-प्रभात कुमार राय –
बचपन में अपने फौजी नाना से शिकार-यात्राओं की रोमांचक कहानियाँ सुनकर तथा विद्यालय के पाठ्य पुस्तक में एक सारगर्भित श्ेार,
“सैर कर दुनिया में गाफिल, जिंदगानी फिर कहाँ?
जिंदगी गर कुछ रही तो, नौजवानी फिर कहाँ?“पढ़कर केदारनाथ (राहुलजी का बचपन का नाम) के किशोर-मन में दुनिया को देखने की अदम्य लालसा जगी जो जीवन-पर्यन्त कायम रही।
नियमित शिक्षा से वंचित एवं अत्यल्प औपचारिक शिक्षा (मात्र 8वीं कक्षा तक) के बावजूद स्वाध्याय के बल पर राहुलजी भारतीय संस्कृति, इतिहास, वेद, दर्शन एवं विश्व की अनेक भाषाओं के मर्मज्ञ विद्वान बने तथा 150 पुस्तकों की रचना की। वर्णन की कला में उन्हें महारथ हासिल था। उनकी अद्भुत तर्कशक्ति, विश्लेषण की निपुणता और अनुपम ज्ञान भंडार से प्रभावित होकर काशी के पंडितों ने उन्हें महापण्डित की उपाधि दी। संस्कृत और पालि भाषा का गहरा ज्ञान तथा नैपुण्य प्रवीणता के लिए श्रीलंका के बौद्ध संघ ने उन्हें कृपिटकाचार्य की उपाधि से विभूषित किया। 1958 में उन्हें मध्य ’एशिया का इतिहास‘ पुस्तक के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा 1963 मे ‘पदमभूषण‘ से नवाजा गया। बौद्ध दर्शन के उद्भट रूसी विद्वान प्रो0 स्करवास्तकी ने लेनिनग्राड विश्वविद्यालय से संबंधित अपने संस्मरण में लिखा है कि विश्व में एकमात्र राहुल सांकृत्यायन ही ऐसे विद्वान है जो मेरे बाद उस विषय को विश्वसनीयता एवं दक्षता के साथ पढ़ा सकते है। उन्हें लेनिनग्राड विश्वविद्यालय दो बार 1937-38 एवं 1947-48 में प्रोफेसर के पद पर नियुक्त कर उनकी सुयोग्यता एवं अतुल ज्ञान को विश्वस्तरीय मान्यता प्रदान किया। लेकिन कैसी विडंवना है कि उन्हें किसी भी भारतीय विश्वविद्यालय द्वारा पढ़ाने के लिए आमंत्रित नहीं किया गया मात्र इस कारण से की उन्हें कोई औपचारिक डिग्री नहीं थी।
——राहुल सांकृत्यायन (9.4.1893-14.4.1963) महान यायावर, हिन्दी यात्रा-साहित्य के जनक, तथ्यान्वेशी, बहुभाषाविद्, बहुशास्त्र ज्ञाता, इतिहास-पुरूष, कर्मयोगी योद्धा, स्वतंत्रता सेनानी, राष्ट्रभाषा के प्रबल हिमायती, संपन्न विचारक, शोधपरक पैनी दृष्टिवाले दार्शनिक, अद्भुत वक्ता, युगपरिवर्त्तनकार साहित्यकार, सामाजिक क्रांति के अग्रदूत, प्रखर आलोचक तथा अप्रतिम कोषकार थे। उनके बहुआयामी व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विशिष्टताओं को वयक्त करने के लिए कई विशेषणों का प्रयोग हुआ है। घुम्मकड़, अक्खड़ तथा फक्कड़ का देशज तुकांत अतिसंक्षिप्त ढंग से उनके जीवन दर्शन को बड़ी बेवाकी से प्रकट करता है। ———
