रवि भूषण पाठक की तीन कविताएँ
शिव कुमार झा टिल्लू की टिप्पणी : रवि जी की कवितायें यथार्थ का उद्बोधन करती हैं , यह जीवन के विविध आयामों में समाहित विषमताओं पर गंभीर व्यंग्यात्मक रूप में दिखाई देती है . कही- कही तो लगता है की कवि परम्परा पर अतिक्रमण कर रहे हों लेकिन यह वास्तविकता नहीं .इनकी कविताओं में भाव सहज होतें हैं अनावश्यक रूप से अश्रु उच्छ्वास या जीवन से उचाट नहीं दिखाई देता. ये किसी वाद के कवि नहीं वरेण्य सकारामक दृष्टिकोण लिए ” प्रतिवादी कवि हैं .इनके काव्य सर्जन की यही विशेषता इन्हें औरों से अलग करती है. अपने जीवन में पालित ईमान का पालन इन्होने अपने काव्यों में भी किया है. यह इनके नैसर्गिक संतुलित जीवन शैली के साथ साथ विशाल अध्ययनशीलता का परिणाम है( शिव कुमार झा टिल्लू साहित्यकार और समालोचक )
1 . निराला और चरस
गुरू जी कहते थे कि नशापसंदी ही असली एक्सरे है
“ भाँग तो वही घोंट सकता
जिसका सोंटा शिवालय तक जाता है
गाजा तो राजा ही पीता
क्योंकि बिन घी दूध कौन गंजेड़ी जीता
कौन मंत्री दारू नहीं पीता
कि साहेब सब उसको हाथ नहीं लगाते ”
फिर सम्हल कर गुरू बताते
कि ताड़ी तो लो प्रोफाईल है
पीते ही सब कुछ बाहर
आँख मूँद मुस्कुराते
ससुरी बाजार के पास
अब भी तो नहीं
तार गाछ चढ़ने का कमर
पाखियों को पिलाने का दिल
मुक्तिबोध की बीड़ी पीते फोटू अभी भी गुरू के दिल में है
दिल जो जलता हुआ अलाव सा
गन्हाता धरती मंदाकिनी
फिर बताते धीरे से कि
वनवासियों को चाहिए भात की दारू
नशे में फसल लहलहाता
पेट ससुर भरा लगता है
चरस तो समर्पण का चरम है
मानो कवि में निराला
मेरे जैसा कौन चखता
कौन जीता कौन लिखता
कौन बकता कौन सकता है
तमाकू खाने वाले माँग देंगे
किसी से भी रत्ती भर
कहीं भी थूकेंगे ओठ भर
बतियायेंगे गामघर टोलपड़ोस मन भर
पान खिलाने की जिद करते वे बताऐंगे कि
यह तो स्वर्ग में भी नहीं मिलता
गुरू बताते हैं कि गाजीपुर के बन्दर हो गए अफीमखोर
अफीम फैक्ट्री का नाला जिस दिन नहीं रिसता
बन्दर करने लगते बैठक आंदोलन
पनभरनी घसछीलनी औरतों को रोककर
नोंचनाच छीलकाट दिखाकर गुह़यांग
करते अपनी क्रांतिगुरूजी मेरे अविश्वास पर झेंपते नहीं
बताते कि यहाँ के कुछ गाँव पिछले साठ सालों में
हो गए पूरे अफीमचट्ट
इतने कि साहब पड़ोसी गाँव के बाप बेटियाँ तक नहीं देते
कारण बिना बताए वे इंकार करेंगे
नपुंसकों की चर्चा अशुभ मानते हैं वे
2 .निराला और घूस
पता नहीं क्यों
घूस की किसी आहट पर निराला क्यों याद आ जाते हैं
पर यह सोचकर ले लेता हूँ कि मैं निराला तो नहीं
और इन पैसों को खर्च करते वक्त
निराला के साथ ही वे कवि भी याद आते हैं
जिन्होंने कभी निराला बनना नहीं चाहा
साथ ही दरबारी कालिदास भी विद्यापति भी
बाजार में डकार करते वक्त हर्ष और बाण भी
यह आश्वस्त करता है कि घूस लेकर भी
अच्छी कविता लिखी जा सकती है
शाम को बालकनी में भी निराला याद आ जाते हैं
बनाता हूँ कवच खुद के लिए
सोचता हूँ कि निराला को दुहराना भी तो ठीक नहीं
कभी कभी कर दिया छोटा सा काम
सीना फूला कर बनता हूँ खुद का भाट
लगता है स्साला मैं भी बन गया निराला !
