खाद्य वस्तुएं नहीं तो कम से कम दवा-इलाज ही सस्ते हों

तनवीर जाफरी**,,

                23 अगस्त 1979 का वह दिन मुझे आज भी भलीभांति याद है जबकि मैं एक सामाजिक कार्यकर्ता के नाते अपने कई साथियों के साथ इलाहाबाद के कमला नेहरू अस्पताल में केवल इसलिए भूख हड़ताल पर बैठ गया था क्योंकि उत्तर प्रदेश की तत्कालीन जनता पार्टी सरकार ने प्रदेश के सरकारी अस्पतालों में पर्ची बनवाने हेतु मरीज़ों से 2भ् पैसे वसूल किए जाने का आदेश जारी कर दिया था। हमारे अनशन को तुड़वाने हेतु पूर्व स्वास्थयमंत्री सालिगराम जयसवाल पधारे थे तथा उन्होंने तत्कालीन मु यमंत्री व स्वास्थ्यमंत्री से बात कर मरीज़ों से वसूला जाने वाला 2भ् पैसे पर्ची शुल्क का आदेश तत्काल वापस करवा दिया था। यही वह दौर भी था जबकि उसी अस्पताल में मेरे एक प्रिय मित्र सर्जन एसपी शर्मा सेवारत थे। एक बार मैंने उनसे उनके विवाह न करने का कारण पूछा तो उन्होंने कहा कि यदि मैं विवाह कर लूंगा तो अपने मरीज़ों को पूरा समय नहीं दे सकूंगा और यह मेरे परिवार के साथ भी अन्याय होगा। लिहाज़ा अपने पेशे के प्रति न्याय करना मेरा पहला कर्तव्य है। डा0 शर्मा अपने मरीज़ों को देखने अक्सर बिना अपनी ड्यूटी के देर रात भी अस्पताल आ जाया करते थे। इतना ही नहीं वे मरीज़ों को दवाईयों हेतु आर्थिक सहायता भी ज़रूरत पड़ने पर पहुंचाते थे। यहां तक कि दूर-दराज़ से आए मरीज़ों के तीमारदारों के भी खाने-पीने का वे $ याल रखते थे। मैंने स्वयं अपने एक परिचित मरीज़ का आप्रेशन उनके हाथों रविवार के दिन विशेष रूप से इसलिए कराया क्योंकि मरीज़ की हालत गंभीर थी। इस आप्रेशन के लिए उन्हें कई शल्य कक्ष कर्मियों को विशेष रूप से उनके घरों से बुलाना पड़ा था। मज़े की बात तो यह है कि मरीज़ की गंभीर हालत को देखते हुए इस आप्रेशन को रविवार को करने  हेतु स्वयं डा0 शर्मा ने ही मुझ पर दबाव डाला था।
                बहरहाल अब तो गोया इस प्रकार की बातंे महज़ बातें या ç$कस्से-कहानियां ही प्रतीत होती हैं। डॉक्टरी के पेशे से जुड़े लोगों को आम आदमी भगवान के रूप में देखा करता था। परंतु अधिक से अधिक धन लाभ कमाने की मानवीय प्रवृति ने इस पेशे को अब इतना बदनाम कर दिया है कि छोटी-मोटी बीमारियों को लेकर अब आम आदमी डॉक्टर के पास जाने से भी कतराने लगा है। संयुक्त राष्ट्र संघ की रिपोर्ट के अनुसार भारत में 41 प्रतिशत से भी अधिक आबादी $गरीबी रेखा के नीचे रहती है। ज़ाहिर है Êयादातर बीमारियां भी $गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले इन्हीं $गरीबों को ही होती हैं। सवाल यह है कि जो $गरीब अपनी दाल-रोटी से जूझ रहा हो, जिसके पास सर छुपाने के लिए छत मयस्सर न हो और जो अपने बच्चों को शिक्षा तक मुहैया न करा सके वह अपना इलाज कैसे करा सकता है? $खासतौर से आज के इस प्रदूषित वातावरण में जबकि न केवल डॉक्टर मनमाने पैसे वसूलना चाहता है बल्कि उससे अपनी मनमानी जगह पर तमाम प्रकार के परीक्षण करवाने के भी निर्देश देता है। इतना ही नहीं बल्कि वह अपने मरीज़ को यह भी बताता है कि उसने दवाईयां कहां से $खरीदनी हैं। गोया डॉक्टर और मरीज़ के बीच का मानवता व भगवान का रिश्ता अब पूरी तरह व्यवसायिक रिश्तों में परिवर्तित हो जाता है।
