*निर्मल रानी
पिछले दिनों भारत में प्रथम विश्वकप महिला कबड्डी प्रतियोगिता आयोजित की गई। इस प्रतियोगिता में पूरे विश्व की 16 देशों की टीमों ने भाग लिया। बिहार की राजधानी पटना के कंकरबाग स्पोर्टस कांप्लेक्स में आयोजित इस विश्व कप प्रतियोगिता में भारत के अतिरिक्त अमेरिका, मैक्सिको,इटली, कनाडा,जापान, कोरिया, इंडोनेशिया,थाईलैंड,मलेशिया,बं
परिणामस्वरूप स्टेडियम के भीतर व बाहर अफरातफरी का माहौल पैदा हो गया। यहां तक कि कबड्डी प्रेमी दर्शकों व पुलिस के बीच पथराव व लाठियां भांजने तक की नौबत आ गई। इस प्रकार की घटनाएं स्वयं इस बात का सुबूत है कि कबड्डी जैसा प्राचीन खेल आम भारतीयों में अभी भी पूरी दिलचस्पी पैदा करता है तथा विश्वकप में भारत का विजयी होना भी यह दर्शाता है कि भारतीय खिलाड़ी भी इस पारंपरिक व ग्रामीणस्तर तक सीमित रहने वाले खेल पर अपनी मज़बूत पकड़ रखते हैं। परंतु प्रश्र यह है कि क्या कबड्डी प्रेमी खिलाडिय़ों व दर्शकों के अतिरिक्त शासन विशेष कर खेल प्रशासन से जुड़े लोग भी जोकि आमतौर पर क्रिकेट के दीवाने हुए दिखाई देते हैं उन्हें कबड्डी के खेल में भी उतनी ही दिलचस्पी है? क्या वे भी हमारे देश के कबड्डी जैसे प्राचीन,पारंपरिक व ग्रामीण एंव ज़मीनी स्तर पर विशेष कर $गरीब व मध्यम वर्ग द्वारा खेले जाने वाले इस खेल को इतनी अहमियत देते हैं ?
हमारे विश्वविजेता कबड्डी खिलाडिय़ों का शासन व खेल प्रशासन की नज़रों में क्या स्थान है इसका भी साक्षात दर्शन इस विश्वकप कबड्डी प्रतियोगिता में देखने को मिला। सबसे पहले तो केंद्रीय खेलमंंत्री अजय माकन तो क्या बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार को भी इतना समय नहीं मिल सका कि वे प्रथम विश्व कप विजेता भारतीय महिला कबड्डी टीम की हौसलाअफज़ाई करने हेतु स्टेडियम पहुंचते तथा उन खिलाडिय़ों की पीठ थपथपा कर उनका मनोबल बढ़ाते जिन्होंने पूरे विश्व में कबड्डी के क्षेत्र में भारत का नाम रोशन किया है। मुख्यमंत्री के बजाए उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी ने विजेता भारतीय टीम को विजेता ट्रॉफी व अन्य भारतीय खिलाडिय़ों को विजयी मैडल देकर सम्मानित किया जबकि उपविजेता ईरान की टीम को पाटलिपुत्र के सांसद शत्रुघ्न सिन्हा ने उपविजेता ट्रॉफी व मैडल आदि देकर सम्मानित किया। इन दो अतिथियों के अतिरिक्त राज्य के खेलमंत्री ने भी इस फाईनल आयोजन में पधारने का ‘कष्ट’ किया। ज़रा सोचिए कि कहां तो फाईनल मैच में भारतीय टीम की हौसला अफज़ाई करने के लिए बिहार जैसे गरीब राज्य के लाखों दर्शक स्टेडियम के भीतर व बाहर इकट्ठे हो गए तथा अपनी भूख और प्यास की परवाह किए बिना भारतीय टीम की विजय हेतु लगातार टीम का मनोबल बढ़ाते रहे और कहां राज्य के मुख्यमंत्री व केंद्रीय मंत्रियों को इस आयोजन में शिरकत करने के लिए मामूली सा समय तक नहीं मिल पाया।
भारतीय कबड्डी टीम व इस खेल की उपेक्षा का सिलसिला यहीं खत्म नहीं हुआ बल्कि इस टीम का उस होटल में भी घोर अपमान हुआ जहां कि इस के ठहरने की व्यवस्था की गई थी। टीम प्रबंधकों ने होटल में टीम के ठहरने व उसके खाने के बिलों का भुगतान नहीं किया था इसलिए होटल प्रबंधकों ने पूरी कबड्डी टीम को तब तक रोके रखा जबतक कि प्रबंधकों द्वारा उनके खाने व ठहरने का भुगतान नहीं किया गया। इस घटना ने भी इस प्रथम विश्वविजेता टीम के मनोबल को गहरा धक्का पहुंचाया। इसके पश्चात यह भारतीय टीम पटना से दिल्ली आई। यहां भी इस टीम का स्वागत करने हेतु शासन व प्रशासन की ओर से कोई भी अधिकारी नहीं पहुंचा। आखरकार देश का गौरव समझे जाने वाली इस टीम के खिलाड़ी अपने कंधों पर अपना सामान लादकर तथा हाथों में ट्रॉफी व स्मृति चिन्ह आदि लेकर फुटपाथ पर खड़े होकर थ्री व्हीलर की प्रतीक्षा करते देखे गाए। अधिकांश खिलाडिय़ों ने अपने-अपने गंतव्य तक जाने हेतु ऑटो रिक्शा का सहारा लिया और अपने-अपने साज़ो-सामान व ईनाम के साथ यह सभी अपने-अपने घरों को पहुंचे। जिस प्रतियोगिता का सीधा प्रसारण सरकारी टीवी चैनल दूरदर्शन पर किया गया हो क्या उस भारतीय टीम के विजयी होने व विजयी होकर उस टीम के वापस आने की सूचना खेल मंत्रालय को नहीं थी? क्या विजयी क्रिकेट टीम के विजयश्री प्राप्त कर वापसी के बाद उनका भी ऐसा ही स्वागत किया जाता है?
