanveer Jafri ( columnist),(About the Author)
Author  Tanveer Jafri, Former Member of Haryana Sahitya Academy (Shasi Parishad),is a writer & columnist based in Haryana, India.He is related with hundreds of most popular daily news papers, magazines & portals in India and abroad. Jafri, Almost  writes in the field of communal harmony, world peace, anti communalism, anti terrorism, national integration, national & international politics etc.He is a devoted social activist for world peace, unity, integrity & global brotherhood. Thousands articles of the author have been published in different newspapers, websites & news-portals throughout the world. He is also a recipient of so many awards in the field of Communal Harmony & other social activities.
(Email : tanveerjafriamb@gmail.com )

Tanveer Jafri ( columnist),
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*Disclaimer: The views expressed by the author in this feature are entirely his own and do not necessarily reflect the views of INVC

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