{ डॉ संतोष जैन पासी और सुश्री आकांक्षा जैन } इस समय भारत बीमारी की दोहरी मार झेल रहा है। बडी संख्या में लोग पर्याप्त मात्रा में और अच्छा भोजन नहीं मिलने के कारण ऊर्जा की गंभीर कमी का सामना कर रहे हैं जबकि दूसरी तरफ बहुत से लोग आहार संबंधी गंभीर विकार पैदा करने वाली/ जीवनशैली से संबंधित बीमारियों से पीडि़त हैं। इन बीमारियों से जुड़े जोखिमों में खान-पान की गलत आदतें, शारीरिक श्रम नहीं करना, अधिक वजन होना/ मोटापा, सिगरेट/ शराब पीना, नशीले पदार्थों का सेवन और मनोवैज्ञानिक दबाव शामिल हैं। आहार संबंधी कार्यक्रम में कुल ऊर्जा ग्रहण करने के अलावा आहार में की वसा की मात्रा और गुणवत्ता महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
आहार संबंधी वसा में सैचुरैटड, मोनोअनसैचुरैटड और पोलीअनसैचुरैटड फैटी एसिड हो सकते हैं। इसके अलावा अनसैचुरैटड फैटी एसिड दोहरे बोडों में हाइड्रोजन अणुओं की स्थिति पर निर्भर सीआईएस अथवा ट्रांस विन्यास में मौजूद हो सकता है। सीआईएस विन्यास के मामले में हाइड्रोजन के दोनों अणु कार्बन श्रृंखला के समान भाग पर मौजूद हैं, जिसके परिणामस्वरूप उलझी हुई संरचना तैयार होती है, जिसके कारण तेलों में और भी अधिक तरलता के गुण होते हैं। हालांकि, ट्रांस विन्यास में हाइड्रोजन अणु विपरीत हिस्से में होते हैं और इसके परिणामस्वरूप यह श्रृंखला अधिकाधिक दृढ़ता के साथ अपेक्षाकृत सीधी होती है। संबंधित ट्रांस आईसोमरों में सीआईएस आईसोमरों के बदलाव के कारण गलनांक में वृद्धि होती है। स्वास्थ्य की दृष्टि से जिस तेल अथवा वसा का गलनांक जितना कम हो, वह उतना ही अच्छा है। एलाइडिक अम्ल ओलेइक अम्ल का संरचनात्मक आइसोमर है। जबकि ओलेइक अम्ल का गलनांक 16.3 डिग्री सेल्सियस है, एलाइडिक अम्ल का गलनांक 43.7 डिग्री सेल्सियस और वैक्सेनिक अम्ल का गलनांड 44 डिग्री सेंटी ग्रेड है। ट्रांस अम्ल अपने सैचुरैटड समरूपों की तुलना में और भी नुकसानदायक है।
ट्रांस फैट अथवा ट्रांस फैटी एसिड (टीएफए) सबसे खतरनाक किस्म के वसा हैं जिसके हमारे शरीर पर अनेक प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकते हैं। प्रमुख टीएफए में एलाईडिक एसिड जो प्रमुख रूप से आंशिक तौर पर हाइड्रोजनीकृत खाद्य तेल में पाया जाता है, और वेसैनिक एसिड जो मांस/ डेयरी उत्पादों में पाया जाता है।
आम तौर से इस्तेमाल में आये जाने वाले वनस्पति तेलों जैसे सोयाबीन, सूरजमुखी, कुसुम, सरसों, ओलिव, राइसब्रेन और तिल का तेल सीआईएस मोनो और पोलीअनसैचुरैटड फैटी एसिड का स्रोत है और इनमें सैचुरैटड फैटी एसिड की मात्रा कम है।
आंशिक रूप से हाइड्रोजनीकृत वनस्पति तेल भी लंबे अरसे से हमारे भोजन का महत्वपूर्ण हिस्सा बने हुए हैं। अनेक अध्ययनों से पता चला है कि हाइड्रोजनीकृत वनस्पति तेलों से निकाले गए ट्रांस फैट का हानिकारक प्रभाव पड़ता है और इस कटु सत्य का स्वास्थ्य संबंधी दिशानिर्देश तैयार करने में महत्वपूर्ण स्थान है।
आज भारतीय ग्राहक इस बात से अनभिज्ञ हैं कि व्यावसायिक तौर पर फ्राई की गई खाद्य वस्तुओं में कितनी मात्रा में टीएफए मौजूद है। उन्हें इस बात की भी समझ नहीं है कि फ्राई किये हुए भोजन से दिन भर में उनके शरीर में वास्तव में टीएफए की कितनी मात्रा चली जाती है। अधिकतर लोग टीएफए के स्वास्थ्य पर पडने वाले प्रतिकूल प्रभावों से अनभिज्ञ हैं।
भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण (2010) ने सिफारिश की थी कि आंशिक रूप से हाइड्रोजनीकृत वनस्पति तेलों में टीएफए का स्तर 10 प्रतिशत से कम होना चाहिए। जिसे 3 वर्ष में 5 प्रतिशत पर लाना जरूरी है। साथ ही इसमें यह भी प्रस्ताव किया गया था इसमें ट्रांस फैट लेवलिंग अनिवार्य की जाए ताकि इसे कम मात्रा में ग्रहण किया जाए।
आंशिक रूप से हाइड्रोजनीकृत वनस्पति तेल हमारे भोजन में ट्रांस फैट्स का प्रमुख स्रोत हैं। डेयरी वसा और मांस के उत्पादों में मौजूद टीएफए की कम मात्रा उतनी नुकसानदायक नहीं है।
फ्राई करने की प्रक्रिया जिससे ट्रांस फैटी ऐसे बनते है और इनका निर्माण खाने की वस्तु को फ्राई करने के तापमान, फ्राई करने की अवधि, वसा/ तेलों को कितनी बार गर्म किया गया/ दोबारा गर्म करने से जुडा है।
वर्ष 2003 में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने सिफारिश की थी कि औद्योगिक दृष्टि से तैयार हाइड्रोजनीकृत तेलों और वसा से ग्रहण किये गये ट्रांस फैट कुल ऊर्जा का 1 प्रतिशत से कम होना चाहिए। हालांकि भारत के आहार संबंधी दिशानिर्देशों में कहा गया है कि वसा ग्रहण करने की मात्रा कुल ऊर्जा का 2 प्रतिशत से कम होनी चाहिए।
ट्रांस फैट ग्रहण को सीमित करने की उचित रणनीतियों में शामिल है:
वनस्पति/आंशिक रूप से हाइड्रोजनीकृत वनस्पति तेलों अथवा मार्जरीन के इस्तेमाल से बचें। अधिकतर लोग मानते हैं कि शुद्ध घी के बजाय वनस्पति का इस्तेमाल सस्ता पडता है।
वनस्पति/ पीएचवीओ अथवा मार्जरीन में तैयार खाद्य वस्तुओं के इस्तेमाल से बचें; खाद्य लेबलों की जांच कर लें।
Ø फ्राई / बेक किये हुए खाद्य पदार्थों, खासतौर से बाजार में लाए गए फ्राईड खाद्य पदार्थों को सीमित मात्रा में खाएं।
Ø पूरी/भटूरा आदि फ्राई करते समय तेल इस्तेमाल करें न कि हाईड्रोजनीकृत फैट। काफी लंबे समय तक तेल को गर्म न करें।
Ø फ्राई करने के लिए तेल को बार बार गर्म न करें अथवा उसी तेल को दोबारा इस्तेमाल न करें। आमतौर पर लोगों को टीएफए के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभावों की जानकारी नहीं होती है।
फ्राई करने के बाद तेल को ठंडा करे उसमें बचे हुए खाद्य पदार्थ के अंश निकाल लें और उसे फ्रिज/ ठंडे स्थान पर रखें और उसका इस्तेमाल सूखी सब्जियां/ करी और पुलाव आदि बनाने में करें।
Ø रेडी टू यूज/ इन्सटेन्ट मिक्स का इस्तेमाल करने से बचें क्योंकि उनमें ट्रांस फैट की काफी मात्रा हो सकती है।
Ø डिब्बा बंद खाने की वस्तुओं पर लगे पोषण तथ्य लेवल की टीएफए तत्व जानने के (अगर निर्दिष्ट हो) लिए जांच करें।
Ø कमी डिब्बा बंद खाद्य पदार्थों की अवयव सूची की “कमी”, “आशिंक रूप से हाईड्रोजनकृत वनस्पति तेल या हाईड्रोजनकृत वनस्पति तेल जैसे शब्दों के लिए जांच करें क्योंकि इनमें ट्रांसवसा होती है।”
Ø कुकीज, चिप्स, केक्स और पेटिस जैसे संरक्षित पदार्थों से बचें। इसके अलावा वाणिज्यिक तौर पर तले पदार्थों और मिठाई विशेष रूप से वनस्पति/पीएचवीओ में तैयार मिठाई न खाएं और इनकी मात्रा सीमित रखने के साथ-साथ इन्हें बार-बार खाने से बचें।
