– जावेद अनीस –
वहाबीवाद का पोषक सऊदी अरब विश्व का सबसे मह्त्वपूर्ण और प्रभावी मुस्लिम देश है, यहाँ सऊद द्वारा 1750 में एक इस्लामी राजतंत्र की स्थापना की गई थी। सऊदी अरब विश्व के अग्रणी तेल निर्यातक देशों में शामिल है। यहाँ गठित होने वाली घटनाओं पर दुनिया की नजर बनी रहती है। सऊदी अरब के बादशाह शाह अब्दुल्लाह बिन अब्दुल अजीज अल सऊद का शुक्रवार को 90 वर्ष की अवस्था में निधन हो गया। अबदुल्ला की जगह अब उनके सौतेले भाई 79-वर्षीय सलमान सउदी अरब के नए शासक होंगें। शाह अब्दुल्ला की मौत के बाद उन्हें ‘मॉडर्न’ सऊदी का जनक बताया जा रहा है, उनके तारीफ में कसीदे गढ़े जा रहे हैं, कहा जा रहा है कि उन्होंने महत्वपूर्ण राजनीतिक सुधारों के जरिये सऊदी अरब को आधुनिक बनाने की कोशिश की और अल कायदा के खिलाफ युद्ध में अमेरिका का साथ देते हुए जिहादी आतंक के खिलाफ अपना सहयोग दिया।
दरअसल सऊदी अरब एक बंद और तानाशाही की जकड़बंदी झेल रहा मुल्क है, यहाँ आधुनिक दुनिया के विचारों और लोकतांत्रिक, समतावादी सोच पर पाबन्दी है और जहाँ किसी भी तरह के असहमती की सजा मौत है, यहाँ सजायें भी मध्युगीन तौर-तरीकों से ही अंजाम दिए जाते हैं। वर्ष 1926 से शाह अब्दुल्लाह और उनके खानदान के लोग इस मुल्क पर तानाशाही के तौर हुकूमत कर रहे हैं जो अपने सत्ता को कायम रखने के लिए किसी भी तरह की विपरीत आवाजों को बेहरहमी से कुचलते रहे है। लोकतंत्र की एक सामान्य सी व्यवस्था के लिए उठी मांग को तुरंत घोटने में कोई कोताही नहीं बरती गयी। इस काम में इस्लाम की ओंट का भी बखूबी इस्तेमाल किया गया है। सऊदी अरब को मानवाधिकारों के उल्लंघन खासकर मौत की सजा और महिलाओं के साथ भेदभाव को लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लगातार कड़ी आलोचना झेलनी पड़ी है। कुल मिलकर सऊदी अरब में दमन का स्तर असाधारण और इसके तरीके पूर्व आधुनिक है।
ह्यूमन राइट्स वाच के अनुसार साल 2014 के दौरान सऊदी सरकार द्वारा जिन 87 लोगों को मौत की सजा दी गई उनमें से ज्यादातर का सिर कलम किया गया था, और सवाल उठने पर अब्दुल्ला सरकार ने इसे शरीयत कानून के अनुसार की गई कार्रवाई बताते हुए जायज ठहराया था। पिछले साल अब्दुल्ला सरकार का एक शाही आदेश भी खूब चर्चित हुआ था जिसमें नास्तिकता को आतंकवाद की श्रेणी में रखते हुए इसका दोषी पाए जाने पर बीस साल तक की सजा और जुर्माने का प्रावधान किया गया था।
इसी तरह पिछले दिनों सऊदी अरब के ब्लॉगर रैफ़ बदावी को सार्वजनिक तौर पर दूसरी बार कोड़े लगाने की सज़ा को लेकर भी काफी हंगामा हुआ था। रैफी को सिर्फ एक ऑनलाइन फोरम चलाने पर इस्लाम के अपमान का दोषी बता दिया गया। इसके सजा के तौर पर उन्हें जून 2012 में गिरफ़्तार किया कर लिया गया था तथा 10 साल क़ैद और 1000 कोड़े मारे जाने की सज़ा दी गई थी। हालांकि पूरी दुनिया में विरोध की आवाजें उठने के बाद और रैफ़ बदावी की खराब सेहत की वजह से बाकी बचे 50 कोड़े रोक दी गई।
सऊदी अरब सम्भवतः इस धरती पर सर्वाधिक अपारदर्शी और अस्वाभाविक देश है, यहाँ जिंदगी विशेषकर महिलाओं के लिए आसान नहीं है। यह दुनिया का अकेला देश है जहां महिलाओं के गाड़ी चलाने पर पाबंदी है ऐसा करने पर उनकी गिरफ्तारी हो सकती है, रेप जैसे अपराध में आरोपी को सजा तभी मिल सकती है, जब उसके चार चश्मदीद हों। हर महिला का एक पुरुष अभिभावक होना जरूरी है फिर वह चाहे उसका बेटा ही क्यों ना हो, लड़कियों की शादी भी कम उम्र में कर दी जाती है, वहां की शिक्षा व्यवस्था भी लैंगिक भेदवाव का शिकार है। समाज में स्त्रियों के लिए नौकरी का कांसेप्ट स्थापित नहीं हो पाया है।
