सुस्त न्याय का अन्याय

Lingering injustice of justice– संजय स्वदेश  –

लोक अदालतों में केसों के निपटारे से भले ही कोर्ट के केस कम हो गए हो, लेकिन अधिकतर केसों में मजबूरी में ही समझौता करना पड़ता है। लंबी न्यायिक प्रक्रिया से जब वादी और प्रतिवादी निराश हो जाते हैं तो लोक अदालतों का रास्ता ही सरल लगता है।

पिछले दिनों हुए न्यायाधीशों और राज्यों के मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देश की न्याय प्रणाली में सुधार की दिशा में केंद्र सरकार द्वारा उठाए जा रहे कदमों का जिक्र किया था। सम्मेलन में 1700 पेचीदा कानूनों को खत्म करने की कवायद के साथ न्याय की पहुंच गरीबों तक करने की दिशा में ट्रिब्यूनल व्यवस्था के साथ लोक अदालतों जैसी प्रक्रिया में कमी पर चिंता तक जताई गई। सरकार जहां न्यायापालिका से विचार विमर्श करके न्याय पालिका में सुधार के प्रयासों को बढ़ावा देने की बातें कर रही है, वहीं वहीं देशभर में सुप्रीम कोर्ट से लेकर निचली अदालतों तक 4926 जजों के रिक्त पदों को भरने की भी चुनौती है। विधि और न्याय मंत्रालय के ताजा आंकड़ों के मुताबिक एक मार्च 2015 तक उच्चतम न्यायालय में दो न्यायाधीशों के पद रिक्त थे। सुप्रीम कोर्ट में प्रमुख न्यायाधीश एचएल दत्तू समेत फिलहाल 29 न्यायाधीश कार्यरत हैं। देश के 24 राज्यों के उच्च न्यायालयों में भी 346 न्यायाधीशों के पद रिक्त  हैं, जिनमें इलाहाबाद उच्च न्यायालय में सर्वाधिक 76 पदों को भरने की दरकार है। छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय में आठ, मध्य प्रदेश और दिल्ली उच्च न्यायालय में 19-19 तथा पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय में 31 न्यायाधीशों के पद रिक्त हैं। इनके अलावा तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में 20, मुंबई में 10, कोलकाता में 21, गुवाहाटी में सात, गुजरात में 12, हिमाचल प्रदेश में छह, जम्मू-कश्मीर में सात, झारखंड में 12, कर्नाटक में 26, केरल में सात पद खाली हैं। इसी प्रकार मद्रास हाईकोर्ट में 18, मणिपुर में एक, ओडिसा में आठ, पटना में 11, राजस्थान में 21, सिक्किम में एक तथा उत्तराखंड में पांच न्यायाधीशों के पद खाली हैं।

देशभर में जिला एवं अधीनस्थ न्यायालयों में अनुमोदित 20,214 जजों की तुलना में 15,634 जज ही कार्यरत हैं, यानि 4580 न्यायाधीशों की कमी है। निचली अदालत में सर्वाधिक 747 पद गुजरात की अदालतों में रिक्त पड़े हुए हैं, जिसके बाद 643 रिक्त पदों के साथ बिहार दूसरे और 336 जजों के रिक्त पदों के साथ उत्तर प्रदेश तीसरे पायदान पर है। छत्तीसगढ़ में जिला व अधीनस्थ अदालतों के लिए निर्धारित 354 पदों में से 302 ही कार्यरत है यानि राज्य में 52 जजों के पद भरने की दरकार बाकी है। मध्य प्रदेश में अनुमोदित 1460 जजों के मुकाबले 1243 जज ही कार्य कर रहे है, जहां अभी 217 पदों पर जजों की नियुक्ति का इंतजार है। इसी प्रकार हरियाणा राज्य में भी 159 जजों के पद रिक्त पड़े हुए हैं, जहां अनुमोदित 644 की अपेक्षा 485 जज ही नियुक्त हैं। जबकि दिल्ली की अदालतों में भी 317 पद खाली पड़े हुए हैं, जहां 476 न्यायाधीश कार्यरत हैं जबकि 793 जजों की नियुक्ति अनुमोदित है। चंडीगढ़ ही एक ऐसा क्षेत्र है जहां निचली अदालतों में अनुमोदित सभी 30 न्यायाधीश कार्यरत हैं। भले ही केंद्र सरकार न्याय प्रणाली में सुधार करने की दृढ़ मंशा दिखा रही है, लेकिन इसका क्रियान्वयन कैसे होगा।  इसी परिप्रेक्ष्य में उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों में जजों की नियुक्ति के लिए राष्टÑीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के गठन की पहल की गई है। जहां तक जिला और अधीनस्थ न्यायालयों में न्यायाधीशों व न्यायिक अधिकारियों की भर्ती का सवाल है वह राज्य सरकारों और उच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार में आता है। इस भर्ती प्रक्रिया में लेटलतीफी का जो आलम है सो तो है ही। मई 2014 तक सुप्रीम कोर्ट 63843 केस लंबित थे। वहीं देश भर के हाई कोर्ट में वर्ष 2013 तक 44 लाख केस लंबित थे। इसी साल लंबित सिविल केसों की संख्या 3432493 थी।