अगस्तीन ने कहा है कि “संसार एक महान पुस्तक है। जो घर से बाहर नहीं निकलते वे केवल इस पुस्तक का एक पृष्ठ ही पढ़ पाते है।“ यात्रा से कौतूहल एवं जिज्ञासा जैसी स्वस्थ मनोवृतियों का उदय होता है जो मानव को विकासोन्मुख बनाती है, नवीन विचारों का संचार करती है, तथा सहिष्णुता, स्नेह, भातृत्व एवं उदारता की भावनाओं को जागृत करती है। व्यवहारकुशलता के साथ-साथ मनुष्य के व्यक्तित्व में मौलिकता तथा विचारों में दृढ़ता प्रदान करती है। उसमें मनुष्य पूर्वाग्रहों से मुक्त हो जाता है। राहुलजी स्वभाव से यायावर थे। अनवरत यात्रा ही उनका उद्वेश्य था न कि कोई मंजिल। उनकी यात्रा मात्र भूगोल की नहीं वरन्् मन, विचार, अवचेतन एवं चेतना के स्थानान्तरण की है। सचमुच राहुलजी का संपूर्ण साहित्य यायावरी का चलचित्र ही है। उन्होंने भ्रमण को एक विद्या माना और अपनी यात्रा के अनुभवों को आत्मसात करते हुए इस विद्या पर एक शास्त्र ही लिख दिया-घुम्मकड़शास्त्र। राहुलजी का कहना था कि उन्होंने ज्ञान को सफर में नाव की तरह लिया है। बोझ की तरह नहीं। वे घुम्मकड़ी की महिमा का बखान इस तरह करते हैः “मेरी समझ में दुनिया की सर्वश्रेष्ठ वस्तु है घुम्मकड़ी। घुम्मकड़ से बढ़कर व्यक्ति और समाज का कोई हितकारी नहीं हो सकता। दुनिया दुःख में हो चाहे सुख में, सभी समय यदि सहारा पाती है, तो घुम्मकड़ों की है………घुम्मकड़ों के काफिले न आते जाते, तो सुस्त मानव जातियाँ सो जाती और पशु से ऊपर नहीं उठ पाती।“ उन्होंने यायावरी को प्रोत्साहित करने के लिए युवकों को ललकारा भीः “कमर बाँध लो भावी घुम्मकड़ों संसार तुम्हारे स्वागत के लिए बेकरार है।“ उनके अनुसार समदर्शिता घुम्मकड़ का एकमात्र दृष्टिकोण है और आत्मीयता उसके हरेक बर्ताव का सार।
उन्होंने देश-विदेश के विभिन्न हिस्सों का लगातार भ्रमण कर तथा वहाँ निवास कर भाषा, संस्कृति, जीवन-शैली का सूक्ष्मता से अध्ययन किया तथा बड़े रोचक ढंग से पाठकों को प्रस्तुत किया। घुम्मकड़ी उनके लिए वृति नहीं धर्म था। उनके यात्रा-वृतांत में यायावरी की कठिनाइयों के मार्मिक वर्णन के साथ विभिन्न स्थलों की प्राकृतिक संपदा, सामाजिक एवं आर्थिक जीवन और इतिहास अन्वेषण के अवयवों का सहज समावेश है। घुम्मकड़ी को वे मानव-मन की मुक्ति के साधन होने के साथ-साथ क्षितिज विस्तार एवं ज्ञान की विस्तृति का सशक्त माध्यम मानते थे।
राहुलजी भाषात्मक एकता के प्रबल पोषक थे। अपने राष्ट्र के लिए एक राष्ट्रभाषा को अनिवार्य मानते थे। बिना भाषा के राष्ट्र गूंगा है, ऐसा उनका मत था। वे राष्ट्रभाषा एवं अन्य जनपदीय भाषाओं के उन्नयन में कोई अर्न्तविरोध नहीं देखते थे। हिन्दी से राहुल जी को अतिशय प्यार था। उनके शब्दों मेंः “मैंने नाम बदला, वेशभूषा बदली, खान-पान बदला लेकिन हिन्दी के संबंध में मैंने विचारों में कोई परिवर्त्तन नहीं किया।“ हिन्दी को खड़ी बोली का नाम भी राहुल जी ने ही दिया था। बहुभाषाविद् राहुलजी ने कहा थाः “हमारी नागरी लिपि दुनिया का सबसे वैज्ञानिक लिपि है।“ अपनी दक्षिण भारत की यात्रा के दरम्यान संस्कृत ग्रंथों, तिब्बत प्रवास में पालि गं्रथों तथा लाहौर यात्रा के दरम्यान अरबी भाषा सीखकर इस्लामी धर्मग्रथों का गहन अध्ययन किया। उन्होंने हिन्दी, संस्कृत, भोजपुरी, पालि तथा तिब्बती भाषाओं में अधिकारपूर्वक रचनाँए लिखी। भाषा और साहित्य के संबंध में राहुल जी कहते हैं-“भाषा और साहित्य, धारा के रूप में चलता है फर्क इतना ही है कि नदी को हम देश की पृष्ठभूमि में देखते हैं जब कि भाषा देश और भूमि दोनों की पृष्ठभूमि को लिए आगे बढ़ती है।