आशीष कुमार ‘अंशु’
बेतिया के अपने गजोधर भइया से अभी कुछ ही दिन पहले ही बातचीत हुई। वह वर्तमान राजनीति की स्थिति को लेकर बेहद चिन्तित दिखे। उन्होंने फोन से जो कहा, उस बातचीत के मुख्य हिस्से को आपके सामने रख रहा हूं।
क्या बताएं सर अब चुनाव वगैरह में रुचि बिल्कुले खत्म हो गया है। किसका नाम लें, किसको छोड़े। सब एक ही जैसे हैं। कोई सज्जन नहीं है। वैसे भी सज्जन-सज्जन भाई नहीं होते, लेकिन चोर-चोर मौसेरे भाई साबित होते हैं। बेजाय हो जाती है जनता। अब देखिए ना रामविलास और लालू दोनों एक-दूसरे को बिहार में देखना नहीं चाहते थे। आज दोनों में दांत काटी रोटी हो गई है। साधु अपने जीजा (लालू प्रसाद) और दीदी (राबड़ी देवी) को छोड़कर कांग्रेस के साथ खड़े हो गए हैं। सिर्फ टिकट नहीं मिलने की वजह से। सर, जो सत्ता के लिए अपनी बहन का नहीं हुआ, वह उम्मीद रखता है कि जनता उसकी होगी। दूसरी तरफ लालूजी का सोचिए, जो अपने साले का विश्वास नहीं जीत पाए। वे जनता का ‘विश्वास’ जीत रहे हैं।
बेतिया सीट पर इस बार कांटे की टक्कर है। सब धुरंधर योध्दा खड़े हैं। लेकिन हम सोचते हैं कि बैलेट पेपर पर एक ‘इनमें से कोई नहीं’ का विकल्प होता तो वहीं मोहर मार आते। साधु यादवजी कांग्रेस से खड़े हैं। उनके संबंध में क्या बताएं? उनको सब कोई जानता है। बिहार में कौन है, जो शाहबुद्दीन, सूरजभान, पप्पू यादव, साधु यादव को नहीं जानता हो। बिहार में रहने वाले व्यावसायियों के लिए तो ये नाम प्रात: स्मरणीय हैं।
लोकजनशक्ति पार्टी रामविलास पासवान की पार्टी है। इनकी पार्टी से उम्मीदवार हैं प्रकाश झा। ये नीतिश के खास लोगों में गिने जाते थे। कहा जाता है, बेतिया से इनकी टिकट पक्की थी। लेकिन यह भी सच है कि राजनीति में कुछ भी पक्का नहीं होता और यहां कोई किसी का सगा नहीं होता। प्रकाश झा वही हैं, जिन्होंने पिछली दफा लोकसभा चुनाव में निर्दलीय चुनाव लड़कर 25,700 मतों से अपनी जमानत जप्त कराई थी। वे अपने एनजीओ और जमीन संबंधी विवादों को लेकर चर्चा में रहे हैं। सर, बेतिया के लोगों का तो साफ मानना है कि वे एक नंबर का पैसा बनाएं हैं या दो नम्बर का, यदि उस कमाई का एक हिस्सा वे जिला के विकास पर खर्च कर रहे हैं तो भले आदमी हैं। पहली बार जब वे चुनाव लड़े थे तो बिल्कुल नौसिखुए थे। इस बार बेतिया के मुस्लिम बस्ती मंशा टोला के एक मस्जिद से जब उन्होंने चुनाव प्रचार का शंखनाद किया तो इस बात में कोई संदेह नहीं रहा कि अब वे भी राजनीति के दांव-पेंच अर्थात् वोट बैंक पॉलिटिक्स समझ गए हैं।
संजय जायसवाल बेतिया से भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार हैं। संजय पार्टी प्रत्याशी कैसे बन गए, यह तो अरुणजी जेटली के भी लिए संशय का विषय है। राजनाथजी ने सोचा होगा कि हाल ही में पिताजी (स्व. मदन प्रसाद जायसवाल) की मृत्यु हुई है, सहानुभूति के वोट के सहारे संजय वैतरणी पार कर जाएंगे। लेकिन बेतिया की जनता बहूत कन्फ्यूजन में है। यह संजय भाजपा उम्मीदवार है या लालटेन का। हो सकता है संजय के बहुत से चाहने वाले बैलेट पर उन्हें लालटेन में तलाशें। और वहां लालटेन ना मिलने पर निराश होकर लौट आएं। ज्यादा मुश्किल उन भाजपाइयों के लिए भी है, जिन्होंने पार्टी छोड़कर जानेपर जायसवाल परिवार को पानी पी-पी कर कोसा है। संजय के पिता डा. मदन प्रसाद जायसवाल को भाजपा उम्मीदवार के तौर पर बेतिया की जनता ने सिर आंखों पर रखा, उस दौर में जब राज्य में राजद का बोलबाला था। विधानसभा में ‘इन्हीं ‘संजय’ को टिकट ना मिलने की वजह से ‘इन्हीं संजय’ के दबाव में आकर पिता ने राजद का दामन थामा था। और आज भाजपा ‘इन्हीं संजय’ को अपना उम्मीदवार बना रही है। इस फैसले से बिहार में पार्टी कितनी लाचार है, यही बात साबित होती है।
इन तीन बड़े उम्मीदवारों के बाद कुल जमा बचे दो ‘टक्कर’ में शामिल उम्मीदवार। एक गुप्ता फोटो स्टेट वाले शंभू प्रसाद गुप्ता। जो बहुजन समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार हैं। दूसरे हैं सीपीएम की तरफ से चुनाव लड़ रहे सुगौली विधानसभा क्षेत्र से पांच बार विधायक रहे रामाश्रय प्रसाद सिंह। यह उम्मीदवार द्वय चुनाव जीतने के लिए चुनाव लड़ ही नहीं रहे हैं। जमानत बचाने के लिए मैदान में है। यदि इन दोनों ने अपनी जमानत बचा ली, यही उनकी सबसे बड़ी जीत होगी। जय हो!!!
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