कहानी —– ” साँवली ”
सांवली की बड़ी-बड़ी आँखें आश्चर्य से और बड़ी हो पूरे कमरे का मुआयना कर रहीं थीं .एक जगह बैठे -बैठे ही जितने दृश्य समेट सकती थी मुँह खोले समेट रही थी..माँ ने उसके सर पर एक चपत लगाते हुए बोला
‘’बावली सी क्या देख रही है री,नमस्ते कर मेमसाब को’’
अचानक पडी इस चपत से एक सम्मोहन टूटा तो दूसरा पैदा हो गया. मेमसाब को नमस्ते करने के लिए जुड़े हाथ जुड़े के जुड़े रह गए
‘’दादा! रे दादा ! लग रहा है सफ़ेद पत्थर की मूरत पर आँख,नाक, मुँह बना दिए हैं ईस्वर ने’’
‘क्या नाम है तेरा? ‘
प्रश्न उस तक आया
जवाब गले में ही अटक गया .माँ ने चिकोटी काटी
‘’फूट ना मुँह से नाम भी भुलाय गयी क्या’’
‘’सांवली’’
किसी तरह थूक गटकते हुए वो बोली
‘’सब काम ठीक से कर पाएगी ना ?मेरे पास सिखाने और बताने के लिए बिलकुल टाइम नहीं है ,घर में बस तीन लोग हैं . सारा काम सलीके और सफाई से करना होगा,झाड़ू -पोंछा और डस्टिंग सुबह ८ बजे तक हो जानी चाहिए,८:३० बजे सिद्धू को स्कूल बस पर छोड़ने जाना होगा .बरतन धोना, मशीन में कपड़े लगाना, कपड़े प्रेस करना ..बस यही काम हैं ‘
मेमसाब एक साँस में काम गिनवाती चलीं गईं .पर सांवली का तो सारा ध्यान ड्राइंगरूम की सजावट देखने में मस्त था एक्वेरियम में दौड़ती रंग-बिरंगी मछलियाँ,सिनेमाघर के परदे ,जितना बड़ा टीवी, मोटा कालीन,गुदगुदे सोफे,शोकेस में रखीं बड़ी बडीं गुड़ियाँ…..
‘’काश!!!! वो भी इस घर में रह पाती ..कितना ठंडा हो रहा है पूरा घर …एक हमारी झोपडी..हुंह …गरमी में तपती है,बारिश में चूती है और सरदी में हड्डी-हड्डी अकड़ा देती है ..काम की बात तय होचुकी थी अब बात पैसों की चल रही थी …इस विषय में भी सांवली की कोई रूचि नहीं थी ..पर वो चाह रही थी यहाँ बात बन ही जानी चाहिए ,पिछला वाला घर भी कितना सुन्दर था पर वहाँ बात पैसों पर ही अटक गयी थी ..उसका बस चलता तो तभी माँ से कह देती कि ‘माँ तू जा मै तो इतने में ही काम कर लूँगी.’ पर डर से कुछ ना बोल सकी और बेमन से वहाँ से चली आई थी.कहीं आज भी वैसा ही न हो जाए
‘हे इस्वर माँ की बुद्धी ठीक रखना ‘
बात १५०० पर तय हो गयी थी महीने में दो दिन के लिए घर जाने देने की बात भी मेमसाब ने माँ की मान ली थी
‘तो कब से भेजूं इसे ?’ माँ ने पूछा
‘’अरे कब क्या कल ही ले कर आजा ,अभी तो काम समझाने में ही कई दिन लग जायेंगे उतने दिनों के पैसे तो वैसे ही फालतू जाने हैं ‘’
मेमसाब बोलीं
सांवली तो माँ की हाँ सुनते ही जाने किस दुनियाँ में चली गयी
‘वाह!! अब तो वो इतने बड़े घर में रहेगी .चलो छुटकारा मिला उस गंदी सी झोपडी से,रोज़-रोज़ बस्ती के नल पर पानी भरने की खिचखिच से,रोज़ बिजली के लिए लंगड़ डालने की ताक में रहने की मुसीबत से ,हाँ कुछ साथी जरूर छूटेंगे ,कल्लो बुआ को छेड़ना,रमिया चची से बतखोरी टिकू भैया का गाना सुनने के लिए मिठाई मिलना ये सब अब नहीं हो पायेगा पर फिर भी क्या हुआ इस महल में रहने के लिए तो वो कुछ भी छोड़ सकती है
रात होते होते माँ-बेटी दोनों घर पहुँच गईं ,जल्दी-जल्दी तैयारी करनी है क्योंकि कल सुबह ही निकलना होगा पहुँचने में ६ घंटे लगते हैं .घर में घुसते ही बाबु ने पूछा
‘हो गयी बात पक्की ?’
