– तनवीर जाफरी –
‘सबका साथ-सबका विकास’ जैसे लोकलुभावने नारे के साथ पूर्ण बहुमत से केंद्र में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सत्ता में आई भारतीय जनता पार्टी की सरकार अपने मात्र डेढ़ वर्ष के शासनकाल में देश के नामी-गिरामी लेखकों,साहित्यकारों तथा िफल्म जगत के जाने-माने कलाकारों व बुद्धिजीवियों के भारी विरोध का सामना कर रही है। देश में इन दिनों असहिष्णुता का जो वातावरण दिखाई दे रहा है उससे देश का अल्पसंख्यक एवं दलित वर्ग काफी भयभीत नज़र आ रहा है। देश की एकता और अखंडता की रक्षा के प्रति चिंतित रहने वाला देश का बुद्धिजीवी वर्ग वर्तमान सरकार की सांप्रदायिकतापूर्ण विचारधारा को लेकर काफी चिंतित है। सत्ता से जुड़े तथा सत्ता में जि़म्मेदार पदों पर बैठे लोग अपने एक सधे-सधाए एजेंडे पर चलते हुए जब और जहां चाहे ज़हरीली भाषा का प्रयोग करते देखे जा रहे हैं। यहां तक कि भारतीय जनता पार्टी तथा इससे संबंधित कई हिंदुवादी संगठनों के नेता 2020 तक देश से अल्पसंख्यकों के सफाए की बात सार्वजनिक रूप से करते हुए नज़र आ रहे हैं। और ‘सबका साथ-सबका विकास’ का दावा करने वाले हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ऐसी बयानबाज़ी करने वालों पर नकेल कसना ज़रूरी नहीं समझते। असहिष्णुता का यह आलम है कि लोकतांत्रिक तरीके से अपनी बात कहने वाले एमएम कुलबर्गी,गोविंद पानसरे तथा नरेंद्र दाभोलकर जैसे बुद्धिजीवियों को कट्टरपथियों द्वारा मौत की नींद सुला दिया जाता है।
अपनी पीठ थपथपाने तथा लोगों को जबरन फील गुड का एहसास कराने में माहिर दक्षिणपंथी विचारधारा के यह लोग देश की जनता का ध्यान कमरतोड़ मंहगाई व बेरोज़गारी से हटाकर गाय,गंगा,लवजेहाद,घर वापसी व अल्पसंख्यकों की जनसंख्या वृद्धि जैसे उन निरर्थक परंतु संवेदनशील विषयों की तरफ ले जा रहे हैं जिसका आम लोगों के जीवनयापन से कोई सरोकार नहीं है। गत् सत्तर वर्षों से जिस पड़ोसी देश नेपाल के साथ भारत के मधुर व विश्वासपूर्ण रिश्ते थे वही नेपाल अब भारत के हाथों से फिसलकर चीन की आग़ोश में जाता दिखाई दे रहा है। ताज़ा प्राप्त समाचारों के अनुसार पैट्रोलियम पदार्थों को लेकर भारत व नेपाल के बीच चार दशकों से चला आ रहा इंडियन ऑयल कारपोरेशन का एकाधिकार अब समाप्त हो गया है। नेपाल ऑयल कारपोरेशन व पैट्रो चाईना के साथ हुए एक नए समझौते के तहत चीन नेपाल को एक हज़ार टन तेल अनुदान के रूप में देने जा रहा है। गौरतलब है कि नेपाल पैट्रोलियम पदार्थों के लिए पूरी तरह से भारत पर निर्भर था जो अब अपनी पैट्रोल-डीज़ल संबंधी ज़रूरतें चीन से पूरी करेगा। परंतु हमारे प्रधानमंत्री ने नेपाल के साथ गलबहियां करने का ऐसा निरर्थक नाटक रचा गोया भारत व नेपाल दो सगे भाईयों जैसे देश बनने जा रहे हैं। अन्य पश्चिमी देशों के साथ भी रिश्तों की कुछ ऐसी ही हकीकत है। परंतु देश के लोगों को यही समझाया जा रहा है कि गत् डेढ़ वर्ष में भारत ने नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में अपना सिर इतना ऊंचा उठाया है जितना पहले कभी नहीं था। परंतु सच्चाई ठीक इसके विपरीत है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि बनने अथवा देश का इकबाल बुलंद होना तो दूर, देश के महामहिम राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी देश के वर्तमान हालात से चिंतित होकर मात्र एक सप्ताह में दो बार अपनी चिंताएं व्यक्त कर चुके हैं। देश में बढ़ती धार्मिक असहिष्णुता के विरोध में देश के दर्जनों नामी-गिरामी लेखक व साहित्यकार अपने पुरस्कार तथा अवार्ड आदि वापस लौटा कर अपना विरोध दर्ज करा रहे हैं। िफल्म उद्योग से जुड़े लगभग एक दर्जन लोग लेखकों व साहित्यकारों की तजऱ् पर अपने पुरस्कार सरकार को वापस कर रहे हैं। 