                ज़ाहिर है ऐसे में ले-देकर केंद्र व राज्य की सरकारें ही हैं जोकि आम आदमी को सस्ती व उçचत स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया करा सकती हैं। पिछले दिनों केंद्रीय कारपोरेट अ$फेयर मिनिस्टरी की मूल्य निधüारण समिति ने एक सवेüक्षण रिपोर्ट प्रकाशित की जिसमें एक हैरतअंगेज़ बात यह सामने आई कि देश की कई नामी-गिरामी दवा निर्माता कंपनियां अपनी मूल लागत का 1123 प्रतिशत अधिक मुना$फा कमा रही हैं। इनमें कालपोल फैज़र,द कोरेक्स सिरप, रैनबेक्सी ग्लोबल रिवायटल, डा0 रेaी लैबस ओमेज़,अलेंबिक एजी थ्रेल ऑ$फ मेडिसीन सहित अन्य कई प्रसिद्ध कंपनियांे के नाम शामिल हैं। इस रिपोर्ट के विषय में कई संबद्ध केंद्रीय मंत्रियों तथा स्वास्थय मंत्रालय को भी अवगत करा दिया गया है। सोचने का विषय है कि एक ओर तो देश की आधी जनसं या रोज़ी-रोटी को मोहताज है तथा देश में दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही मंहगाई के बोझ तले दबती जा रही है तो दूसरी ओर दवा निर्माता कंपनियां 1100 प्रतिशत से अधिक मुना$फा कमाने हेतु अपनी कमर कसे बैठी हैं। ज़ाहिर है ऐसे में ले-देकर जेनेरिक दवाईयां अथवा साधारण व सामान्य दवाईयों के वितरण व इनकी बिक्री तथा इसके उत्पादन को बढ़ावा देना ही एकमात्र ऐसा उपाय रह जाता है जोकि आम आदमी को कम से कम मंहगी दवाईयों से ही राहत दिला सके।
                आज देश में आमतौर पर जो पेटेंट दवाईयां दुकानों पर बिकती हैं उनमें तथा जेनेरिक अथवा सामान्य दवाईयों के मूल्यों में भारी अंतर है। उदाहरण के तौर पर किसी बड़ी कंपनी की पेटेंट दवाई यदि दस हज़ार रुपये $खर्च करने से प्राप्त होगी तो उसी प्रकार की जेनेरिक दवाई मात्र 8 रुपये $खर्च करने पर प्राप्त की जा सकती है। आज हमारे देश में हालांकि जेनेरिक दवाईयों का उत्पाद 80 प्रतिशत है परंतु डॉक्टर,दवाई विके्रता व दवा निर्माता कंपनियों के मिले-जुले नेटवर्क के चलते मरीज़ को मजबूरन पेटेंट दवाईयां ही $खरीदनी पड़ती हैं। इन दवाईयों पर जो मूल्य छपा होता है वह भी प्रायज् दवाई के वास्तविक मूल्य से कई गुणा अधिक होता है। परंतु तमाम शुद्ध व्यवसायी प्रवृति के दुकानदार उस छपे मूल्य में से एक पैसा भी कम करने को राज़ी नहीं होते। ज़ाहिर है इस प्रकार की सरेआम होने वाली लूटमार से जनता को निजात दिलाना सरकार का ही दायित्व है। सरकार को चाहिए कि वह जेनेरिक दवाईयों के उत्पादन को तो बढ़ावा दे ही साथ-साथ डॉक्टरों को भी निर्देश दे कि वे मरीज़ों को जेनेरिक दवाईयां ही $खरीदने हेतु लिखें। दूसरी ओर मूल्य नियंत्रण $कानून को भी दवा निर्माता कंपनियों पर स$ ती से लागू किए जाने की ज़रूरत है। ताकि पेटेंट दवाईयों के नाम पर बड़ी दवा कंपनियां सैकड़ों गुणा मुना$फा जोड़कर दवाईयों की पैकिंग पर उनके मूल्य प्रकाशित न करें।
                परंतु इन सबके साथ-साथ सरकार को मरीज़ों के प्रति स्वयं भी उदार होने की आवश्यकता है। हालांकि $खबर है कि अक्तूबर माह से केंद्र सरकार स्वास्थय संबंधी एक नई योजना राष्ट्रीय स्तर पर शुरु करने जा रही है। जिसमें पूरे देश में मरीज़ों को मु$ त इलाज व दवाईयां उपलब्ध कराए जाने की व्यवस्था होगी। परंतु ç$फलहाल सरकारी अस्पतालों में जो हालात हैं वे किसी प्राईवेट अस्पताल से कम नहीं प्रतीत होते। जिन अस्पतालों में कभी मरीज़ों को निज्शुल्क पर्चियां मिला करती थी उन्हीं अस्पतालों में आज न केवल पांच रुपये की पर्ची कटती है बल्कि एक मरीज़ को यदि अलग-अलग डॉक्टर्स को दिखाना है तो उसे अपनी अलग-अलग पर्चियां बनवानी पड़ती हैं यानी पांच रुपये के बजाए प्रत्येक पर्ची हेतु उसे अलग-अलग