दूसरी तरह वहां के मर्दों के किस्से पूरी दुनिया में बदनाम है। हिन्दुस्तान के सन्दर्भ में ही बात करें तो हैदराबाद में खाड़ी के मर्दों के घिनोने किस्से भरे पड़े हैं। अंग्रेजी अखबार टाइम्स ऑफ इंडिया में मोहम्मद वाजिहुद्दीन ने 2005 में अपने लेख “One minor girl,many Arabs” में इनके कारनामों को बयान करते हुए लिखा था कि “नई ऊर्जा वाले ये पुराने शिकारी हैं…प्राय: दाढ़ी रखने वाले और लहराते चोंगे के साथ पगड़ी पहनने वाले ये अरब ..हैदराबाद की गलियों में मध्यकाल के हरम में चलने वाले राजाओं की याद दिलाते हैं..जिसे हम इतिहास का हिस्सा मान बैठे हैं। वियाग्रा का सेवन करने वाले ये अरब इस्लामी विवाह के नियम “निकाह ” की आड़ में शर्मनाक अपराध को अंजाम देते हैं.. ये लोग उस परिपाटी का दुरुपयोग करते हैं जिसके द्वारा एक मुस्लिम एक साथ चार पत्नियां रख सकता है.. अनेक बूढ़े अरबवासी न केवल अधिकांश नाबालिग हैदराबादी लड़कियों से विवाह करते हैं, बल्कि एक बार में ही एक से अधिक नाबालिग लड़कियों से विवाह कर डालते हैं। इनकी पहली पसंद टीन एज की कुंवारी लड़कियों होती हैं, ये अरबवासी सामान्यत: इन लड़कियों से थोड़े समय के लिए विवाह करते हैं और कभी–कभी तो केवल एक रात के लिए। विवाह और तलाक की औपचारिकता एक साथ पूरी कर ली जाती है ।अरबवासियों का यह सेक्स पर्यटन भारत तक ही सीमित नहीं है दूसरे गरीब़ देशों में भी फैला है।
2011 के दौरान अरब मुल्कों में तानाशाही के खिलाफ और आजादी, लोकतंत्र के पक्ष में हुए आन्दोलनो का सऊदी अरब मुखर विरोधी रहा है, उसे डर था की कहीं अरब बसंत की हवायें रियाद तक ना पहुँच जायें और वहां भी लोग बदलाव के लिए इस तरह की आवाजें उठाने के लिए खड़े हों जाये, इसीलिए अरब बसंत के बाद किंग अब्दुल्ला ने कुछ कानूनों में सुधार कराने की शुरुआत की। जिसके तहत सऊदी अरब में पहली बार महिलाओं को स्थानीय निकाय चुनावों में वोट डालने का अधिकार दिया गया है, सऊदी अरब जैसे कट्टर समाज में महिला को उनके अधिकार देने की दिशा इन्हें नाकाफी कि माना जायेगा ।
सऊदी अरब इस्लाम के रूढ़िवादी और असहिष्णु वर्जन “वहाबीवाद” का मुख्य पोषक रहा है, शुरआत में ओसामा बिन लादेन को सऊदी व्यवस्था ने ही पाला-पोसा था, इन सब कारनामों के बावजूद किंग अबदुल्ला और उनका खानदान हमेशा से अमेरिका के काफी करीब रहा है, एक अनुमान के मुताबिक सऊदी अरब शाही परिवार की कुल निजी संपत्ति तकरीबन 1.4 ट्रिलियन डॉलर (करीब 86 लाख करोड़ रु) है जी कि भारत की कुल जीडीपी 2 ट्रिलियन डॉलर (123 लाख करोड़ रु) के 70 फीसदी के बराबर मानी काटी है है।
दुनिया में मानवाधिकार के सबसे बड़े दरोगा और मानव-अधिकारों का उल्लंघन करने वाले सबसे बड़े राष्ट्र की इस दोस्ती पर कोई भी हैरान नहीं होता है। क्योंकि सबको पता है कि सऊदी अरब के पास बड़ी तेल संपदा हैं, और उस तक अमरीका की पहुँच में कोई रोक टोक नहीं है।