1990 से 1993 के मध्य जलसेना अध्यक्ष रहे एडमिरल रामदास ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी को पत्र लिखकर इस बात के लिए आगाह किया है कि देश का नेतृत्व राष्ट्रीय स्वयं संघ के एजेंडे को आगे बढ़ा रहा है। और ऐसा करना आग के साथ खेलने के समान है।
गोया देश का प्रत्येक वह वर्ग जो देश की धर्मनिरपेक्षता,भारतीय संविधान, यहां की सांझी संस्कृति व तहज़ीब, अनेकता में एकता,अहिंसा तथा सर्वधर्म संभाव व सांप्रदायिक सौहाद्र्र जैसे मूल भारतीय विचारों का पक्षधर है उसमें वर्तमान सरकार व उसके खतरनाक एजेंडे को लेकर चिंता बढ़ती जा रही है। आज धर्मनिरपेक्षतावादी तथा राष्ट्रीय एकता व अखंडता वाले भारतवर्ष के नागरिक उस मज़बूत भारतवर्ष को याद कर रहे हैं जिसने कभी अपनी एकता व धर्मनिरपेक्षता की शक्ति की बदौलत विश्व की सबसे मज़बूत समझी जाने वाली अंग्रेज़ हुकूमत को भारत से उखाड़ फेंका था। आज उस शक्तिशाली भारत व मज़बूत नेतृत्व को देश याद कर रहा है जिसने मात्र 11 दिन के युद्ध में बंगला देश नामक नए राष्ट्र को जन्म देने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। देश के लोग आज उस भारत को याद कर रहे हैं जो िफदेल कास्ट्रो,चेगयोवेरा,नेल्सन मंडेला तथा मार्टिन लूथर किंग जैसे विश्व के महान नेताओं के साथ मज़बूती से खड़ा दिखाई देता था। उस भारतवर्ष को आज याद किया जा रहा है जिसने यासिर अराफात तथा िफलिस्तीनी आंदोलन का हमेशा कंधे से कंधा मिलाकर साथ दिया। वह भारत जिसने कभी अमेरिका की खुशामदपरस्ती करनी ज़रूरी नहीं समझी, जिसने अफ्रीका में रंग-भेद प्रथा का विरोध किया, जिसने देश को जय जवान-जय किसान और समाजवाद लाओ जैसे नारे व आंदोलन दिए। जिसने देश में हरित क्रांति पैदा की। जिस भारत ने देश को परमाणु क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाया और जो भारत निर्गुट राष्ट्र सम्मेलन का संस्थापक राष्ट्र हुआ करता था। आज देश उस प्रगतिशील,सहिष्णुशील तथा शांति व सद्भाव की मिसाल कायम करने वाले भारत को याद कर रहा है।
दूसरी ओर ‘सबका साथ-सबका विकास’ की बात करने वाले सत्तारूढ़ दल के नेता देश की जनता को इस बहस में उलझाने में लगे हुए हैं कि किस व्यक्ति को क्या खाना चाहिए और क्या नहीं? दालों के दाम देश में दौ सौ रुपये किलो तक पहुंच चुके। यानी दाल आम आदमी की पहुंच से बाहर हो गई है। और सस्ता मांस खाने पर यह ताकतें पाबंदी लगाना चाह रही हैं। सवाल यह है कि इन हालात में आम आदमी के पास रास्ता ही क्या बचा है। भारतवर्ष में मुख्यमंत्री जैसे अत्यंत महत्वपूर्ण पद पर बैठे दक्षिणपंथी नेता सार्वजनिक रूप से यह फरमा रहे हैं कि मुसलमान इस देश में रह सकते हैं लेकिन उन्हें बीफ खाना छोडऩा पड़ेगा। बड़े आश्चर्य की बात है कि बीफ मांस को लेकर दक्षिणपंथी नेता धर्म विशेष के लोगों पर ही निशाना साधते हैं। यह