जेब अगर हो ख़ाली, तो कैसा छठ कैसी दीवाली ?

–  निर्मल रानी –

देश का सबसे बड़ा व सबसे पवित्र त्यौहार दीपावली आगामी 14 नवंबर को मनाया जा रहा है। दीपावली की गिनती उस सर्वप्रमुख त्यौहार में होती है जो देश की अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने में भी सहायक होता है। दीपावली के बाद ही यानि 18 व 19 नवंबर को छठ का त्यौहार भी मनाया जा रहा है। वैसे तो छठ मुख्य रूप से बिहार का पर्व समझा जाता है। परन्तु जैसे जैसे बिहार के कामगारों व मेहनतकश लोगों ने रोज़गार के मक़सद से देश के कोने कोने में रहना व बसना शुरू किया तब से छठ भी धीरे धीरे अन्य हिन्दू त्योहारों की ही तरह राष्ट्रीय त्यौहार का रूप धारण करता गया। अब छठ की छटा का नज़ारा बिहार के पोखरों से लेकर नदियों के किनारों,यहाँ तक कि कोलकाता व मुंबई जैसे महानगरों में समुद्र तट पर भी देखा जा सकता है। दिल्ली से लेकर हरियाणा व पंजाब जैसे राज्यों में भी छठ पूजा पूरे धूम व श्रद्धा के साथ की जाने लगी है। परन्तु पूर्व वर्षों की तुलना में इस बार की दीपावली,धनतेरस व छठ पूजा आदि कई त्यौहार भारत के लोगों में ख़ुशी व उत्साह नहीं पैदा कर पा रहे हैं । कारण साफ़ है एक तो कोरोना काल दूसरे देश में छाई हुई आर्थिक मंदी। इसपर सोने पे सुहागा यह कि देश इस समय मंहगाई के उस अभूतपूर्व दौर से गुज़र रहा है जिसकी शायद देशवासियों ने कल्पना भी नहीं की थी। आलू जैसी प्राथमिक सब्ज़ी जो अमीरों से लेकर ग़रीबों तक की थाली की अति अनिवार्य भोज्य सामग्री थी, वह 50 रूपये प्रति किलो के ऊपर की छलांग लगा चुकी। प्याज़, जिसके बिना क्या ग़रीब तो क्या अमीर, किसी सब्ज़ी की तैयारी के बारे में सोच भी नहीं सकता वह पिछले दिनों सौ रूपये प्रति किलो तक बिक चुकी। याद कीजिये 2014 के पहले के वह दृश्य जब आज के सत्ताधारी आलू- प्याज़ व पेट्रोल डीज़ल जैसी आवश्यक वस्तुओं की मूल्य वृद्धि के विरुद्ध अपने गले में सब्ज़ियों की माला डालकर अर्धनग्न होकर ऐसे प्रदर्शन करते थे गोया इनसे बड़ा जनहितैषी कोई है ही नहीं। आज रोज़मर्रा इस्तेमाल की लगभग सभी ज़रूरी वस्तुओं की क़ीमतें आसमान छू रही हैं।
                                          जिस बिहार राज्य के लाखों लोग लॉक डाउन के समय देश के दूरस्थ राज्यों से पैदल चलकर बदहाली की हालत में अपने घरों को पहुंचे उसी राज्य ने कोरोनाकाल में होने वाले पहले आम चुनाव का सामना किया। भयंकर बेरोज़गारी व आर्थिक बदहाली वाले इस राज्य में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अनेक जनसभाएं कीं। इनमें एक जन सभा में उन्होंने  छठ पूजा को लेकर यह कहा कि – “छठ तक ग़रीबों में मुफ़्त राशन वितरित किया जाएगा। कोरोना के काल में किसी मां को यह चिंता करने की ज़रुरत नहीं है कि छठ पूजा को कैसे मनाएंगे। अरे मेरी मां – आपने अपने बेटे को दिल्ली में बैठाया है तो क्या वह छठ की चिंता नहीं करेगा ?मां,तुम छठ की तैयारी करो। दिल्ली में तुम्हारा बेटा बैठा है। छठ पूजा तक ग़रीबों को मुफ़्त राशन मिलेगा। मां,तुम्हारा बेटा तुम्हें भूखा नहीं सोने देगा”। प्रधानमंत्री के इस भाषण से ही बिहार के ग़रीबों की दशा का अंदाज़ा हो जाता है। सोचने का विषय है कि जिनके पास खाने को राशन न हो वह छठ और दीपावली कैसे मना सकता है? छठ में तो फलों व सब्ज़ियों की पूजा होती है। न तो सरकार फल सब्ज़ी उपलब्ध करा रही है न ही इनकी क़ीमतें आम लोगों की पहुँच में हैं। दीपावली भी पकवान व मिष्ठान तथा नए कपड़ों,सोना,चांदी, बर्तन आदि ख़रीदने का त्यौहार है। इनमें से कोई भी चीज़ न तो सरकार मुफ़्त दे रही है न ही जनता इसे ख़रीदने की स्थिति में है। यदि प्रधानमंत्री की ही मानें तो छठ के बाद जब मुफ़्त राशन मिलना बंद हो जाएगा जोकि निश्चित रूप से चुनावों के दृष्टिगत ही बांटा गया है,फिर तो शायद ग़रीबों के भूखे मरने की ही नौबत आ जाएगी ?