“ स्थानीय बोलियों एवं जनपदीय भाषाओं का सम्मान करना राहुल जी की नैसर्गिक विशेषता थी। लोकनाट्य परंपरा उनके लिए संस्कृति का सक्षम वाहक था। इसलिए उन्होंने भोजपुरी नाटकों की रचना की। वे नियमित रूप से संस्कृत में अपनी डायरी लिखते थे। जिसका उपयोग उन्होंने आत्मकथा में किया है।
जिस प्रकार उनके पैर अनवरत बढ़ते रहे, उसी प्रकार हाथ की लेखनी भी कभी नहीं रूकी। लिखने के लिए वे अनुकूल मानसिक अवस्था या शांत वातावरण का कभी इंतजार नहीं किया बल्कि ट्रेन में, जहाज पर, बस पड़ाव पर, रास्ते में, सराय में, शिविर एवं जेल में भी उनकी लेखनी अविराम चलती रही। डा0 श्रीराम शर्मा ने अपने निबंध “राहुलजी रोगशैया पर“, में लिखा है कि उनके मस्तिष्क में वृहस्पति और पाँवों में शनीचर का निवास रहा है। उनकी रचनाधर्मिता मात्र कलात्मकता को प्रदर्शित न कर समाज, सभ्यता, संस्कृति, इतिहास, विज्ञान, धर्म एवं दर्शन इत्यादि के रूढ़ धारणाओं पर कुठाराघात करती है और जीवन-सापेक्ष बन कर तमाम प्रगतिशील शक्तियों को संघर्ष और गतिशीलता की ओर प्रवृत करती है।
उनकी प्रसिद्ध कीर्ति, ‘वोल्गा से गंगा तक‘ जो 22 लघु कहानियों का संग्रह है 6000 (ईसा पूर्व) से 1942 तक दो महान नदियों के बेसिनों के बीच पनपी सभ्यताओं, मानव समाज का आर्थिक एवं सामाजिक अध्ययन तथा लगभग 7500 साल के ऐतिहासिक परिस्थितियों का काल्पिनक विवरण प्रस्तुत करता है। इन्होंने वैश्विक एवं सामाजिक स्तर पर साम्यवादी सोच को स्पष्टता एवं तीक्ष्णता से व्यक्त किया है। मनुष्य को मृत्यु के बाद स्वर्ग के सपने दिखाकर, भाग्य के नाम पर नरक की जिंदगी व्यतीत करने के लिए बाध्य करनेवाले धर्म के पाखंडियों के दुश्चक्र पर उन्होंने बेलाग टिप्पणी इस पुस्तक में की है, “जिस दिन भूमि को स्वर्ग में परिणत कर दिया जायगा, उसी दिन आकाश का स्वर्ग ढ़ह पड़ेगा। आकाश-पाताल के स्वर्ग-नर्क को कायम रखने के लिए, उसके नाम पर बाजार चलाने के लिए, जरूरत है, भूमि पर स्वर्ग-नर्क की, राजा-रंक की, दास-स्वामी की।“
राहुल सांकृत्यायन उस दौर की उपज थे जब ब्रिटिश शासन के कारण भारतीय समाज, संस्कृति, राजनीति एवं अर्थव्यवस्था सभी संक्रमणकाल की दुःस्थिति को झेल रहे थे। 1919 में जलियाँवाला बाग कांड ने उनके अंदर राष्ट्रीयता की भावना को उद्वेलित किया। ब्रिटिश शासन के खिलाफ लिखने और भाषण देने के लिए उन्हें कई बार गिरफ्तार किया गया था। तीन साल तक कैद की सजा भोगते हुए उन्होंने कुरान का संस्कृत में अनुवाद कर डाला। जेल से छुटने के बाद वे डा0 राजेन्द्र प्रसाद के साथ स्वतंत्रता आन्दोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया। 