फिर डराते हैं बाण के भूत
कोई जयदेव कोई जगन्नाथ
अपना कोई दिल्ली अपना कोई पटना
और लग जाता जुटाने गल्ला और दूध
कुछ ईंट ,गारा ,चूना से
बनाने लगता पाटलिपुत्र ,उज्जैन
तभी याद आते दारागंज और निराला
फिर बनाता बड.ा सा बाँध
मकान की कुरसी ,मजबूत कंधा छत
और जब निराला बनना संभव ही नहीं
तो क्यों न लिखी जाए मीठी तुकांत कविता
निराला बनते बनते रह जाने का दुख
हमारे युग के बुजूर्ग विद्वानों को सालता है
वे बनाते हैं निराला के कमियों की लिस्ट
यह पूरी होती जाती
हमारे युग के डायरी ,वृतांत ,स्मरण से
ं ससुर कब्जाए हैं हमारे सपने भी
कल रात ही तो प्रोफेसर पांडेय दिख गए
“ कौन कहता है कि निराला ऐसे थे
कोई चेला ,कोई स्कूल ,कोई वीडियो
या किसी अंडुल की बात मान लें हम
सही तो अंडुल ही बताएगा न
जो रहता डोलता चौबीसो घंटे ”
पांडेय जी ने विद्यालय के बाउंडरी पर थूकते कहा
अब ऐसे ही लोग हमें इतिहास पढाऐंगे !
3 . निराला ,धरती और स्त्री
निराला ने लगभग डांटते हुए कहा
“ऐसा है रामविलास कि देश कभी कभी स्त्री जैसा ही होता
वैसा ही रचने सिरजने का धैर्य
कैंची,खून,घाव का उतना ही ड्रामा
सुखांत,दुखांत का भ्रम रचता हुआ ”
निराला ने फिर साँस लेकर कहा
“देश हरदम स्त्री जैसा ही नहीं होता
कभी कभी देश छुप जाता है
लोककथाओं में सौ पचास साल के लिए
जैसा कि तिब्बत
और कभी कभी लोककथाएँ इंतजार करती हजार साल तक
छूती रोती गाती देश का पेट और पेरू
जैसा कि इजरायल
कभी कभी देश धर्मों के अहं से भी जन्मा
थोकभाव में दस्त के कीड़े की तरह
बहुत सारे देश जन्मे
कारखानों में कोयला और पानी देने के लिए
रेशम,अफीम और चाय पैदा करने के लिए भी हमें जन्माया गया
हमारी बेटियों ,माँओं को मुक्त किया गया
अपने घरों,दफतरों को चमकाने
उन्होंने मुक्ति के नाम पर एडस के द्वीप बनाए
कभी कभी देश जनमता हजारों की संख्या में
जिनके पास होता केवल नाम
उधार की स्नायु ,स्मृति लिए देश
केवल मानचित्र को ही अहं बनाते
वे ताकते मुँह दिशाओें की ओर
जड़ उसका पूरब होता
सूर्य पश्चिम में उगता
जड़ और पत्तियों का ये युद्ध
शताब्दियों चलता है
कुपोषण का ये चिह्न
जितना पीली पत्तियों पर
उतना ही कमजोर जड़ों पर ”
निराला ने थककर कहा
स्त्रियों की तरह ही राष्ट्र का भूगोल ,इतिहास एक ही नहीं होता
अपने आकार गुणधर्म में भी सब एक से एक सुंदर
दोनों रचते पुरूष के साथ
स्त्री पति के साथ
देश पुत्र के साथ
प्रसव के बाद स्त्री के पेट पर
विभाजन के बाद देश के भूगोल पर
रह जाता कुछ दाग
कुछ मरहमी
बेमरहमी
सम्प्रति : अधिकारी राज्य सेवा संवर्ग मऊ भंजन उत्तर प्रदेश
स्थायी पता : ग्राम करियन जिला समस्तीपुर बिहार
प्रकाशित कृति : रिहर्सल ( नाटक )
विशेष : आप हिन्दी और मैथिली साहित्य के चर्चित साहित्यकार हैं
संपर्क – : ईमेल : rabib2010@gmail.com , मोबाइल – : 9208490261
कवि को मै जानता हूँ, स्वभावतः रचनाकार हैं तिकड़मी नहीं, वर्तमान में हिन्दी के दस अच्छे कवियों मे मै इन्हें देखता हूँ, कविताएँ जोरदार हैं, अलग तरह की, व्यक्तित्व से भी मेल खाती है, चाहता हूँ कि यह कवि खूब लिखे, पर जानता हूँ कि जालिम दुनिया चैन से जीने नही देती, तो इसआदमी को कविता कैसे लिखने देगी? रोटी-दाल भी कोई चीज है…..
apki kavitayen gazab ki hai ..kitne chitron ko ukerte hue ….
sukhad …shiv bhai to prakhar alochk hain hi ..kya kahne…..
शानदार कविताएँ ! निराला और चरस का जबाब नहीं ! पढ़ने के बाद बहुत देर तक किसी और दुनिया में जाना पडा !
तारीफ कविताओं की करे या फिर टिप्पणी की !! समझ में नहीं आता ! कवि की कल्पनाशीलता आसमानों के भी दूर जाती हैं !
कविताएँ …बहुत उम्दा हैं तारीफ कम हैं ! निराला ,धरती और स्त्री …कविता नहीं किताब लिखी हैं आपने