जयश्री रॉय की लघु कथा चाँद समंदर और हवा
– चाँद समंदर और हवा –
मेरी ने फिर बाहर जाकर देखा – सूरज डूब चुका है। धूसर नील समंदर के ऊपर पूर्णिमा का गोल-मटोल चाँद माथे तक उठ आया है। चारों तरफ अमलतासी उजास है। नारियल के संवलाए पेड़ किनारों से रुपहले पड़ने लगे हैं। किनारे पर टूटती लहरों से उलझकर आती हवाएँ मत्स्यगंधा हुई जा रही थीं… नहीं, जॉन का कहीं पता नहीं। कितनी देर हो गई न जाने कहाँ रह गया… दूर साहिल पर लौटती नावों की छायाएं डोल रही हैं। नाविक मछलियाँ पकड़ कर शाम ढले घर लौट रहे हैं। कुछ रात भर के लिए समंदर में भी जा रहे हैं। हलद चाँदनी में रुपहली मछलियाँ झलमला रही हैं। समंदर के उदास शोर में नाविकों की धीमी आवाज़ें भी शामिल हैं। मेरी घर के सामने पड़ी टूटी नाव और जाल के ढेर को देखती है – कभी वे भी खुश थे… अपनी नाव थी, मछलियाँ पकड़ते थे, उनका गुजारा हो जाता था। सुख से ज्यादा शांति थी।
धीरे-धीरे सैलानी बढ़े, भीड़ बढ़ी, बड़े आलीशान होटल बने, कॉलोनियां बनीं। भू माफियाओं ने गरीबों की सारी जमीन हड़प लीं। राजनीतिज्ञों ने उनका साथ दिया। बड़े व्यापारियों ने समंदर में बड़े बड़े जहाज, ट्रालर उतारे। जमीन, दरिया, मछली… सब पर व्यापारियों का कब्जा हो गया। धीरे-धीरे उनके सुख, छोटी-छोटी खुशियाँ, मन की शांति – सब खो गईं। अब तो भूखों मरने की नौबत आ गई थी। जॉन सुबह शहर गया था। वहाँ उस जैसे कई छोटे-छोटे मछेरों को किसी बहुत बड़ी विदेशी कंपनी ने बातचीत के लिए बुलाया था। शायद कुछ रोजगार मिल जाये… मेरी उम्मीद से भर कर उठ खड़ी हुई थी। जॉन आ गया था।
“क्या हुआ, कुछ बात बनी?” वह अपनी उत्सुकता छिपा नहीं पा रही थी।
“वे हमारी जमीन और घर खरीदना चाहते हैं मेरी! कोई बहुत बड़ा होटल-रिसॉर्ट बनाना चाहते हैं। हमें बहुत पैसा मिलेगा।“
“फिर तुमने क्या कहा?” मेरी का दिल जैसे उसके गले तक उठ आया था। उसने अनजाने ही घर के सामने बने क्रास को पकड़ लिया था।
“मैंने उन्हें न कर दिया…!” जॉन पस्त-सा टूटी नाव पर बैठ गया।
“तुमने न कर दिया…!” दरवाजे पर भूख से रोते हुये नन्हें एंथनी की तरफ देखते हुये उसने थरथराती आवाज़ में पूछा। अपने बच्चों की तकलीफ अब उससे देखी न जाती थी।
‘’हाँ मना कर दिया मेरी! हमारा सब कुछ तो चला गया है। अब इस चाँद, हवा और समंदर का सौदा नहीं कर सकूँगा… शीशे के मकानों में कभी समंदर की मछलियाँ जी सकती हैं भला? हम भी जी नहीं पाएंगे मेरी! हमारी नसों में दरिया की खुशबू है। हमें जीने के लिए नारियल की सरसराहट, काजू की मातल गंध, नमकीन हवा की खुनक और दरिया की रवानी चाहिए।“ दार्शनिक लहजे में बोलते हुये न जाने कब अपने ही अनजाने वह झुक कर फटा हुआ जाल बुनने लगा। पास पड़ी टूटी नाव चाँदनी में चमक रही थी। दूर वासंती चाँद में रजत किरणों का ज्वार बने उत्तल समंदर की फेनिल लहरों में आज जैसे एक नए निमंत्रण का मादक संगीत घुला हुआ था।
जयश्री रॉय
शिक्षा : एम. ए. हिन्दी (गोल्ड मेडलिस्ट), गोवाविश्वविद्यालय
प्रकाशन : अनकही, …तुम्हें छू लूं जरा, खारा पानी (कहानी संग्रह), औरत जो नदी है, साथ चलते हुये,इक़बाल (उपन्यास) तुम्हारे लिये (कविता संग्रह)
प्रसारण : आकाशवाणी से रचनाओं का नियमित प्रसारण
सम्मान : युवा कथा सम्मान (सोनभद्र), 2012
संप्रति : कुछ वर्षों तक अध्यापन के बाद स्वतंत्र लेखन
संपर्क : तीन माड, मायना, शिवोली, गोवा – 403 517 – ई-मेल : jaishreeroy@ymail.com