Ø घर से बाहर खाने/खाने के लिए बाहर से आदेश देते समय यह पता लगाने की कोशिश करें कि खाना बनाने में कौन-सा तेल प्रयोग हो रहा है। अगर संभव हो तो खाना बनाने में कम-से-कम तेल प्रयोग करने को कहें।
Ø बिस्कुट औऱ केक जैसी बेकरी वस्तुओं के लिए अर्द्ध ठोस स्वरूप वाला लाल पाम ऑयल अन्य खाद्य तेलों के साथ 1:1/1:2 में मिलाकर प्रयोग करें। इससे खाद्य वस्तु में बीटा-कैरोटिन/विटामिन-ए बढ़ जाएगा। अर्द्ध ठोस स्वरूप के कारण आरपीओ, टीएफए तत्व में बिना कोई बढ़ोतरी किए बेक की गई वस्तुओं में कमी होने के प्रभाव को दूर करेगा।
Ø नीति, व्यवहार और शिक्षा के परिणाम : अधिकारियों को वनस्पति और मारगेराइन के प्रयोग पर नजर रखने और बार-बार गर्म किये गये वसा/तेलों के अधिक प्रयोग को नियंत्रित करने की आवश्यकता है। हलवाइयों को फ्राई करने के लिए बार-बार तेल का इस्तेमाल न करने की सलाह दी जानी चाहिए। इसके स्थान पर प्रयोग किये गये तेल को सब्जियों, कढ़ी, आटा बनाने और पुलाव आदि तैयार करने में इस्तेमाल किया जाना चाहिए। हलवाइयों को टीएफए और उसके स्वास्थ्य पर पड़ने वाले बुरे प्रभावों के बारे में पौष्टिक शिक्षा देने की आवश्यकता है। इसके साथ-साथ फ्राई करने के सही तरीकों के बारे में भी उन्हें प्रशिक्षित किया जाना चाहिए।
Ø सरकार को वनस्पति तेलों और संसाधिक/फराई किये गये भोजन में टीएफए और एसएफए की मात्रा के बारे में प्राप्त की जाने वाली निम्न सीमाएं निर्धारित करने पर विचार करना चाहिए। संसाधित खाद्य पदार्थों पर पौष्टिकता संबंधी लेबलों में टीएफए और एसएफए की अलग-अलग मात्रा और अनुसंशित इष्टतम रेंज भी इंगित की जानी चाहिए। रेस्तरों को आंशिक हाइड्रोजनीकृत तेलों का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। अन्यथा इसके प्रयोग के बारे में बताया जाना चाहिए।
Ø साथ ही, उपभोक्ताओं को टीएफए के प्रयोग का स्वास्थ्य पर पड़ने वाले बुरे प्रभाव के बारे में जानकारी दी जानी चाहिए। तेल संसाधन के बारे में खाद्य उद्योग को नई तकनीकों को काम में लाना चाहिए जिससे वांछित गुणों वाले उत्पादों में टीएफए की मात्रा शून्य के बराबर होगा। खाद्य आपूर्ति श्रृंखला से औद्योगिक रूप से उत्पादित टीएफए को सफलतापूर्वक कम करने के लिए बहुक्षेत्रीय दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है। ट्रांस-फैट या टीएफए वाले भोजन के प्रयोग को हतोत्साहित करने के अभियान अत्यधिक सहायक हो सकते हैं।
जहां कतिपय विकासशील देशों में खाद्यान्न में टीएफए के मापदंड निर्धारित किए हैं, वहीं भारत को वसा/तेल के साथ-साथ वाणिज्यिक खाद्य वस्तुओं के संबंध में कड़े विनियम बनाने की आवश्यकता है। अतः औद्योगिक केंद्रीय के साथ-साथ घर में बने भोजन के माध्यम से अत्यधिक वसा के इस्तेमाल को रोकने की आवश्यकता है।
अपने खाने में अधिक वसा से सावधान रहें, इनके अधिक सेवन से नपुंसकता/जीवन शैली रोगों के जोखिम पैदा होते हैं। हाईड्रोजनीकृत वसा/तेल और हाईड्रोजनीकृत वसा/तेल में तैयार उत्पादों को न खाएं तथा तले पदार्थों/ वाणिज्यिक रूप से तैयार खाद्य वस्तुओं का कम-से-कम इस्तेमाल करें।
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* डॉ. संतोष जैन पासी, विशेषज्ञ, जन स्वास्थ्य पोषण (पूर्व निदेशक इंस्टीट्यूट ऑफ होम इकनॉमिक्स, दिल्ली विश्वविद्यालय)
** सुश्री आकांक्षा जैन रिसर्च एसोसिएट