कमल जीत चौधरी की कविताएँ

 कमल जीत चौधरी की कविताएँ

लोकतंत्र

नीचे
चार बेतलवा
पंजीरी खाते लोकतंत्र के जूतों में हैं
छालों सने समाजवाद के पाँव

जूतों तले एक जैसे लोग
बनते भोग –
ऊपर
भोगी इन्द्रि एक
रूप अनेक …
००००

पंक्ति में खड़ा आखिरी आदमी

वह
खड़ा है पीछे
राशन की कतार में
वह खड़ा है पीछे
टिकट खिड़की के सामने
वह खड़ा है पीछे
खम्भे के
सूट बूट वाले बंदे के
भूख से लड़ा
वह पंक्ति में खड़ा
आखिरी आदमी
किसी के पहला होने का
पहला और आखिरी कारण है –
वह बेकार है न कायर है
दुनिया की गति का टायर है
वह पंक्ति में खड़ा आखिरी आदमी .
००००

एक ऐसे समय में

एक ऐसे समय में
पा रहा हूँ मर्म तुमसे
जिस समय एक एस एम एस से
भेज दी जाती है
मरने की खबर तक

पा रहा हूँ
तुम्हारे सपनों में जगह स्वच्छंद
जब सपने दबे पाँव दबोच हमें
नींद में खलल डाल
थमा जाते हैं लोन से खरीदी गाड़ी
बेडरूम की चाबियां
बच्चों के हाथ
किसी महंगे शिक्षण संस्थान का एडमिट कार्ड
एक ऐसे समय में
तुम देख लेती हो
मेरी कलाई में बंधा एक बारीक रेशमी सूत्र तक
जब ऐसे देखी जा रही है दुनिया
जैसे गाड़ी में सफ़र करते वक्त
सरसरी तोर पर देखे जाते हैं
सड़कों के किनारे लगे होर्डिंग्स
तुम पढ़ रही हो
मेरे पाँवो के छालों को
जब लोग पैरों को भूल
सिर्फ पंख और जेबों को पढ़ रहे हैं
जब पढ़ाई का मतलब
बस मतलब हो गया है
एक ऐसे समय में
एक पेड़ लगा
दिया जला
नदी किनारे बैठ
तुम मना रही हो मेरा जन्मदिन
जब जन्मदिन को नहीं
महँगे तोहफे शराब और होटल को
याद रखा जाता है अगले जन्मदिन तक
एक ऐसे समय में
एक ही समय में
तुम सुन लेती हो मुझे पूरा अ से ज्ञ तक
जब बात तो छोड़ो
एक्सक्लूसिव खबर सुनते भी
लोग चैनल बदल देते हैं
फ़ोन नंबर बदल लेते हैं
एक ऐसे समय में
तुमने थमा दिया है मुझे
ओस से भीगा सुच्चा सच्चा लाल एक फूल
जब फूल का अर्थ झड़ झड़ कर
आर्चिस गैलरी हो गया है
एक ऐसे समय में
जब पुल भरभरा कर गिर रहे हैं
जब बिस्तर से उतरते ही
सीढियां शुरू हो जाती हैं
जब वृक्ष से छाल
समय के सिर से बाल
उतर रहे हैं
जब समय भी समय के साथ नहीं है
मेरे साथ तुम हो
एक ऐसे समय में .
००००

विश्वास

कवि ने कहा
बची रहे घास
एक आस
घास ने कहा
बची रहे कविता
सब बचा रहेगा.
००००

प्याज की तरह

वो मुझे खोलता गया
परत – दर – परत प्याज की तरह
मुझे पूरा जान लेने की इच्छा ने
उसकी आँख को दिए आंसू
हाथ में थमा दिया शून्य …
००००

छोटे बड़े

उन्होंने
छोटे छोटे काम किए
छोटे नहीं
छोटी छोटी बातें की
छोटी नहीं
वे छोटे छोटे थे
छोटे नहीं थे

उन्होंने
बड़े बड़े काम किए
बड़े नहीं
बड़ी बड़ी बातें की
बड़ी नहीं
वे बड़े बड़े थे
बड़े नहीं थे .
००००

लोकतन्त्र की एक सुबह

आज सूरज निकला है पैदल
लबालब पीलापन लिए
उड़ते पतंगों के रास्तों में
बिछा दी गई हैं तारें
लोग कम मगर चेहरे अधिक
देखे जा रहे हैं
नाक हैं नोक हैं फाके हैं
जगह जगह नाके हैं
शहर सिमटा सिमटा है
सब रुका रुका सा है
मुस्तैद बल पदचाप है
पैरों तले घास है
रेहड़ी खोमचे फुटपाथ सब साफ है
आज सब माफ है !
बेछत लोग
बेशर्त बेवजह बेतरतीब
शहर के कोनों
गटर की पुलियों
बेकार पाईपों में ठूंस दिए गए हैं
जैसे कान में रूई
शहर की अवरुद्ध करी सड़कों पर
कुछ नवयुवक
गुम हुए दिशासूचक बोर्ड ढूँढ रहे हैं
जिनकी देश को इस समय सख्त जरूरत है
बंद दूकानों के शटरों से सटे
कुछ कुत्ते दुम दबाए बैठे हैं चुपचाप
जिन्हें आज़ादी है
वे भौंक रहे हैं
होड़ लगी है
तिरंगा फहराने की
वाकशक्ति दिखलाने की

सुरक्षाघेरों में
बंद मैदानों में
बुलेट प्रुफों में
टीवी चैनलों से चिपक कर
स्वतंत्रता दिवस मानाया जा रहा है
राष्ट्र गान गाया जा रहा है
सावधान !
यह लोकतंत्र की आम सुबह नहीं है .
००००

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कमल जीत चौधरी

शिक्षा :- जम्मू वि०वि० से हिन्दी साहित्य में परास्नातक { स्वर्ण पदक प्राप्त } ; एम०फिल० ; वि० वि० अनुदान आयोग द्वारा मान्यता प्राप्त सेटपरीक्षा

लेखन :- २००७-०८ में लिखना शुरू किया
प्रकाशित :- संयुक्त संग्रहों ‘स्वर एकादश’ { स० राज्यवर्द्धन } तथा ‘तवीजहाँ से गुजरती है’ { स० अशोक कुमार } में कुछ कविताएँ , नया ज्ञानोदय ,सृजन सन्दर्भ , परस्पर , अक्षर पर्व , अनहद ,  अभिव्यक्ति , दस्तक ,अभियान , हिमाचल मित्र , लोक गंगा , शब्द सरोकार , उत्तरप्रदेश , दैनिक जागरण , अमर उजाला , शीराज़ा , अनुनाद , पहली बार , बीइंग पोएट , तत्सम ,सिताब दियारा , जानकी पुल , आओ हाथ उठाएँ हम भी , आई० एन० वि० सी० आदि में प्रकाशित
सम्प्रति :- उच्च शिक्षा विभाग , जे०&के० में असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत

सम्पर्क :-
गाँव व डाक – काली बड़ी , तहसील व जिला – साम्बा ,जम्मू व कश्मीर { 184121 }
दूरभाष – 09419274403 –  kamal.j.choudhary@gmail.com

5 COMMENTS

  1. एक ऐंसे समय में
    और लोकतंत्र कविता बहुत ज्यादा पसंद आई है।
    सभी कहन उम्दा।
    स्वतन्त्रता दिवस की बधाइयाँ कमल

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