घोड़ी हो गयी है, कबड्डी खेल रही है! कल से निकलो तुम घर से बाहर तो पैर तोड़कर हाथ में दे दूंगी। दादी मुझे फटकार लगाकर भैया को दूध का गिलास थमा ही रही थीं कि मैंने गिलास पर हाथ मारकर गिरा दिया। भैया भी तो खेलकर आया है। उसे दूध और मुझे डांट, क्यों?? गाल पर थप्पड़ जड़ते हुए दादी चिल्लाई, तू बेटी है बेटी, वो बेटा है बेटा। समझी? उस समय मुझे पहली बार एहसास हुआ कि मैं बेटी हूं। बेटी होने पर अफसोस हुआ। ये हादसा ना तो कोई मेरे जीवन की अंतिम घटना है, और ना ही केवल मेरे साथ घटित हुई है। ऐसे हादसे औरतों की जिन्दगी के हिस्से बन चुके हैं। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती गई, समाज द्वारा प्रदत्त असमानता और शोषण की यह बीमारी लाइलाज होती चली। भ्रूण हत्या, छेड़छाड़, कार्य स्थल पर यौन शोषण, घरेलू उत्पीड़न, बलात्कार, आर्थिक परनिर्भरता, इन सारी समस्याओं से जूझ रही आधी आबादी को इनका समाधान खुद निकालना होगा।
”आज भी आदम की बेटी हंटरों की जद में है, हर गिलहरी के बदन पर धारियां जरूर होंगी।” बहुत अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि आज भी यह पंक्ति अपने समाज में जीवित है। कभी मधुमिता तो कभी फिजा और कभी गीतिका के रूप में हमें अपने होने का एहसास दिलाती है। यहां खास बात ये है कि अगर हम खुद बहक जाएं तो फिर बचाएगा कौन? जिस्म के भूखे भेड़िए तो मौके की तलाश में रहते हैं। खूबसूरती के साथ तेज दिमाग का कॉकटेल बन गया तो दुनिया कदमों में होती है। उपर से सत्ता का सहयोग मिल जाए तो फिर क्या कहना!! लेकिन इन सबके बीच यह सवाल सामने आता है कि हम कहीं तेजी के इस दौर में फिसल तो नहीं रहे हैं। जब तरक्की में जिस्म का तड़का लग रहा होता है, उस समय हमें सुनहरे सपनों की सवारी के बजाए सतर्क रहने की जरूरत होती है।
आज के इस भौतिक युग में कुछ भी यूं ही नहीं मिलता। गीतिका, फिजा और मधुमिता जैसों के केस पर जब गौर करें तो एक कड़वी सच्चाई सामने आती है। ये सारे मामले पद, पैसा और पावर किसी भी तरह हासिल करने की अति महत्त्वाकांक्षा का परिणाम हैं। महज इनकी वजह से आज आम लड़कियां जो वास्तविक रूप से दहशत की शिकार हैं, कड़ी मेहनत के बाद इनकी उपलब्धि को भी समाज शक की निगाह से देखता है। पुरुष प्रधान समाज की सोच में क्रांतिकारी परिवर्तन की अपेक्षा करना मूर्खता है, लेकिन हां, सुधार लगातार अब दिखने लगा है। ऐसे में हमें ज्यादा सर्तक रहने की जरूरत है। कहीं ऐसा न हो कि आपकी तरक्की किसी के शोषण का साधन बन जाए। देखा यह गया है कि सबसे ज्यादा गरीब, दलित और हर तरह से कमजोर वर्ग की लड़कियां और औरतें शोषण की आसान शिकार बन जाती हैं। झारखंड की सोनी देवी आज भी मंत्री सत्यानंद झा बाटुल की पत्नी का दर्जा हासिल करने की लड़ाई लड़ रही हैं। मीडिया की सुर्खियों से दूर ऐसी हजारों लड़कियां न्याय के लिए अदालत के दरवाजे पर सर पटक-पटक कर दम तोड़ देती हैं। खास बात तो यह है कि हाईप्रोफाइल और मीडिया में चर्चित हो चुके मामलों में दोषियों को सजा तो देर-सबेर मिल ही जाती है, लेकिन गांवों के खेतों-खलिहानों और महानगरों की झुग्गियों में रहने वाली मेहनतकश औरतें जब शोषण-उत्पीड़न और बलात्कार आदि की शिकार होती हैं तो उनकी आवाज नक्कारखाने की तूती के समान होती है।
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*श्वेता प्रकाश,,
स्वतंत्र लेखिका
shandaar….. keep it up 🙂
बढिया प्रयास है
लेकिन
‘भ्रूण हत्या, छेड़छाड़, कार्य स्थल पर यौन शोषण, घरेलू उत्पीड़न, बलात्कार, आर्थिक परनिर्भरता, इन सारी समस्याओं से जूझ रही आधी आबादी को इनका समाधान खुद निकालना होगा।’ यह लाइन लेख के बीच में खटक रही है क्योंकि समाधान की बात लेख के बीच में आ रही है
बेहतर आलेख,
शुभकामना.
सच कहा आपने श्वेता जी। आज भी हम महिलाएं शोषित हैं। हमारे मां-बाप ही जब भेद करते हैं तो और का क्या….