1927 में इंडियन नेशनल कांग्रेस अधिवेशन के बाद जब डा0 राजेन्द्र प्रसाद श्रीलंका गये थे तो राहुल जी उनके गाइड की भूमिका निभाए थे। बिहार के किसान आन्दोलन में भी राहुल जी ने अहम भूमिका निभायी थी। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के बाद किसान आंदोलन के शीर्ष नेता सहजानंद सरस्वती द्वारा प्रकाशित साप्ताहिक ‘हुंकार‘ का उन्होंने संपादन भी किया था तथा मोतीहारी में फरवरी, 1940 में आयोजित किसान सम्मेलन की अध्यक्षता भी की थी।
दर्शन के प्रति उनका उदार दृष्टिकोण था। वे इसे ऐतिहासिक ढंग से पूर्वाग्रहरहित व्यापक मानवीय फलक पर देखते है। उनका मानना था कि दर्शन पूर्णतया सीमाहीन हैः धर्म और राष्ट्र की सीमा से बिल्कुल परे। दर्शन की परख में संकीर्णता चेतना में अवरोध पैदा करता है तथा चिंतन-शक्ति को मंद कर देता है। डा0 सर्वपल्ली राधाकृष्णन के कथन-‘प्राचीन भारत में दर्शन किसी भी दूसरी सायंस या कला का लग्गू-भग्गू न होकर, सदा एक स्वतंत्र स्थान रखता है‘-पर राहुलजी ने तल्ख टिप्पणी की थीः ‘भारतीय दर्शन सांयस या कला का लग्गू-भग्गू न रहा हो, किन्तु धर्म की गुलामी से बदतर गुलामी और क्या हो सकती है?‘ उन्होंने शोषण-मुक्त समाज के लिए धर्म और ईश्वर के प्रभुत्व से पूर्ण मुक्ति पर बल दिया।
उनकी रचनाओं में पुरातन के प्रति आस्था, इतिहास के प्रति अनुराग और गौरव, वर्त्तमान के प्रति वैज्ञानिक, तार्किक एवं सधी हुई दृष्टि तथा अनुभव एवं दूरदर्शिता पर आधारित अवधारणा का बेमिसाल तादात्म्य दिखाई पड़ता है जो भूत-वर्त्तमान-भविष्य की चक्रीय श्रृंखला को बलवती बनाती है और रूढ़िवादिता को दूर करने का सार्थक प्रयास करती है। ज्ञान की अदम्य पिपासा और चेतना जागृति के लिए कटिबद्धता उनके अनोखे व्यक्तित्व की विशेषताँए थी। अपने विविध, रूचिकर एवं विराट कृतित्व से उन्होंने हमें विरासत का दर्शन करवाया तथा उसके प्रति आसक्ति एवं गौरव का भाव जगाया। अपनी पुस्तक ‘आज की समस्याँए‘ में उन्होंने जिक्र किया हैः “हमारे सामने जो मार्ग है उसका कितना ही भाग बीत चुका है, कुछ हमारे सामने है और बहुत अधिक आनेवाला है। बीते हुए से हम सहायता लेते हैं, आत्म विश्वास प्राप्त करते हैं लेकिन बीते की ओर लौटना प्रगति नहीं, प्रतिगति-पीछे लौटना होगा। हम लौट तो सकते नहीं, क्योंकि अतीत को वर्त्तमान बनाना प्रकृति ने हमारे हाथ में नहीं दे रखा है।“
साहित्य और दर्शन के अनुसंधान में निमज्जित रहकर पुरातन साहित्य के संरक्षण के प्रति वे काफी सचेष्ट थे। 21 वीं सदी में जब सूचना क्रांति के माध्यम से समग्र विश्व सिमटकर एक वैश्विक गाँव का आकार ले रहा है और इंटरनेट की सुविधा से माउस के क्लिक करते ही विश्व का विपुल ज्ञान भंडार सामने स्क्रीन पर उपलब्ध हो जाता है, यह अविश्वसनीय एवं विस्मयकारी प्रतीत होगा कि 20 वीं सदी के पूर्वाद्ध में हजारों मील दुर्गम एवं खतरनाक पहाड़ियों, जंगलों एवं नदियों के रास्ते पैदल कष्टसाध्य यात्रा कर राहुल जी