आपातकाल को याद रखने के निहितार्थ?

–  तनवीर जाफरी –

unnamed (1)जून 1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा देश में लगाए गए आपातकाल को हालंाकि 40 वर्षों से अधिक समय बीत चुका है। परंतु गांधी परिवार व कांग्रेस का विरोध करने वाले कुछ खास लोग इन यादों को समय-समय पर अलग-अलग तरीकों से ताज़ा रखने की कोशिश करते रहते हैं। चाहे वह आपातकाल लागू करने का दिन यानी प्रत्येक वर्ष जून की 25 तारीख हो अथवा आपातकाल के बाद नवगठित कांग्रेस विरोधी दलों के गठबंधन के रूप में उस समय के मुख्य विपक्षी राजनैतिक दल जनता पार्टी  के जनक जयप्रकाश नारायण की जन्मतिथि अथवा उनकी पुण्य तिथि। पिछले दिनों इसी सिलसिले में एक बार फिर नई दिल्ली के विज्ञान भवन में लोकनायक जयप्रकाश नारायण की 113वीं जयंती के अवसर पर लोकतंत्र के प्रहरी नामक कार्यक्रम में आपातकाल के समय की ज़्यादतियों को रेखांकित किया गया। इस अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने महत्वपूर्ण उद्गार व्यक्त किए। मोदी ने कहा कि आपातकाल की यादों को बनाए रखने की ज़रूरत है ताकि देश के लोकतांत्रिक ढांचे व मूल्यों को और मज़बूत बनाने के लिए इससे सबक लिया जा सके। आपने फरमाया कि आपातकाल लोकतंत्र पर सबसे बड़ा आघात था। ऐसे प्रत्येक अवसरों की भांति इस वर्ष भी आपातकाल के विरुद्ध संघर्ष करने वाले तथा जेल जाने वाले कई लोगों को सम्मानित भी किया गया। सम्मानित होने वाले कुछ प्रमुख नेताओं में लाल कृष्ण अडवाणी,चार भाजपाई राज्यपाल कल्याणसिंह,ओपी कोहली,बलराम दास टंडन तथा बजु भाई बाला,लोकसभा के पूर्व डिप्टी स्पीकर करिया मुंडा,भाजपा के ही नेता वीके मल्होत्रा,सुब्रमण्यम स्वामी तथा जयवंती बेन मेहता के अतिरिक्त शिरोमणी अकाली दल के प्रमुख व पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल के नाम उल्ल्ेाखनीय हैं। यही वह अवसर भी था जबकि प्रधानमंत्री मोदी ने प्रकाश सिंह बादल को भारत का नेल्सन मंडेला भी घोषित किया।

आपातकाल निश्चित रूप से इस मायने में आलोचना के निशाने पर रहता है कि उन दिनों प्रेस पर सेंसरशिप लगाकर लोकतंत्र के चौथे स्तंभ का गला घोंट दिया गया था। परंतु देश की निष्पक्ष सोच रखने वाली जनता तथा प्रशासन व व्यवस्था के सुचारू रूप से संचालन की उम्मीदें रखने वाले देशवासी आपातकाल के दौरान सबकुछ व्यवसिथत व ठीकठाक चलने पर पूरी तरह से खुश व संतुष्ट भी थे। उदाहरण के तौर पर प्रत्येक सरकारी कार्यालय के कर्मचारियों व अधिकारियों को निर्धारित समय पर अपने काम पर पहुंचना होता था। यह स्थिति समय पर पहुंचने वाले और लेट-लतीफी के आदी रह चुके कर्मचारियों के लिए तो दु:खदायी हो सकती थी परंतु आम लोग जो कर्मचारियों की लेट-लतीफी की आदतों से दु:खी थे उनके लिए यह बेहद संतोषजनक स्थिति थी। बसों व रेलगाडिय़ों का निर्धारित समय पर परिचालन जनता को काफी राहत पहुंचा रहा था। रिश्वतखोरी और दलाली बंद हो चुकी थी। सांप्रदायिक दंगे और दंगाईयों पर पूरी नकेल कसी जा चुकी थी। धरना-प्रदर्शन,तालाबंदी व हड़ताल जैसे तथाकथित ‘लोकतांत्रिक अधिकार’ खत्म किए जाने के चलते देश की आर्थिक स्थिति में सुधार होने लगा था। ले-देकर यदि एमरजेंसी में सबसे अधिक कष्ट उठाया भी तो महज़ उन कांग्रेस विरोधी नेताओं ने जिन्हें लगभग 19-21 महीने तक जेल की हवा खानी पड़ी। निश्चित रूप से नेताओं को इस प्रकार जेल में डालना और उनकी आवाज़ को दबाने का प्रयास करना लोकतंत्र का गला घोंटने के समान ही था। परंतु पिछले दिनों नई दिल्ली के विज्ञान भवन में जिस अंदाज़ से और जिस समय स्वर्गीय लोकनायक जयप्रकाश को याद किया गया और जिन लोगों को सम्मानित किया गया उसे देखकर कई तरह के सवाल पैदा होते हैं।