पैसे  $खर्च करने होते हैं। इसके अतिरिक्त सरकारी अस्पतालों में एक्सरे, सभी प्रकार के टेस्ट यहां तक कि आप्रेशन आदि के भी शुल्क निधüारित कर दिए गए हैं। गोया अस्पताल में आम आदमी के लिए कोई भी सुविधा निज्शुल्क नहीं है। कहने को तो सरकारी अस्पताल में दवाईयां भी मु$ त दी जाती हैं। परंतु ह$की$कत तो यह है कि अस्पताल में चंद सस्ती व मामूली दवाईयां तो लंबी क़तार लगाने के बाद मरीज़ों को मिल जाती हैं परंतु उसे कई मंहगी व कारगर दवाईयां आç$खरकार बाज़ार से ही लेनी पड़ती हैं।
                हमारे देश में आम लोगों के जीवन की रक्षा हेतु तथा लोगों की अंधेरी çज़ंदगी में रोशनी लाने की $गरज़ से हालांकि रक्तदान, नेत्रदान व शरीरदान जैसे कार्यक्रमों को बढ़ावा दिया जाता है तथा इसके लिए आम लोगों को प्रोत्साहित किया जाता है परंतु सरकार तथा इस स्वास्थय संबंधी पेशे से जुड़े समूचे तंत्र को सर्वप्रथम अपने-आप को ईमानदार, पारदर्शी,जवाबदेह तथा योग्य बनाने की भी स$ त ज़रूरत है। भले ही इस पेशे से जुड़े शुद्ध व्यवसायी प्रवृति के तमाम लोगों को आमिर $खान द्वारा स्वास्थय संबंधी समस्याओं पर आधारित सत्यमेव जयते कार्यक्रम बुरा क्यों न लगा हो परंतु इस कार्यक्रम पर उंगली उठाने वाले तथा इसकी आलोचना करने वालों को यह भी $गौर करना चाहिए कि इस कार्यक्रम में आमिर $खां के अतिरिक्त भाग लेने वाले अधिकांश लोग इसी पेशे से जुड़े थे तथा इसी पेशे में रहकर उन्हें जो अनुभव व्यक्तिगत रूप से प्राप्त हुए थे उन्हीं को वे सांझा कर रहे थे। परंतु अ$फसोस की बात है कि इस ऐपिसोड के प्रसारित होने के बाद इस पेशे से जुड़े तमाम लोग आमिर $खां की आलोचना करते देखे गए। यहां तक कि डॉक्टरों की एक एसोसिएशन ने तो उनसे मा$फी मांगने तक की बात कह डाली। परंतु आमिर ने मा$फी मांगने से इंकार कर दिया। जबकि ह$की$कत तो यह है कि इस पेशे से जुड़े ईमानदार व मानवीय संवेदनाएं रखने वाले सभी लोगों को ऐसे लोगों के विरुद्ध एकजुट हो जाना चाहिए था जोकि इस पेशे को मात्र धन ला ा कमाने के चलते बदनाम कर रहे हैं। उन्हें यह सोचना चाहिए था कि आç$खर डॉक्टरी जैसा पवित्र पेशा चंद लोगों के चलते क्योंकर बदनाम हो रहा है।

**Tanveer Jafri ( columnist),(About the Author) Author  Tanveer Jafri, Former Member of Haryana Sahitya Academy (Shasi Parishad),is a writer & columnist based in Haryana, India.He is related with hundreds of most popular daily news papers, magazines & portals in India and abroad. Jafri, Almost  writes in the field of communal harmony, world peace, anti communalism, anti terrorism, national integration, national & international politics etc.He is a devoted social activist for world peace, unity, integrity & global brotherhood. Thousands articles of the author have been published in different newspapers, websites & news-portals throughout the world. He is also a recipient of so many awards in the field of Communal Harmony & other social activities.
(Email : tanveerjafriamb@gmail.com)

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*Disclaimer: The views expressed by the author in this feature are entirely his own and do not necessarily reflect the views of INVC

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