{ संजय कुमार आजाद ** } आखिर हम सब किस समाज में रह रहे है। आध्ुनिकता और विकास की अंध्ी दौड़ में हम अपने स्वयं या अपने समाज को पाश्विकता के आगोश में डालते चले जा रहे हैं। दुनियां मेरी मुट्ट्ठी में के इस युग में हम अपने संस्कार, संस्कृति, परिवार और शिक्षा को अपनों से कोसों दूर करते चले गए। आज हमारे अपने रिश्ते तार-तार हो रहे हैं। पिता-पुत्राी, भाई-बहन, माँ-बेटा जैसे पवित्रा रिश्तों को हम विकास के इस मशीनी युग में शर्मसार कर रहे हैं। हमने विकास का जो पैमाना तय किया वह परिवार की संकल्पना से कोसों दूर है। यह हमें पशुओं की टोली बनने को मजदूब कर दिया है। वृ(ाश्रम की बढ़ती संख्या,सामाजिक पतन की पराकाष्ठा है जो हमें नैतिक स्तर से रिश्तों की भावनाओं को व्यापारिक भावना में बदल दिया। प्रतिस्पर्ध के गलाकाट संस्कृति ने हमें अपनों से दूर कर एक ऐसा माहौल दिया, जहाँ वालिगता की आड़ में समानता की चित्कार के सहारे मानव मूल्यों को अद्योगति तक पहुँचा दिया। स्त्राी-पुरुष समाज के दो पहिए है, किन्तु ये पहिए साईकिल की तरह है,पिछला पहिया गति देता है वह पुरुष का प्रतिक है, किन्तु अगला पहिया जो दिशा देती है वह स्त्राी का प्रतिक है। जब तक साईकिल का पिछला पहिया गति देता है और अगला पहिया सही पथ पर दिशा तय करती रहती है साईकिल और सवार दोनों सुरक्षित एवं लक्ष्य प्राप्त करता रहता है किन्तु यदि पिछला पहिया रूक जाए तब भी साईकिल और सवार दोनों स्थिर सुरक्षित ही रहता है किन्तु जैसे ही साईकिल के अगले पहिए की दिशा बदल जाती और पिछला पहिया से गति मिलता रहता है तो साईकिल की दिशा या तो लक्ष्यविहिन या उसे दुर्घटनाग्रस्त होना निश्चित होती है और यही दशा आज अपने समाज की है।
हम प्रकृति के विपरीत कार्य को अपने में आत्मसात कर कैसे समाज की रचना कर सकते हैं। हमारी वर्तमान शिक्षा प(ति आजादी के पूर्व गुलाम बनाने वाला था और आज भी वही नीति कायम है पफर्क इतना है कि कल तक हमारे मानवीय,सामाजिक व नैतिक मूल्यों को सत्त मुगलों और अंग्रेजों ने ध्वस्त किया था अब वही घातक कुदृष्टि देश के नेता और नौकरशाहों ने वैश्विक बाजार के लिए परिवार परम्परा को विध्वंस कर समाज को इस मुकाम पर ला खड़ा कर दिया है। अपने देश के मानवीय मूल्यों पर, संस्कार और संस्कृति पर, कभी मानवाध्किार के नाम पर तो कभी कानूनों की आड़ में सत्त प्रहार होता रहा और इस समाज को उत्पाद बनाने की होड़ मच गयी। नेहरू जी के अदूरदर्शी अराष्ट्रीय नीति ने भारत को सिपर्फ विभाजित ही नहीं बल्कि भारतीय मूल्यों का सत्त हªास करने वाली कानूनों का संग्रह दिया जिसका खामियाजा आज का समाज भुगत रहा है। हम कठोरतम से कठोरतम सजा की मांग करते हैं अथवा उसका निर्माण करते हैं किन्तु उन कानूनों को लागू करने की जो प्रक्रिया है वह अत्यन्त शोचनीय है या यूँ कहें कानून लागू करने की प्रक्रिया ही भारत में अपराध् को प्रोत्साहित करती आई है। न्यायपालिका और कार्यपालिका की कुंभकर्णी निद्रा इस देश में अपराध् को बढ़ावा देती है। इस देश का कानून और पुलिस यहाँ के समाज को बर्बर बनने को मजबूर कर रही है, जहाँ सरकार उस बर्बरता को बढ़ावा देने वाली आग में घी डालने का काम कर रही है। इस देश का हर नागरिक तब जागरूक होना पसंद करता, जब वह घटना उसके घर में घटता है। पांच साल की अबोध् बच्ची के साथ आज जिस पाश्विकता का परिचय समाज दे रहा है क्या उसे कानून बन्द करवा सकती है?