खंडित आस्था
– जयश्री रॉय –
मधु ने उसके सामने गर्म कांजी की थाली रखी थी, “मुंह में कुछ दे रूपा, उस नन्ही सी जान के बारे में तो कुछ सोच…”
रूपा ने अपना चेहरा फेर लिया, “मुझसे खाया नहीं जाएगा दीदी!
उसकी रो-रोकर लाल हुई आँखें फिर आंसुओं से भर आई थीं। सुबह से उसका हाल बुरा था। मनु का अभी भी कुछ पता नहीं चल पाया था। कल रात नारियल पूर्णिमा के उत्सव के बाद मछेरों ने कितने उत्साह से दरिया में नाव उतारी थी। बरसात में समंदर में नाव उतारने पर महीने भर की पाबंदी के बाद नारियल पूर्णिमा का शुभ दिन आया था। देर शाम तक पूजा-पाठ, खाना-पीना और नाच-गाना चलता रहा था। समंदर में उतरी नावों को फूलों से सजाया गया था, मछेरों की आरती उतारी गई थी तथा उनके माथे पर तिलक लगाया गया था। समंदर की भयंकर लहरों से प्राणों की बाजी लगाकर अपनी आजीविका कमाना उनके लिए किसी युद्ध जैसा ही साहस का काम था।
जाते हुये मनु ने उसे एकांत में पाकर बाँहों में भर लिया था – “कल मैं ढेर सारी मछलियाँ पकड़ कर लौटूँगा, फिर तुम्हारे पाजेब ला दूंगा, मेरी प्रतीक्षा करना रूप।‘.
माथे पर आधे चाँद की बिंदी, नाक में मोतियों की बड़ी-सी नथ और नौवारी लाल साड़ी में आज उसका रूप आकाश के चाँद को भी मात दे रहा था। गर्भवती होकर उसका लावण्य और भी निखर आया था। मनु जाते हुये मुड़ कर उसे बार-बार देखता रहा था। सुबह एक-एक कर प्रायः सभी नावें मछली पकड़ कर लौट आई थीं। मगर मनु की छोटी-सी नाव नहीं लौटी। रूपा सब से पूछ-पूछ कर हार गई। मगर उसके विषय में किसी को कुछ पता नहीं था। किसी अनिष्ट की आशंका से उसका दिल बैठा जा रहा था। दोपहर होते-होते प्रायः सभी को यकीन हो चला की मनु जरूर किसी दुर्घटना का शिकार हो गया होगा। मगर रूपा यह मानने को कतई तैयार नहीं थी। उसे यकीन था मनु जरूर लौट कर आयेगा। बचपन से उसने सुना था, समंदर बड़ा गर्वीला है, बड़ा स्वाभिमानी है, वह कभी किसी का कुछ नहीं लेता, वापस लौटा देता है। फिर यह महान समंदर उस जैसी गरीब की एक मात्र पूंजी कैसे छीन सकता है…. आँसू बहाते हुये उसने बार-बार लहरों के आगे हाथ जोड़े थे – “भगवान! मेरा धन लौटा दो…”
शाम ढले उसे मधु खींचकर ले गई थी। साहिल पर टूटती लहरों के बीच मनु की निष्प्राण देह पड़ी थी। दूर उसकी टूटी नाव भी पानी में डूब-उतर रही थी। चारों तरफ लगी भीड़ सकते की हालत में चुप खड़ी थी। क्षितिज पर आसमान लाल था जैसे खून से रंगा हो। आखिर समंदर ने उसे उसका मनु लौटा ही दिया था, मगर यह क्या…! रूपा रोते-रोते जैसे टूटती लहरों पर खुद भी टूट-टूट कर बिखरने लगी – इतना बड़ा धोखा किया, सागर देवता तुमने! यह ठंडा प्राणहीन देह तो मेरा मनु नहीं। मैंने जिस जीवन से भरपूर योद्धा को जीवन-समर में तुम्हारी शक्तिशाली लहरों को सौंपा था, मुझे मेरा वही मनु लौटा दो, लौटा दो… उसके हृदय विदारक रुदन से जैसे विशाल समुद्र भी दहल उठा। आज यह महान, गर्वीला समंदर उसकी नज़र में बहुत छोटा, बहुत क्षुद्र हो गया था। उसकी आस्था टूट गई थी।
__________________
परिचय :-
जयश्री रॉय
शिक्षा : एम. ए. हिन्दी (गोल्ड मेडलिस्ट), गोवाविश्वविद्याल
प्रकाशन : अनकही, …तुम्हें छू लूं जरा, खारा पानी (कहानी संग्रह), औरत जो नदी है, साथ चलते हुये,इक़बाल (उपन्यास) तुम्हारे लिये (कविता संग्रह)
प्रसारण : आकाशवाणी से रचनाओं का नियमित प्रसारण
सम्मान : युवा कथा सम्मान (सोनभद्र), 2012
संप्रति : कुछ वर्षों तक अध्यापन के बाद स्वतंत्र लेखन
संपर्क : ई-मेल : jaishreeroy@ymail.com