”हाँ हो गयी ‘
माँ खाना बनाने की तैयारी में व्यस्त हो गयी, और सांवली थैले में अपना सामान रखने में
खाना खाकर लेटी तो मारे ख़ुशी के आज नींद कोसो दूर थी आँख बंद करते ही महल सा घर दिख रहा था ..पता नहीं कब सोयी
हसन मामू के मुर्गे की बांग ,पडोसी के लोहार कक्का की ‘ठक-ठक धडाक’,रमिया चाची और राधादीदी की रोज़ नलके पे होने वाली लडाई की आवाज़ ही रोज़ उसे जगाने का काम करते हैं पर आज इन सब से कुढ़ने की जगह वो तेजी से उठ दांतून-कुल्ले को दौड़ पडी कल से इन सारी मुसीबतों से छुटकारा मिल ही जायेगा
शाम के तीन बजते बजते दोनों बंगले में पहुँच गयी मेमसाब भी इंतज़ार में थीं पहुँचते ही बोलीं चलो तुम्हारा कमरा दिखादूं .बंगले के पीछे का हिस्सा जो सांवली नहीं देख सकी थी वहाँ दो कमरे बने थे एक कमरे में पता नहीं क्या था पर दुसरे कमरे में एक चौकी एक लकड़ी की अलमारी और एक मेज-कुर्सी रखी थी ये तुम्हारा कमरा है सांवली तो जैसे धडाम से गिरी
‘वो इस कमरे में रहेगी ?’
फिर उसने खुद को समझाया
‘पगली उस झोपडी से तो अच्छी ही है ये …..फिर कौन सा सारे दिन यहाँ रहना है बस रात में सोने ही तो आना होगा …पंखा भी है बटन दबा और हवा फर-फर करने लगेगी ‘
माँ जल्दी ही वापस चली गयी माँ के जाते ही मेमसाब बोलीं—–
‘ हाथ-पैर धोकर और कपड़े बदल कर जल्दी से आओ और काम समझ लो’
माँ के रहने तक तो उसे जो तसल्ली थी उसका पता उनके जाने के बाद पता चला .धड़कन बढ़ती जा रही थी जी घबडा रहा था कमरे में अकेले खडी-खडी हिम्मत जुटाती रही फिर कपड़े बदल कर घर के अन्दर पहुँची …मेमसाब और साब बैठक में थे मेमसाब ने बोला जा रसोंई में रानी चाय बना रही है ले कर आ चाय की ट्रे हाथ में पकड़ते ही प्यालों और चम्मचों के कम्पन से झन्न-झन्न का सगीत गूँज गया कांपती हुयी किसी तरह चाय ले कर पहुंची धीरे से उसे मेज़ पर रखा और वही खडी हो गयी ..मेमसाब मुलाइमियत से बोली अभी फुर्सत में हूँ बैठ काम समझा दूं .इतनी तो अच्छीं है मेमसाब वो बेकार ही डर रही है सारे काम को सुनने के बाद उसे कुछ समझ में आया कुछ नहीं बस ये समझ पायी उसे सुबह हर हाल में ५:३० बजे तक उठ जाना है l
चाय के जूठे बर्तन ले वो रसोईं में पहुंचीदोपहर के खाने के बरतन भी पड़े थे …घर में भी वो बरतन धोती थी पर यहाँ तो अजीब अजीब से साबुन और बरतन थे सारे बरतन धोकर टोकरी में रखे पेट में चूहे दौड़ रहे थे दोपहर १२ बजे दो रोटी खायी थी अब तो ८;३० बज रहे थे ….पर अभी तो खाना मिलने में बहुत देर थी बैठक में मेहमान बैठे थे उनके जाने के बाद घर के लोग खाना खायेंगे फिर सब बरतन धो कर ही कुछ खाने को मिलेगा छत पर से कपड़े समेटे ,तहाया उन्हें जगह पर रखा प्रेस के कपड़े अलग रखे सब करते करते ११ बज चुके थे शरीर थक कर चूर हो चूका था मेमसाब ने खाने की थाली लगा कर दी पर ये तो वो सब नहीं था जो अभी बना था…
अपने कमरे में ले .जा वहीं जा कर खा और हाँ सिद्धू की यूनीफोर्म प्रेस कर लेना
अब तक वो इतना थक चुकी थी की खाते खाते ही सो गयी
सुबह तेज़ घंटी की आवाज़ से हडबडा कर उठी
‘पता नहीं कितना बज रहा होगा’
तेज़ी से दरवाज़ा धकेल कर घर के अन्दर पहुंची तो देखा मेमसाब लाल लाल आंख किये खडीं हैं …उसकी रूह अन्दर तक काँप गयी ….
‘६ बजे उठी है महारानी कल ही कहा था जल्दी उठना ……ये मक्कारी यहाँ नहीं चलेगी …अब खडी-खडी मुँह क्या ताक रही है जल्दी-जल्दी हाथ चला और हाँ सिद्धू की युनिफोर्म प्रेस हुयी या नहीं ?’