जब तक हम इस समाज में उत्पाद, खुलापन, समानता, जैसे शब्दों के सहारे अपने को बचाने का प्रयास करते रहंेगे, तब तक हम और हमारा समाज पतन की गर्त में ही जाता रहेगा। पाश्विकता और राक्षसी प्रवृति जो समाज के अंदर अपने निकरटस्थ रिश्तों में घुस आई उसे कानून का भय हटा पाएगा यह असंभव है। उसके लिए भारतीय मूल्यों की महान पारिवारिक परम्पराओं में रिश्तों की भावना का संचार कर ही रोका जा सकता है।
इतिहास साक्षी है कि पिछले शताब्दी में खुलेपन की नीति ने ही सोवियत संघ जैसे शक्तिशाली राष्ट्र को अनेकों टुकड़ों में बाँट दिया वही खुलेपन की नीति आज भारतीय समाज को विखण्डित कर रिश्तों को तार-तार कर रहा है। हमारी मर्यादा, हमारी परम्परा, हमारे आदर्श, जीवन प(ति, हमारे महापुरूष, हमारी संस्कार और सुसंस्कृति को हेय दृष्टि से देखने वाली नेहरू दृष्टि भारतीय समाज के लिए गि( दृष्टि साबित हो रही है, जिसके कुचक्र में हम सिपर्फ उत्पाद बनते गए। पफलतः जब हम उपभोगवादी संस्कृति को स्वीकार कर रहे है, तो डांस, डिस्को, डाइवोर्स को हम अपना मौलिक अध्किार मानते हुए, रिश्तों को प्रगति का बोझ समझकर किनारे पटकने लगे हैं, तब हम अपने समाज को क्या दे सकते है? आज हमारा सोच, हमारी शिक्षा ‘प्रोडक्ट’ के रूप में देखी जाती है। हम अपने बच्चों को बड़े गर्व से दूसरों के सामने परिचय देते कहते है-‘मेरा बेटा अमूक स्कूल का प्रोडक्ट है’ पिफर उस प्रोडक्ट के लिए बाजार तलाशते हैं और बाजार भावनाओं से नहीं चलता है पिफर उस उत्पाद ;बच्चोंद्ध से हम किसी संवेदनशील भावना की बात करें तो बेईमानी है उसने तो शिक्षा सिपर्फ बाजार के लिए सीखा पिफर उससे किसी भी प्रकार की ‘भावना’ की आशा रेत से तेल निकालने के सदृश है। इतने कठोर कानून, के बावजूद समाज क्यों वहशी होता गया क्योंकि हमने चारित्रिक व नैतिक शिक्षा का अवमूल्यन किया है, बाजारबाद को प्रोत्साहन दिया है। इन्टरनेट और पिफल्मों का बढ़ता प्रभाव आज समाज को इस कदर किंकर्तव्यविमूढ़ कर दिया है कि आज हम रिश्तों को लिव इन रिलेशनशीप में ढ़ालकर अपनी प्रगति का पैमाना तय कर रहे हैं। जब संवैधनिक पदों की शोभा बढ़ा रहे पदाध्किारियों को पीड़ितों के प्रति नहीं अपनी छूट्टी के प्रति जब ज्यादा संवेदना हो तब इस समाज से इन घटनाओं को कैसे दूर किया जाए इस पर इस देश के संवेदनशील नागरिकों को सोचना चाहिए।इस देश में कानून के बजाए नागरिक संवेदनशीलता और भारतीय मूल्यों का स्थापना ही हमें सभ्य बना सकता है।
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** लेखक-
संजय कुमार आजाद, प्रदेश प्रमुख विश्व संवाद केन्द्र झारखंड एवं बिरसा हुंकार हिन्दी पाक्षिक के संपादक हैं
—– संजय कुमार आजाद
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