दरअसल सऊदी अरब वहाबी चरमपंथियों को समर्थन देने वाला सबसे बड़ा मुल्क है, समय- समय पर सऊदी अरब द्वारा सीरिया, इराक, यमन, लेबनान जैसे मुल्कों में चरमपंथी समूहों को लड़ाई के लिए पैसा और हथियार बांटने के खबरें उजागर होती रही हैं ।अलक़ायदा जैसे संगठन अमरीका और उसके कुछ अरब साथी देशों की ही देन हैं। दरअसल अमेरिका और उसके साथी पश्चिमी मुल्कों की ने हमेशा से ही इस्लामिक दुनिया में बैठे तानाशाहों और गैर कट्टरवादी शक्तियों की सरपरस्ती की है और अपने हितों के खातिर सिलसिलेवार तरीके से एक के बाद एक इराक में सद्दाम हुसैन, इजिप्ट में हुस्नी मुबारक और लीबिया में कर्नल गद्दाफी आदि को उनकी सत्ता से बेदखल किया है, इन हुक्मरानों का आचरण परम्परागत तौर पर सेक्यूलर रहा है। आज यह सभी मुल्क भयानक खून- खराबे और अस्थिरता के दौर से गुजर रहे हैं और अब वहां धार्मिक चरमपंथियों का बोल बाला है । सीरिया संकट में तो सऊदी अरब का हस्तक्षेप जगजाहिर है,सऊदी अरब, अमेरिका और उसके साथियों ने राष्ट्रपति बशर अल असद को हटाकर सीरियाई विद्रोहियों की हुकूमत स्थापित करने के पक्ष खुल कर काम किया है, इन्होने सीरिया विद्रोह को आज़ादी के लिए हो रहे लोकतांत्रिक आंदोलन साबित करने तक में कोई कसर नहीं छोड़ी था ।आज हम देखते हैं कि इस्लामिक स्टेट इराक़ और सीरिया के एक बड़े हिस्से पर अपना कब्ज़ा जमा चुका है, उनका मकसद चौदहवी सदी के सामाजिक-राजनीतिक प्रारुप को फिर से लागू करना हैं, जहाँ असहमतियों की कोई जगह नहीं है, उनकी सोच है कि या तो आप उनकी तरह बन जाओ नहीं तो आप का सफाया कर दिया जायेगा। एकांगी इस्लाम में विश्वास करने वाले इस्लामिक स्टेट ने तो सूफी और ग़ैर-सुन्नी मुसलमान को भी पूरी निर्ममता के साथ अपना निशाना बनाया है ,इस्लामिक स्टेट के लोग गुलामीप्रथा के वापसी की वकालत कर रहे हैं जिसमें औरतों कि गुलामी भी शामिल है , इस्लामिक स्टेट की अधिकृत पत्रिका‘”दबिक” में “गुलामी प्रथा की पुनस्र्थापना” नाम से एक लेख छपा था जिसके अनुसार इस्लामिक स्टेट अपनी कार्यवाहियों के दौरान ऐसी प्रथा की पुनस्र्थापना कर रहा है जिसे ‘शरिया में मान्यता प्राप्त है। पत्रिका में बताया गया है कि शरिया के अनुसार ही वे पकड़ी गई महिलाओं और बच्चों का बंटवारा कर रहे हैं । उनका मानना है है कि यह उनका अधिकार है कि वे इन महिलाओं के साथ जैसा चाहे सुलूक करें, वे उन्हें गुलामों की तरह भी रख सकते हैं।
आईएसआईएस के गठन में सीआईए और मोसाद जैसी खुफिया एजेंसियों की सक्रिय भूमिका की ख़बरें भी आती रही हैं। अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए के पूर्व अधिकारी एडवर्ड इस्नोडन ने खुलासा किया है कि इस्लामिक स्टेट का मुखिया अबू बकर अलबगदादी अमेरिका और इसराइल का एजेंट है और उसे इसराइल में प्रशिक्षण प्रदान किया गया। एडवर्ड के अनुसार सीआईए ने ब्रिटेन और इजरायल के खुफिया एजेंसियों के साथ मिल कर इस्लामिक स्टेट जैसा जिहादी संगठन बनाया है जो दुनिया भर के चरमपंथियों को आकर्षित कर सके, इस नीति को ‘द हारनीटज़ नीसट’ का नाम दिया गया, अमरीका के पुराने इतिहास को देखते हुए एडवर्ड इस्नोडन के इस खुलासे को झुठलाया भी नहीं जा सकता है, आखिरकार यह अमरीका ही तो था जिसने अफ़ग़ानिस्तान में मुजाहिदीनों की मदद की थी, जिससे आगे चल कर अल-क़ायदा का जन्म हुआ था। अमरीका के सहयोगी खाड़ी देशों पर आईएस की मदद करने के आरोप हैं, साथ ही इस संगठन के पास इतने आधुनिक हथियार कहां से आये इसको लेकर भी सवाल है ?