‘दैय्या री कल तो कमरे में जाते ही नींद आ गयी थी कहाँ होश था की प्रेस कर पाती ‘
डर के मारे आँखों में आंसू झिलमिलाने लगे मेमसाब उसे चुप खड़ा देख दांत पीसते हुए बोलीं
‘उफ़ इसका मतलब नहीं की ..चल भाग यहाँ से जल्दी से प्रेस करके ला’
वो आंसुओं को आँखों में ही रोक कर तेज़ी से भागती हुयी अपने कमरे की तरफ दौड़ी
युनिफोर्म प्रेस करके लाने के बाद आते ही सफाई में जुट गयी
धीरे-धीरे-धीरे -धीरे आदी हो गयी वो अपने काम की,डांट की,भूँखे रहने की,थकने की, आँसू पीने की, चुप रहने की
रोज़ सूरज निकालता था पर थका हुआ,रोज़ तारे चंदा दिखते थे पर धुंधले ,कहानियाँ याद थीं पर उनमे से परियां नदारत थीं तितली,फूल पौधे,सब थे पर उनके रंगों में चमकीलापन नहीं था
तीन महीने बीत गए आज माँ आने वाली थी वो बहुत खुश थी तीन महीनो की छुट्टी एक साथ ले रही थी मतलब ६ दिन की छुट्टी . माँ उसे ले कर तुरंत ही चल दी इन ६ दिनों वो दिन वो खूब मस्ती करेगी .बंगले से निकलते ही उसने एक लम्बी सी साँस ली सोंचा आज मनमर्जी खाएगी एक नयी फिराक लेगी ,चूड़ी खरीदेगी .
माँ दवाइयों की दूकान पर रुकी और उसे घर से लायी रोटी और अचार देते हुए बोली
‘’तू खा तब तक मै तेरे बाबू की दवा ले कर आती हूँ…… ‘’
वो बोली ……………….
‘’माँ पैसे देना मै आज पहले चाट खाऊँगी फिर बरफ, एक नयी फिराक भी लूँगी दीदी के दिए हुए पुराने थैले जैसे कपड़े पहन पहन कर ऊब गयी हूँ ‘’
माँ ने उसे घूरते हुए देखा और बोली…….
‘’मेमसाब ठीक ही कह रहीं थीं ठूंस-ठूंस कर खाती है और काम के नाम पर एक नंबर की चोर और आलसी …बड़े घर का माल खा खा के अब तेरे को ये सूखे रोटी क्यों भाने लगीं. ये पैसे तेरे उड़ाने के लिए नहीं हैं घर में तेरा बाप बीमार है उसकी दवा लेनी है …बेशरम कहींकी
सांवली स्तब्ध थी सूरज ,चाँद पेड़ पौधे हवा के साथ-साथ आज माँ भी बदल गयी थी मन के किसी कोने में जिंदा वो छोटी सी सांवली आज पूरी तरह से मर गयी l
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सीमा अग्रवाल
लेखिका व् कवयित्री
सीमा अग्रवाल का मूल पैतृक स्थान कानपुर, उत्तर प्रदेश है l संगीत से स्नातक एवं मनोविज्ञान से परास्नातक करने के पश्चात पुस्तकालय विज्ञान से डिप्लोमा प्राप्त किया l आकाशवाणी कानपुर में कई वर्ष तक आकस्मिक उद्घोषिका के रूप में कार्य किया l विवाह पश्चात पूर्णरूप से घर गृहस्थी में संलग्न रहीं l पिछले कुछ वर्षों से लेखन कार्य में सक्रिय हैं l इन्ही कुछ वर्षों में काव्य की विभिन्न विधाओं में लिखने के साथ ही कुछ कहानियां और आलेख भी लिखे l
संपर्क -: मोबाइल नम्बर – : 7587233793 , E mail -: thinkpositive811@gmail.com
लेखन क्षेत्र : गीत एवं छंद, लघु कथा
प्रकाशित गीत संग्रह : खुशबू सीली गलियों की
प्रकाशित कृतियाँ :
1. राजस्थान से प्रकाशित बाबूजी का भारत मित्र में दोहे एवं कुण्डलियाँ
2. शुक्ति प्रकाशन द्वारा प्रकाशित संकलन “शुभम अस्तु” में गीत संकलित
3. श्री दिनेश प्रभात द्वारा सम्पादित त्रैमासिक पत्रिका गीत गागर में गीत प्रकाशित
4. मॉरिशस गाँधी विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित वसंत एवं रिमझिम पत्रिकाओं में रचनाओ का प्रकाशन
5. ई-पत्रिका “साहित्य रागिनी” में गीत संकलन