तिब्बत की राजधानी लहासा से दुलर्भ ग्रंथों एवं पंाडुलिपियों को खच्चरों पर लादकर अपने देश लाये, जो आज भी पटना म्यूजियम में संरक्षित है। यह एक प्रीतिकर समाचार है कि 4 मार्च, 2015 को सेंट्रल यूनिवर्सिटी आँफ तिब्बतीयन स्टडीज, सारनाथ एवं पटना म्यूजियम के बीच एम0ओ0यू0 हस्ताक्षरित किया गया है जिसके तहत राहुल सांकृत्यायन द्वारा लगभग तिब्बत से भारत लाई गयी और तिब्बती भाषा में लिखी लगभग 800 वर्ष पुराना 7.28 लाख पांडुलिपियों के डिजिटलाइजेशन के साथ उनका हिन्दी में अनुवाद किया जायगा। इससे निःसंदेह शोध और अध्ययन के नये क्षितिज खुलेंगे। बिहार सरकार द्वारा दुर्लभ एवं काफी पुरानी पांडुलिपियों के संरक्षण संबंधी पहल सराहनीय है तथा महापण्डित राहुल सांकृत्यायन के प्रति सच्ची श्रद्धाजंलि है।
डा0 खगेन्द्र ठाकुर ने अपने निबंध, ‘राहुलजी और नयी चेतना का प्रसार‘ में उनके व्यक्तित्व का तुलनात्मक विश्लेषण इस प्रकार किया हैः ‘उनमें प्राचीन भारतीय ऋषि का उद्यात त्याग, महात्मा बुद्ध की तार्किकता, स्वामी दयानंद की रूढ़ि-भंजकता, इस्लाम के समता-भाव आदि का समाहार मिलता है। साथ ही इनके अंर्तविरोधों का वैज्ञानिक समाधान भी। वे इतिहास को वर्त्तमान के धरातल पर खड़ा होकर देखते हैं और उसके अनुभवों को लेकर भविष्य से बात करते हैं, यही कारण है कि इतिहास उनपर हावी नहीं, वह इतिहास पर हावी रहे।“ उनके चिंतन में बौद्ध धर्म तथा मार्क्सवाद का सम्मिश्रण था जिसके संश्लेष से एक नये भारत के निर्माण का सपना संजोया था।
राहुलजी ओजस्वी वक्ता थे। उनका भाषणचार्तुय विख्यात है। उनका भाषण तथ्यपरक, प्रवाहपूर्ण तथा प्रभावी होता था। सरल शब्दों के सटीक प्रयोग से संप्रेषण पूर्ण और सहज हो जाता था और श्रोताओं के अन्तःकरण में समावेश कर जाता था। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, जो हिन्दी के प्रखर वक्ता थे, राहुलजी की भाषण कला की प्रशंसा करते कहा थाः “मैं गोष्ठियों, समारोहों, सम्मेलनों में वैसे बेधड़क बोलता हूँ लेकिन जिस सभा, सम्मेलन या गोष्ठी में महापंडित राहुल सांकृत्यायन होते हैं, वहाँ बोलने में सहमता हूँ। उनके व्यक्तित्व एवं अगाध विद्वता के समक्ष में अपने को बौना महसूस करता हूँ।“ वे शब्द-सामर्थ्य एवं सार्थक अभिव्यक्ति के मूर्तिमान रूप में थे। आत्म-नियंत्रण एवं आत्मानुशासन में वे अपनी उपमा आप थे। वे मृदुभाषी थे लेकिन उनकी लेखनी आक्रोश एवं बल उगलती थी। उनका अध्यवसाय अनुपम था। वे लगातार 18 घंटे तक साहित्य सर्जना में लीन रहते थे।
इस प्रज्ञाशील मनीषी के व्यक्तित्व की आणविक शक्ति, सार्वदेशिक दृष्टि तथा ऐतिहासिक ज्ञान, दर्शन, संस्कृति, भाषा एवं यात्रा-साहित्य के क्षेत्र में रचनात्मक अवदान सदैव स्मरणीय रहेगा।
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परिचय -:
प्रभात कुमार राय
( मुख्य मंत्री बिहार के उर्जा सलाहकार )
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