भारत के सन्दर्भ में बात करें तो अगर यहाँ के मुसलमान अभी भी अपने आप को “रेडिकल: होने से बचाये हुए है तो इसका मुख्य कारण यह है कि भारत में इस्लाम का इतिहास करीब हजार साल पुराना है और इस दौरान यहाँ सूफियों का ही वर्चस्व रहा हैं,इस दौरान इस्लाम कि अपनी भारतीय समझ भी फली – फूली है जिसका प्रभाव आज भी इस मुल्क के बहुसंख्यक मुसलमानों पर कायम है, लेकिन अब पिछली चंद घटनायें बताती है कि भारतीय मुसलमान आईएसआईएस, अलकायदा जैसे जिहादी संगठनों और सऊदी अरब पोषित वहाबी इस्लाम के निशाने पर है । इधर भारत में वहाबियत के प्रमुख स्तंभ जाकिर नाईक को “सऊदी अरब मार्का इस्लाम” कि सेवा के लिए वहां की तानाशाह सरकार ने 2015 के King Faisal International Prize (KFIP) से नवाजने का एलान किया है , जाकिर नाईक पिछले कई सालों से भारतीय इस्लाम और मुसलामानों का अरबीकरण करने का काम बखूबी अंजाम दे रहे हैं. उपदेशक डॉ जाकिर नायक और आतंकवाद और स्यूसाइड बोम्बिंग के समर्थन में बयान देकर भी काफी चर्चित रहे हैं ।
चंद सालों पहले सऊदी अरब की विख्यात नारीवादी लेखिका वाजेहा अल-हैदर ने अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा के नाम खुला पत्र लिखा था जिसके चंद हिस्सों पर नज़र डालना जरूरी है, ओबामा को संबोधित करते हुए उन्होंने लिखा था कि “माननीय राष्ट्रपति जी, …मैं मेक्सिको की खाड़ी के पक्षियों को देख रही हूँ जो काले तेल के छीटों से पूरी तरह ढ़ँक गए हैं। इनके दुख के साथ मैं सऊदी औरतों की पीड़ा की समानता देख पा रही हूँ। ये पंछी मुश्किल से हिलडुल पाते हैं, अपने जीवन पर इनका कोई नियंत्रण नहीं होता, वे स्वाधीन रूप से उड़कर ऐसी जगह नहीं जा सकते जहाँ शांति से रह सकें। यही हाल सऊदी औरतों का हैं। मैं उनकी पीड़ा से परिचित हूँ। मैंने पूरे जीवन इसे झेला है….मेक्सिको की खाड़ी की चिड़ियाँ और सऊदी अरब की महिलाएँ समान त्रासद परिस्थितियों से गुजर रहीं हैं, उन्हें अत्यंत ही दुरूह स्थितियों में अपने ही प्राकृतिक,सहज परिवेश में कैद कर दिया गया है। उन्हें मदद की ज़रूरत है ताकि वे पुन: बच सकें,जी सकें। जब आप बादशाह अब्दुल्ला बिन अब्दुल-अज़ीज़ से मिलें कृपया उनकी सहायता करें जिससे कि वे देख सकें कि सऊदी मर्दों के संरक्षण की व्यवस्था का सऊदी महिलाओं पर क्या प्रभाव पड़ा है। बच्चों को अभिभावक चाहिए, परिपक्व स्त्रियों को नहीं”।
उम्मीद के मुताबिक वाजेहा अल-हैदर नाम की इस बहादुर अरब महिला को लोकतंत्र और मानव अधिकारों के कागजी शेर से नाउम्मीदी ही हाथ लगी है।
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लेखक रिसर्चस्कालर और सामाजिक कार्यकर्ता हैं, रिसर्चस्कालर वे मदरसा आधुनिकरण पर काम कर रहे , उन्होंने अपनी पढाई दिल्ली के जामिया मिल्लिया इस्लामिया से पूरी की है पिछले सात सालों से विभिन्न सामाजिक संगठनों के साथ जुड़ कर बच्चों, अल्पसंख्यकों शहरी गरीबों और और सामाजिक सौहार्द के मुद्दों पर काम कर रहे हैं, विकास और सामाजिक मुद्दों पर कई रिसर्च कर चुके हैं, और वर्तमान में भी यह सिलसिला जारी है !
जावेद नियमित रूप से सामाजिक , राजनैतिक और विकास मुद्दों पर विभन्न समाचारपत्रों , पत्रिकाओं, ब्लॉग और वेबसाइट में स्तंभकार के रूप में लेखन भी करते हैं !
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