कहां तो हमारे देश के खेल रणनीतिकार फार्मूला वन कार रेस ट्रैक बनवाकर तथा फार्मूला वन जैसा मंहगा आयोजन करा कर अपनी पीठ थपथपाते रहते हैं। एशियाड व कॉमनवेल्थ जैसे विश्वस्तरीय खेल आयोजन कराकर हमारे यही खेल आयोजक दुनिया को यह बताने की कोशिश करते हैं कि खेल के क्षेत्र में तथा खेल आयेाजन के लिए हमारी व्यवस्था विश्वस्तरीय है। यह और बात है कि कॉमनवेल्थ खेलों के आयेाजन के बाद इस आयोजन के नाम पर भारी लूट-खसोट करने वाले तमाम जि़म्मेदार लोग आज अपनी लूट-खसोट की सज़ा भुगतते हुए जेल की सला$खों के पीछे हैं। परंतु खेल के इन्हीं ठेकेदारों,पहरेदारों व रणनीतिकारों को इस बात की इतनी भी तमीज़ नहीं है कि उन्हें उन खिलाडिय़ों के साथ कैसे पेश आना चाहिए जोकि देश का सिर ऊंचा किया करते हैं। इसके पूर्व भी इस तरह का नज़ारा दिल्ली की सडक़ों पर उस समय भी देखने को मिला था जबकि विश्वकप कुश्ती विजेता होने के बाद भारतीय कुश्ती का गौरव समझा जाने वाला सुशील कुमार भी ऑटो रिक्शा पर बैठकर केद्रीय खेलमंत्री से मिलकर आता दिखाई दिया था।
पिछले दिनों भारत रत्न के सम्मान को लेकर सचिन तेंदुलकर के साथ-साथ हॉकी सम्राट मेजर ध्यानचंद का नाम भी चर्चा में रहा। ध्यान चंद पूरी दुनिया के हॉकी प्रेमियों के लिए एक भगवान जैसा दर्जा रखते थे। परंतु भारत रत्न प्राप्त करने हेतु चर्चा का विषय बने इन्हीं ध्यानचंद की अंतिम दिनों में ऐसी स्थिति सुनने को मिली जो अत्यंत निराशाजनक थी। वे अपने जीवन के अंतिम समय में काफी आर्थिक संकट के दौर से गुज़र रहे थे तथा उन्हें अपने इलाज के लिए भी का$फी परेशानी उठानी पड़ रही थी। आज हमारे देश में और भी तमाम ऐसी मशहूर खेल हस्तियां मिल जाएंगी जिन्होंने अपने समय में देश का नाम रोशन किया है।
तथा देश को गौरवपूण स्थान दिलाया है परंतु आज उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है। अपने समय का कोई चैंपियन थ्री व्हीलर चला रहा है तो कोई रिक्शा खींच रहा है। कोई कहीं चाय की दुकान खोले बैठा है तो कोई कहीं मामूली किराने की दुकान खोलकर अपना व अपने परिवार का जीवनयापन करने को मजबूर है। ज़ाहिर है कि सत्ता के नशे में चूर हमारे देश के खेलों के ठेकेदार जब मात्र 24 घंटे पहले विश्वकप जीतने वाली टीम की सुध नहीं लेते फिर आखिर इतिहास बन चुके खिलाडिय़ों के मान-सम्मान व उनकी सेहत व गुज़र-बसर के बारे में जानकारी लेने की इनसे क्या उम्मीद की जा सकती है? इन हालात में यदि भारतीय खिलाडिय़ों के हौसले पस्त होते हैं या इनका मनोबल गिरता है तो इसमें खिलाडिय़ों का नहीं बल्कि उस भ्रष्ट,निकम्मी व निर्लज्ज व्यवस्था का दोष है जोकि इस ओर ध्यान नहीं देती। खिलाडिय़ों के प्रति इस प्रकार की लापरवाही बरतने व उनके अनादर के दोषी लोगों के $िखला$फ स$ख्त कार्रवाई किए जाने की भी ज़रूरत है।
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर निर्मल रानी गत 15 वर्षों से देश के विभिन्न समाचारपत्रों, पत्रिकाओं व न्यूज़ वेबसाइट्स में सक्रिय रूप से स्तंभकार के रूप में लेखन कर रही हैं.
Nirmal Rani (Writer)
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