लोग केरल तथा पूर्वोत्तर राज्यों के लोगों को बीफ अथवा गौमांस खाने के लिए अपने निशाने पर नहीं रखते। इससे साफ ज़ाहिर होता है कि धर्म विशेष के लोगों को मांसाहार अथवा जनसंख्या वृद्धि अथवा लव जेहाद या घर वापसी जैसी बातों को लेकर प्रोपेगंडा करना इनके गुप्त एजेंडे का एक अहम हिस्सा है। ऐसा कर यह शक्तियां देश के मतदाताओं को धर्म के नाम पर विभाजित करना चाहती हैं तथा इस धर्म आधारित ध्रुवीकरण का लाभ स्वयं को सत्ता में बनाए रखने के लिए उठाना चाहती हंै। फिर आिखर ‘सबका साथ-सबका विकास’ जैसे नारे का अर्थ ही क्या है? क्या यह नारा महज़ दुनिया को सुनाने के लिए है या फिर इनके लिए ‘सब’ का अर्थ ही कुछ और है?
इसमें कोई संदेह नहीं कि लोकतांत्रिक तरीकों से चुनी गई किसी भी सरकार का सम्मान किया जाना चाहिए और निर्वाचित सरकार निश्चित रूप से सर्वमान्य सरकार समझी जाती है। पंरतु इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की हिंदुत्ववादी विचारधारा का राजनैतिक प्रतिनिधित्व करने वाली भारतीय जनता पार्टी देश के अनेकता में एकता जैसे मूल सिद्धांतों के विरोध में खड़ी दिखाई दे रही है। यह दल ध्रुवीकरण की राह पर चलकर देश को संघर्ष के रास्ते पर ले जा रहा है। यदि देश पर मंडराते इन खतरों से चिंतित देश का बुद्धिजीवी वर्ग अपने पुरस्कारों अथवा सम्मानों को इन हालात के विरोधस्वरूप वापस लौटा रहा है तो इसमें किसी को क्या आपत्ति हो सकती है। आज अनेक लेखक व साहित्यकार ऐसे भी हैं जो इन विघटनकारी हालात के पक्षधर हैं और देश में जो कुछ घटित हो रहा है उसके समर्थन में खड़े दिखाई देते हें। यदि सरकार अपने ऐसे समर्थकों व शुभचिंतकों को सम्मानित अथवा पुरस्कृत करती है और कई लोगों को कर भी चुकी है तो इसमें भी किसी को आख़्िार क्या एतराज़ हो सकता है? पुरस्कार व सम्मान वापस करने वाले लेखकों व साहित्यकारों अथवा कलाकारों के पास वर्तमान व्यवस्था तथा देश के बिगड़ते हालात के प्रति अपनी चिंता व विरोध जताने का इसके सिवा दूसरा रास्ता हो भी क्या सकता है? आज देश का कोई भी शुभचिंतक तथा भारत की एकता व अखंडता को सर्वोपरि समझने वाला भारतीय नागरिक देश के वर्तमान हालात के प्रति बेहद गंभीर व चिंतित है। देश को इन परिस्थितियों से यथाशीघ्र उबारने की कोशिश होनी चाहिए।
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Tanveer Jafri
Columnist and Author
Tanveer Jafri, Former Member of Haryana Sahitya Academy (Shasi Parishad),is a writer & columnist based in Haryana, India.He is related with hundreds of most popular daily news papers, magazines & portals in India and abroad. Jafri, Almost writes in the field of communal harmony, world peace, anti communism, anti terrorism, national integration, national & international politics etc.
He is a devoted social activist for world peace, unity, integrity & global brotherhood. Thousands articles of the author have been published in different newspapers, websites & news-portals throughout the world. He is also a recipient of so many awards in the field of Communal Harmony & other social activities
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