विशाल कृष्ण सिंह की पांच रचनाएँ
1- इन दिनों
ना जाने क्या धंस गया है
अचानक से
सीने के बीचों बीच
कि
एक शुन्य फैलता जा रहा है मुझमें
कि बातें तो अभी भी बहुत है
जो तुमसे कहनी है
बहुत कुछ बाकी है
जो तुम संग बांटने की चाह है
पर कोई है मुझमें
जो थक गया है
शब्दों के पीछे भाग भाग कर
जो थोडा ठहर जाना चाहता है
चुप्पियों के बीच
2- मैं जब भी
आराध्य भाव में देखता हूँ
शिवलिंग
तो अंतः गहरे महसूसता हूँ
श्रृष्टि के अकाट्य सत्य को ,
रचना की संस्कृति की
साहचर्य के सम्मान को |
आश्चर्य से महसूसता हूँ
कि कितने गहरे जुड़े है
स्त्री पुरुष का सम्बंध
सृजन में
जनन में
रचना में
निराशा से देखता हूँ
अपने आस पास
विकृति
सच
भ्रम
असम्मान
कि मिलन तो
एक प्रार्थना है
आत्मिक स्वीकृति है
एक जिम्मेदारी है
जननी के सच्चे स्वरूप के प्रति
बेहद जरूरी है हमारा
सम्बन्ध में शिव होना
और देख पाना
अपने देह में छिपी आधी स्त्री |
3- दीदी
…………………..
एक कोना है तू
मेरी बातों का
मेरी जिद्द का
लड़ाई का
गुस्से का
हक का
पर तेरे जाने के बाद
अब कोई नहीं होता
जो झट से दे दे
अपने हिस्से के जमा पैसे
मेरी छोटी छोटी चाहतों पर
घर में
मैं और माँ
कम बतियाते है
माँ जल्दी सो जाती है
और मैं देर तक दरवाजा तकता रहता हूँ
मैं जब भी तेरे घर जाता हूँ
हैरान सा देखता हूँ
कैसे पापा की नाजुक सी लड़की
बरगद बन गई है
कैसे तू सबके लिए
गहरी नदी बन जाना चाहती है
ताकि जीती रहे हर रंग की मछलियां |
मैं जानता हूँ
कि तू आज भी मुझे सुनना चाहती है
पूरा का पूरा
पर मैं ही अब शब्द खाने लगा हूँ
मैं बदला नहीं दी
बस मुझे तेरी मुस्कुराहट की फिक्र है
आज तुम सब से दूर
यहाँ कोई नहीं
तो मैंने खुद ही राखी बांध ली
और देर तक
तेरा चेहरा महसूसता रहा राखी में |
4- एक मुलाकात
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मुझे पहाड़ पसंद थे
तुम्हें नदी ,
हाँ तुम संग थोडी नदी मुझमें भी बहने लगी थी,
ठीक वैसे ही जैसे
मुझ संग तुम जी रही थी एक खामोश पहाड़ |
हम पहाड़ों पर गये तुमने धूप से जला मेरा चेहरा देखा|
और झट से सूरज और चेहरे के बीच अपनी पीठ रख दी,
मेरा चेहरा बर्फ सा शीतल हो उठा
और बिन कुछ कहे
मुझे नींद आ गयी |
जब उठा
तो मेरी नजर पानी से सड़ रहा तुम्हारे अंगूठे को निहारने लगी |
मै व्याकुलता से
दवा वाले शब्द ढुंढने लगा |
तुमने मेरे होठों पर उंगली रखी
और आंखों में ऐसे देखे
मानो कोई पुल बन गया हो
हवा में
और बटने लगा दर्द
आधा आधा |
तब शाम होने को थी
मुझे पहाड़ो पर लौटना था
तुम्हें नदी को |
पर शायद ,
वहाँ कुछ था
जो छूट रहा था
जिसको बचा लेना बहुत जरूरी था |
हम जान कर भी
अनजान बने रहे
और लौट गये
अपने अपने रास्ते,
रास्ते जो दोनों छोर से जुडें थे
और इकलौते गवाह थे
नदी और पहाड़ के बीच
इस मुलाकात के |
……………………………….
मैं नहीं चाहता था
तुम ठहर जाओ
इक मुलाकात में
ताउम्र,
इसलिए कभी नहीं बताया
वो तमाम फिक्र,
जो तुम्हारे लिए
आज भी पल रही हैं
अन्दर ही अन्दर )
5-बच्चे कहाँ लिख पाते है कविता
कविता लिखने के लिए
जरूरी होता है
उनका बडा होना |
बडे कहाँ जी पाते है कविता
कविता जीने के लिए
जरूरी होता है
उनका बच्चा होना |
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परिचय :-
विशाल कृष्ण सिंह
मै खुद को बचाए रखना चाहता हूँ और तुम कहते हो / अब बचपना छोडो यार
प्रगतिशील युवा रचनाकार हैं
आपकी रचनाएँ बेहद संवेदन शील होती हैं
आप सेंट्रल में सरकारी नौकरी में हैं !
इस समय बैंगलौर में रह रहे हैं !
संपर्क : 094352 72073