{ *प्रदीप कुमार } विद्यारंभम ( अर्थात एझुथिनिरुथु मलयालम रूप വിദ്യാരംഭം ) दो से पांच साल की उम्र के बीच बच्चों को औपचारिक रूप से वर्णमाला सिखाने की शुरुआत करने की हिंदू परंपरा है। यह केरल का मुख्य संस्कार है। विद्यारंभम की रस्म के बच्चों के लिए नवरात्र के अंतिम दिन यानी दशहरे के दिन आयोजित की जाती है। विद्यारंभम विद्या और आरंभ दो शब्दों से बना है। विद्या का मतलब है ज्ञान और आरंभम का अर्थ है शुरुआत। इस दिन हजारों लोग अपने बच्चों की शिक्षा आरंभ करने के लिए मंदिर, चर्च और मस्जिद में पहुंचते हैं।
शब्दांश संबंधी वर्णमाला की दुनिया में शुरुआत आमतौर पर मंत्र ”ओम हरि श्री गणपते नमः” ( ഓം ഹരിഃ ശ്രീ ഗണപതയേ നമഃ ) के लेखन के साथ शुरू होती है । इन शब्दों में हरि ( ഹരിഃ ) प्रभु के लिए और श्री ( ശ്രീ ) समृद्धि को दर्शाता है।
प्रारंभ में, मंत्र रेत पर या चावल से भरी एक ट्रे में लिखा जाता है। उसके बाद शिक्षक सोने की बारीक चीज से बच्चे की जीभ पर मंत्र लिखता है। रेत पर लिखना अभ्यास को दर्शाता है। अनाज पर लेखन ज्ञान के अधिग्रहण का सूचक है जो समृद्धि की ओर जाता है। सोने से जीभ पर लेखन से ज्ञान की देवी सरस्वती का आशीर्वाद मिलता है जिससे सच्चे ज्ञान का धन उपलब्ध होता है।
इस संस्कार के दौरान अभिभावक बेहतर स्वास्थ्य, अच्छी आवाज और तेज बुद्धि के लिए चंदन के लेप, शहद और वयम्प से अपने बच्चों की मालिश करते हैं।
विद्यारंभम पूजा के बाद बच्चों को किताबें, स्लेट और अन्य लेखन सामग्री वितरित की जाती है। इन चीजों का वितरण अलग-अलग स्थान के अनुसार भिन्न हो सकता है। कोट्टयम में पनाचिकाडा सरस्वती मंदिर में विद्यारंभम पर भव्य समारोह आयोजित किया जाता है। सुबह चार बजे से अभिभावक अपने बच्चों को लेकर कतारों में लग जाते हैं। त्रिशूर में थिरुवल्लाकारा, एर्णाकुलम में मूकंबिका मंदिर, वडाक्कन परावुर मंदिर में इस संस्कार के दिन उत्सव का माहौल देखते ही बनता है।
केरल से बाहर
आंध्र प्रदेश में बासरा सरस्वती मंदिर विद्यारंभम संस्कार के लिए प्रसिद्ध है। आंध्र प्रदेश में तेलुगु भाषा में इस परंपरा को अक्षराभ्यासम कहते हैं। दुर्गा नवरात्री के दौरान कुछ स्थानों पर हयाग्रीवा पूजा भी की जाती है। हिंदू धर्म के अनुसार हयाग्रीवा भगवान बुद्धि और ज्ञान का स्वामी है।
साम्प्रदायिक भाइचारे की अनूठी मिसाल
यूं तो यह मूल रूप से हिंदू संस्कार है लेकिन आजकल यह धार्मिक संस्कार से अधिक शैक्षिक संस्कार का रूप ले चुका है। यही कारण है कि इसे हिंदू, मुसलमान और इसाई सभी धर्म एवं सम्प्रदायों के लोग अपने बच्चे की शिक्षा के प्रारंभ के रूप में मनाते हैं। केरल के चर्च, मंदिर और मस्जिद विद्यारंभम संस्कार का आयोजन करके साम्प्रदायिक भाइचारे की अनूठी मिसाल पेश करते हैं। इस दिन अपने-अपने बच्चों को लेकर अभिभावक मंदिर, चर्च और मस्जिद की तरफ ऐसे ही जाते हैं जैसे उत्तर भारत में लोग अपने बच्चों को दशहरे के मेले में ले जाते हैं।
भारत में दशहरे के अवसर पर रावण को जलाने की परंपरा काफी पुरानी है। उत्तर भारत में जहां रामलीला और दशहरा धूमधाम से मनाया जाते हैं। वहीं देश के इस आखिरी छोर पर दशहरे के दिन को विद्या के आरंभ के तौर पर मनाते हैं। अज्ञानता के अंधकार को शिक्षा रूपी ज्ञान ही दूर कर सकता है। सही मायने में हर बुराई की जड़ अज्ञान ही है। ज्ञान व्यक्ति के नेत्र खोल देता है और उसे सोचने समझने की शक्ति देता है। शायद यही कारण है कि विद्यारंभम केरल में किसी धर्म विशेष का पर्व न रहकर सभी धर्मों का पर्व बन गया है।
शिक्षा को इतना महत्व देने के कारण ही केरल साक्षरता के मामले में अव्वल रहा है। यह अलग बात है कि हाल ही में त्रिपुरा ने इसे दूसरे स्थान पर धकेल दिया है। फिर भी इससे शिक्षा का महत्व कम नहीं हो जाता। आज के दौर में केरल साम्प्रदायिक सौहार्द्र और भाइचारे का अनोखा संदेश देता है। यहां ओणम और विद्यारंभम को सभी धर्मों के लोग मनाते हैं। एक खुशियों और फसल के प्रारंभ का पर्व है तो दूसरा विद्या के आरंभ का पर्व।
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*लेखक एक स्वतंत्र पत्रकार हैं।