वीना श्रीवास्तव की कविता – यामिनी

0
68

भोर जागने को है,

पर उससे पहले जाग जाती है यामिनी

टूटे सपनों को बुहारती,

आँगन द्वार पूरती चौक हल्दी आटे से

भीगी धोती में लिपटी,

लटों से झरती ओस

फटकारती है जब जब

फूट पड़ती हैं किरणें पीली, नारंगी, सुनहरी

और… फूट पड़ता है अधर-कलियों से लोक गीत

चकिया की घरर-घरर पर थिरक-थिरक जाता है

तब ……… जुट जाती है दो जून की रोटी

और ढेर सारी आशाएं

चौका-पानी खेत-खलियान,

दौड़-भाग करती चकरघिन्नी सी

ठंडी नहीं होती चूल्हे की आग

कब सोयेगी यामिनी

क्या रात भर…………………….??

*******
vina-shrivastavवीना श्रीवास्तव ,
प्रोफेसर डी.वी. कालेज उरई

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here