रामजी यादव
”उद्भ्रांत की गीत की साधना घूम-फिर कर बार-बार प्रकट होती है। उन्होंने गीत से शुरू किया था। उनके छंदों की लय से यही पता चलता है। उनमें गहरा समकालीन बोध है मगर इसके साथ वे छंदों की लय भी अपनी मुक्त छंद की कविताओं में भी ले आए।’ ‘अनाद्यसूक्त’ उनकी अब तक की सर्वोत्ताम कृति है जहाँ उन्होंने शब्दों के मितव्यय से बड़ी बात कहने का सफल प्रयोग किया है।’ उन्होंने चुटकी लेते हुए कहा कि ‘उद्भ्रांत जी अब साठ साल के हो गए हैं और इस कार्यक्रम को उनकी षष्ठिपूर्ति समारोह के रूप में मैं देखता हॅँ और उन्हें शतायु होने की शुभकामनाएं देता हूँ। अब उन्हें दूसरों की किताबों का विमोचन करना चाहिए।”
उन्होंने कहा कि ”रवीन्द्रनाथ भी एक महाकाव्य लिखना चाहते थे लेकिन एक गीत में वे कहते हैं कि यह अब संभव नहीं है क्योंकि सरस्वती के नर्तन से उसके पांवों की गति लगातार उस सुगठन को तोड़ रही है जो महाकाव्य की रचना का आधार होता है। हिन्दी में भी महाकाव्य की रचना पीछे छूट गई। उद्भ्रांत ने महाकाव्य लिखने का प्रयास किया है। यह हिन्दी में पहली बार हो रहा है कि एक कवि रामायण काल की दर्जनों स्त्रियों की कहानी को एक सूत्र में बांध रहा है। उद्भ्रांत ने अनेक स्त्री पात्रों के माध्यम से समकालीन प्रश्नों और जीवन यथार्थ पर जो बात कही है वह एकदम नई बात है। इससे पहले कभी यह बात किसी अन्य की सोच में नहीं आई। उद्भ्रांत ने लोक में विद्यमान स्मृतियों का भी यहाँ अतिक्रमण किया है। शबरी का प्रसंग ऐसा ही प्रसंग है। शबरी बेर खाने के लिए बढ़ी राम का हाथ मन में आये इस भाव के चलते पकड़ लेती है कि कहीं वे खट्टे न हों। इस तरह की अनेक नई उद्भवनाए ‘त्रेता” में हमें मिलती हैं।
उक्त विचार शिखर आलोचक प्रो. नामवर सिंह ने उद्भ्रांत की दो पुस्तकों ‘त्रेता’ और ‘अनाद्यसूक्त:’ तथा हिन्दी के वरिष्ठ आलोचक प्रो. आनंद प्रकाश दीक्षित द्वारा लिखित आलोचना ग्रंथ ‘त्रेता : एक अन्तर्यात्रा’ के लोकार्पण के अवसर पर गांधी शांति प्रतिष्ठान में व्यक्त किये। उन्होंने उद्भ्रांत की दोनों ही पुस्तकों से कुछ काव्यांशों का पाठ भी किया।
इस अवसर पर सम्पन्न हुई विचार-गोष्ठी ‘मिथक के अनाद्य से उठता समकालीन’ में पटना से पधारे जाने-माने प्रगतिशील आलोचक डॉ. खगेन्द्र ठाकुर ने कहा कि मिथकों का इस्तेमाल प्राय: यथार्थ को समझने के लिए किया जाता रहा है, परंतु उद्भ्रांत ने ‘त्रेता’ के माध्यम से इसे समकालीन को समझने का माध्यम बनाया है। समकालीन की एक परम्परा होती है जो नीचे से ऊपर की ओर जाती है अर्थात् वह समाज के व्यापक समूह को उसके बहाने समझने की कोशिश करती है लेकिन जो लोग इसे चक्रीय मानते रहे हैं वे प्राय: इनका गैर राजनीतिक इस्तेमाल करते रहे हैं। उद्भ्रांत जिस प्रकार ‘त्रेता’ की स्त्रियों को अपने महाकाव्य में प्रतिष्ठित करते हैं, वह एक नई बात है। उन्होंने उन मिथकों को काफी हद तक तोड़ा है जो अपने आसपास के चरित्रों को निगल जाते हैं।
डॉ. बली सिंह ने कहा कि मैथिलीशरण गुप्त ने उर्मिला के बहाने ‘साकेत’ में स्त्री के गहरे अन्तर्द्वन्द्व को एक ऊँचाई प्रदान की। उसके बाद से महाकाव्य की रचना फिर कभी संभव नहीं हुई। उद्भ्रांत का ‘त्रेता’ पढ़ते हुए उसकी याद आना स्वाभाविक है। उन्होंने अंजना बक्शी की ‘माँ’ पर लिखी कविताओं में व्यक्त प्रश्नवाचकता के बहाने उद्भ्रांत द्वारा उठाए गए चरित्रों से उभरते प्रश्नों को रेखांकित किया।
दूरदर्शन के वरिष्ठ अधिकारी एवं साहित्य मर्मज्ञ धीरंजन मालवे ने उद्भ्रांत को बधाई देते हुए उनके काव्य ‘अनाद्यसूक्त’ को अद्भुत और बिग बैंग की उपाधि दी।
कार्यक्रम का संचालन करते हुए सुरेश शर्मा ने विजयदेव नारायण साही द्वारा 1958 में की गई महाकाव्य के अंत की घोषणा की याद की। उन्होंने कहा कि उद्भ्रांत ने उस टूटी हुई कड़ी को फिर से जोड़ दिया है।
इस मौके पर वयोवृध्द आलोचक डॉ. आनन्द प्रकाश दीक्षित द्वारा प्रेषित की गई चिट्ठी तथा ‘अनाद्यसूक्त’ पर पीयूष दइया की टिप्पणी का भी पाठ हुआ। डॉ. दीक्षित ने अपनी चिट्ठी में लिखा है कि जिस तरह कविता कभी खत्म नहीं होती, उसी तरह आलोचना-चाहे वह कितनी भी समर्थ हो-कभी अंतिम वाक्य नहीं होती। मैंने ‘त्रेता’ को महाकाव्य अवश्य कहा है लेकिन उद्भ्रांत को महाकवि नहीं कहा है। हमारे लिए यह प्रश्न अनिवार्य है कि महाकाव्य का रचयिता कवि अधिकार-सिध्दरूप में महाकवि मान लिया जा सकता है या कि उस पद के लिए किन्ही और मूल्यों का संधान करना होगा। पीयूष दईया का मानना था कि यह एक कठिन व दुर्निवार काव्यकृति है। प्रारम्भ में उद्भ्रांत ने ‘त्रेता’ और ‘अनाद्यसूक्त के कुछ काव्यांशों का अत्यंत प्रभावशाली पाठ किया। धन्यवाद ज्ञापन नेशनल पब्लिशिंग हाऊस के कमल जैन ने किया।
Mistakes are a part of being human. Appreciate your mistakes for what they are: precious life lessons that can only be learned the hard way. Unless it’s a fatal mistake, which, at least, others can learn from.
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