केसों की भरमार और जजो की कमी के कारण जहां न्यायिक प्रक्रिया में देरी हो रही है, वहीं वकील भी अपना नफा नुकसान देख कर केस को लंबा खींचने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं। इसके अलावा जहां पूरी दुनिया के प्रबंधकीय क्रियाकलाप डिजीटल तकनीक से सहज होते जा रहे हैं, वहीं कोर्ट की पूरी प्रक्रिया आज भी मैनुअल पद्धति से चल रही है। एक रिपोर्ट के अनुसार 2010 से 2015 तक केंद्र सरकार ने राज्य सरकार को 5 हजार करोड़ का अनुदान दिया कि ताकि लंबित केसों का निपटारा जल्द हो। लेकिन इसके परिणाम बहुत ही सुस्त दिख रहे हैं। हालांकि अब अदालतें लोक अदालतों के माध्यम से छोटे-बड़े केसों के निबटाने की पहल करने लगी हैं।  2001 से 2012 तक करी 24 लाख केसों का निबटारा लोक अदालतों में ही हुआ। लेकिन लोक अदालतों में केसों के निपटारे से भले ही कोर्ट के केस कम हो गए हो, लेकिन अधिकतर केसों में मजबूरी में ही समझौता करना पड़ता है। लंबी न्यायिक प्रक्रिया से जब वादी और प्रतिवादी निराश हो जाते हैं तो लोक अदालतों का रास्ता ही सरल लगता है। सुस्त न्यायिक प्रक्रिया में यदि न्याय देर से मिलता है तो यह जनता के साथ दूसरा अन्याय है।
______________________

Sanjay-Swadesh-Manichhapar-Hathuwa.invc-news1परिचय – :

संजय स्वदेश

वरिष्ठ पत्रकार व विश्लेषक

संजय स्वदेश दैनिक अखबार हरी भूमि में कार्यरत हैं

बिहार के गोपलगंज जिले के हथुआ के मूल निवासी। दसवी के बाद 1995 दिल्ली पढ़ने पहुंचे। 12वीं पास करने के बाद किरोड़ीमल कॉलेज से स्नातक स्नातकोत्तर। केंद्रीय हिंदी संस्थान के दिल्ली केंद्र से पत्रकारिता एवं अनुवाद में डिप्लोमा। अध्ययन काल से ही स्वतंत्र लेखन के साथ कैरियर की शुरुआत। आकाशवाणी के रिसर्च केंद्र में स्वतंत्र कार्य। अमर उजाला में प्रशिक्षु पत्रकार। सहारा समय, हिन्दुस्तान, नवभारत टाईम्स समेत देश के कई समाचार पत्रों में एक हजार से ज्यादा फीचर लेख प्रकाशित। दिल्ली से प्रकाशित दैनिक महामेधा से नौकरी। दैनिक भास्कर-नागपुर, दैनिक 1857- नागपुर, दैनिक नवज्योति-कोटा, हरिभूमि-रायपुर के साथ कार्य अनुभव। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के अलावा विभिन्न वेबसाइटों के लिए सक्रिय लेखन कार्य जारी…

सम्पर्क – : मोबाइल-09691578252 , ई मेल – : sanjayinmedia@gmail.com

*Disclaimer : The views expressed by the author in this feature are entirely his  own and do not necessarily reflect the views of INVC NEWS.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here