कुसुम ठाकुर की कविताएँ
(1) “जीवन तो है क्षण भंगुर”
बिछड़ कर ही समझ आता,
क्या है मोल साथी का ।
जब तक साथ रहे उसका,
क्यों अनमोल न उसे समझें ।
अच्छाइयाँ अगर धर्म है,
क्यों गल्तियों पर उठे उँगली ।
सराहने मे अहँ आड़े,
अनिच्छा क्यों सुझाएँ हम ।
ज्यों अहँ को गहन न होने दें,
तो परिलक्षित होवे क्यों ।
क्यों साथी के हर एक इच्छा,
को मृदुल-इच्छा न समझे हम ।
सामंजस्य की कमी जो नहीं,
कटुता का स्थान भी न हो ।
कहने को नेह बहुत,
तो फ़िर क्यों न वारे हम ।
खुशियों को सहेजें तो,
आपस का नेह अक्षुण क्यों न हो ।
दुःख भी तो रहे न सदा,
आपस में न बाटें क्यों ।
जो समर्पण को लगा लें गले,
क्यों अधिकार न त्यागे हम ।
यह जीवन तो है क्षण भंगुर,
विषादों तले गँवाएँ क्यों ।।
-कुसुम ठाकुर –
(2) “उसे तोड़ खुश होता क्यूँ है”
जो आता है जाता क्यूँ है ?
और बेबस इतने पाता क्यूँ हैं ?
सज़ा मिले सत्कर्मों की
यह सोच हमें सताता क्यूँ है ?
सच्चाई की राह कठिन है
उसपर चलकर रोता क्यूँ है ?
है राग वही रागनी भी वही
फिर गीत नया भाता क्यूँ है ?
ममता तो अनमोल है फिर
वंचित उससे रहता क्यूँ है ?
माली सींचे जिस सुमन को
उसे तोड़ खुश होता क्यूँ है ?
प्यार कुसुम सच्चा जो कहो
प्रतिबन्ध लगाता क्यूँ है ?
-कुसुम ठाकुर-
(3) “न जाने क्यों आज विकल है”
मीत मिला तो भाग्य प्रबल है
जीवन नश्वर भाव अचल है
रह के दूर पास में दिल के
क्या शिकवे की यहाँ दखल है
उत्सर्गों का नाम प्यार है
न पाकर भी जन्म सफल है
प्रीत है बन्धन कई जन्मों का
हृदय धैर्य फिर कहाँ विफल है
कुसुम तो खिलकर हँसना जाने
न जाने क्यों आज विकल है
-कुसुम ठाकुर-
(4) “सावन आज बहुत तड़पाया”
फिर बदरा ने याद दिलाया
पिया मिलन की आस जगाया
तड़पाती है विरह वेदना
सोये दिल की प्यास बढ़ाया
कट पाये क्या सफ़र अकेला
बस जीने की राह दिखाया
पतझड़ बीता और वसंत भी
सावन आज बहुत तड़पाया
आदत काँटों में जीने की
जहाँ कुसुम हरदम मुस्काया
-कुसुम ठाकुर-
(5) “ख़ुद को मैं तन्हा पाई “
दुनिया की इस भीड़ में
ख़ुद को मैं तन्हा पाई
खुशियों के अम्बार को देखी
चाही गले लगा लूँ उसको
खुशियों के अम्बार में जाकर
ख़ुद को मैं तन्हा पाई
सोची दुःख में होश न होगा
चल पडूँ मैं साथ उसी सँग
दुःख के गोते खाई फ़िर भी
ख़ुद को मैं तन्हा पाई
सपनों के सपने मैं देखूँ
तन्हाई उसमे क्यों हो
पर सपना तो बीच में टूटा
ख़ुद को मैं तन्हा पाई
कहने को तो साथ बहुत से
पर साथ चलने को मैं तरसी
चाहे कहीं भी जाऊँ मैं तो
ख़ुद को मैं तन्हा पाई
– कुसुम ठाकुर –
(6) “तुम हो वही पलाश”
सौंदर्य के प्रतीक
तुम हो गए विलुप्त
देख तुम्हें मन खुश हो जाता
भूले बिसरे आस
तुम हो वही पलाश
वह होली
न भूली अबतक
पिया प्रेम ने रंग दी जिसमे
दमक उठा मेरा अंग रंग
तुम हो वही पलाश
खेतों के मेड़ पर
खाली परती जमीन पर
न लगता अब वह बाग़
अब कैसे चुनूँ हुलास
तुम हो वही पलाश
वह बसंत
क्या फिर आया
पर खुशबू ही भरमाया
न भूली कभी बहार
तुम हो वही पलाश
जन्म स्थान – धमौरा, बेतिया , निवास स्थान – जमशेदपुर
सम्पर्क – : फ़ोन – 9431117484 ,
ई मेल – kusumthakur1956@gmail.com
apki muskurahat ki vedna ko naman