कविताएँ
1-
अब हम तुम्हारी शतरंज के मोहरे नहीं
कि दांव पे लगें हम
और खेलो तुम
आग में झुलसे हमारे घर
और रोटियां सिकें तुम्हारी
पहचान ली है तुम्हारी चालें
तुम्हारी फितरत
एक सा सुलूक करती है
उस नियंता की कुदरत !
अपनी नफ़रत की आग से
जला लो अपने घर की सिगड़ी
बहुत झुलस लिए उस आग में
अब तो हमें संवारनी है बात बिगड़ी !
2-
इंतज़ार –
एक औरत ताउम्र बाट जोहती है
कि उसे एक नाम से पुकारा जाये ऐसे
कि नाम के आगे पीछे उग आयें कई सारे नाम
और वह अपना नाम भूल जाये …
एक औरत ताउम्र बाट जोहती है
कि उसके बालों में फिराई जायें उंगलियां ऐसे
कि सिमटे हुए बालों को बिखेर दिया जाये संवारते हुए
और वह उन्हें फिर कभी न संवारे …
एक औरत ताउम्र बाट जोहती है
कि उसकी आंख से आंसू ढुलकने से पहले ही
एक हथेली पलकों के नीचे फैल जाये ऐसे
कि कसकती नमी आंखों की राह भूल जाये ..
एक औरत ताउम्र बाट जोहती है..
बस बाट ही जोहती है ….
_______________
सुधा अरोड़ा
लेखिका एवं विचारक
कलकत्ता से शिक्षा प्राप्त की
मुंबई में रहती हैं
________________
___________________
____________________________