                                     ग़ौरतलब है कि कोरोना काल में जब बिहार राज्य के लोग ही सबसे अधिक बेरोज़गारी के दुष्प्रभाव का सामना कर रहे हैं देश के अनेक वरिष्ठ अर्थ शास्त्रियों ने तथा कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी ने कई बार सरकार को सुझाव दिया कि आम लोगों को इस संकट से उबारने व साथ साथ देश की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने  की ग़रज़ से लोगों को गेहूं-दाल-चना से ज़्यादा ज़रुरत नक़द धनराशि की है,जो सरकार को अविलंब लोगों के खातों में हस्तानांतरित करनी चाहिए। परन्तु सरकार ने किसी की सलाह मानने के बजाए राशन देने का ही फ़ैसला किया। वह भी लोगों की ज़रुरत के मुताबिक़ नहीं बल्कि अपनी इच्छा व नीतियों के अनुसार। सरकार ने यह भी नहीं सोचा कि राशन के साथ घी तेल नमक मसाला भी चाहिए। बिजली का बिल भी देना है। फल सब्ज़ी भी ख़रीदनी होगी। केवल राशन से बिहार की माताएं आख़िर छठ पूजा कैसे मना सकती हैं? दिल्ली में बैठा उनका ‘बेटा’ क्या सिर्फ़ सरकारी राशन देकर ही सोचता है कि छठ पूजा मना ली जाएगी ? यह तो है आम बदनसीब लोगों की हक़ीक़त जिसपर प्रधानमंत्री सार्वजनिक रूप से भाषण देकर यह जताने की कोशिश करते हैं कि वास्तव में वे कितने दयालु व जन हितैषी हैं।
                                   दूसरी ओर जिनकी वास्तविक दीपावली हो रही है और जिन के लिए कोरोना काल में भी अवसरों की भरमार है उनपर न प्रधानमंत्री कुछ बोलते हैं न ही मीडिया लोगों को बताता है। मिसाल के तौर पर देश के कई हवाई अड्डे सरकार ने अदानी को 50 वर्षों के लिए सौंप दिए। भारतीय रेल निजीकरण की राह पकड़ चुकी है। प्रधानमंत्री व राष्ट्रपति के लिए सरकार ने लगभग आठ हज़ार पांच सौ करोड़ क़ीमत के दो नए बोईंग जेट विमान ख़रीदे हैं जो दीपावली से पहले भारत पहुँच भी चुके हैं । तो छठ व दीपावली तो दरअसल नेताओं व उद्योगपतियों की है न कि साधारण देशवासियों की ? दूसरी तरफ़ जिन ग़रीबों को छठ तक राशन देकर वोट के लिए बहलाया फुसलाया जा रहा है उन्हीं लोगों के लिए आने वाले समय में रेल यात्रा करना मुश्किल होगा। सरकार ने त्योहारों के अवसर पर जो विशेष त्योहारी रेलगाड़ियां चलाने की घोषणा भी की है उनमें किराया सामान्य से कहीं ज़्यादा है। वरिष्ठ नागरिकों को रेल किराये में मिलने वाली छूट समाप्त कर दी गयी है। आज बिहार वासियों विशेषकर वहां के युवाओं के चेहरों पर उदासी,नाउम्मीदी व अनिश्चितता की लकीरें साफ़ तौर पर देखी जा सकती हैं। आज बिहार के लोग पूछ रहे हैं कि जेब अगर हो ख़ाली, तो कैसा छठ कैसी दीवाली ? आज दुष्यंत कुमार की यह पंक्तियाँ पूरी तरह प्रासंगिक नज़र आ रही हैं – कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हर एक घर के लिए। कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए ?

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परिचय –:

निर्मल रानी

लेखिका व्  सामाजिक चिन्तिका

कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर निर्मल रानी गत 15 वर्षों से देश के विभिन्न समाचारपत्रों, पत्रिकाओं व न्यूज़ वेबसाइट्स में सक्रिय रूप से स्तंभकार के रूप में लेखन कर रही हैं !

संपर्क -: E-mail : nirmalrani@gmail.com

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