एक तो यह कि बिहार चुनाव के दौरान जेपी को याद करने के उद्देश्य से उनकी जन्मतिथि पर हुए इस आयोजन में जिन उपरोक्त नेताओं को खासतौर पर जिन भाजपाई नेताओं को सम्मानित किया गया क्या जेपी की विचारधारा उन दक्षिणपंथी नेताओं की विचारधारा से मेल खाती थी? यदि सम्मानित करना ही था तो क्या दूसरे गैर कांग्रेसी दलों के नेता क्या आपातकाल की ज़्यादतियों का शिकार नहीं हुए थे? क्या उन्हें इस अवसर पर सम्मान पाने का कोई अधिकार नहीं था? मुलायम सिंह यादव,शरद यादव,लालू प्रसाद यादव,सीताराम येचुरी सहित और कई कम्युनिस्ट नेता, नितीश कुमार,चौधरी देवीलाल,कर्पूरी ठाकुर जैसे सैकड़ों गैर भाजपाई नेता भी ऐसे थे जो आपातकाल में हुई ज़्यादतीयों को सहन करने हेतु सम्मान पाने के अधिकारी हो सकते थे। परंतु उन्हें न तो याद किया गया न ही ऐसे नेाताओं या उनके किसी प्रतिनिधि को बुलाकर सम्मानित किया गया। प्रकाश सिंह बादल को सम्मानित करने के साथ-साथ नेल्सन मंडेला भी इसीलिए बता दिया गया क्योंकि वे घोर कांग्रेस विरोधी विचारधारा रखने के साथ-साथ भाजपा व नरेंद्र मोदी के सहयोगी भी हैं। यह आयोजन इस ढंग से प्रचारित किया गया गोया आपातकाल के सबसे बड़े भुक्तभोगी केवल भाजपाई नेता ही रहे हों। जबकि 1977 में आपातकाल हटने के बाद हुए चुनाव में मात्र ढाई वर्षों बाद 1979 में जनता पार्टी रूपी विशाल कांग्रेस विरोधी मोर्चा केवल जनता पार्टी की दोहरी सदस्यता के विरोध में ही ध्वस्त हुआ था। यानी सभी गैर भाजपाई व गैर कांग्रेसी दलों व उनके नेताओं ने कांग्रेस की ही तरह भाजपा से भी फासला बना लिया था। ज़ाहिर है आज देश में भाजपा का जो रंग दिखाई दे रहा है गैर भाजपाई नेता इस रंग से भलीभांति परिचित थे।

प्रधानमंत्री ने जेपी की जन्मतिथि के अवसर पर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पर निशाना साधते हुए यह भी कहा कि ‘इंदिरा को देश के भीतरी हालात के बारे में िफक्र नहीं थी और वह अपनी वैश्विक स्तर की छवि को लेकर ज़्यादा चिंतित रहती थीं’। इस विषय पर प्रधानमंत्री मोदी स्वयं क्या कर रहे हैं, देश के भीतरी हालात की उनको कितनी िफक्र है और अपनी अंतर्राष्ट्रीय स्तर की छवि बनाने के लिए वे स्वयं क्या नहीं कर रहे हैं यह बात भी देशवासियों से छुपी नहीं है। पूरा देश इस समय सांप्रदायिकता के तनाव के दौर से गुज़र रहा है। डेढ़ वर्षों में पूरे देश में रिकॉर्ड संाप्रदायिक घटनाएं घट चुकी हैं। भारतीय जनता पार्टी के खाते में 1992 की अयोध्या घटना तथा 2002 के गुजरात दंगे जैसे काले अध्याय लिखे जा चुके हैं। एक-एक कर एक दर्जन से अधिक लेखक व साहित्यकार अपने सम्मान व पुरुस्कार यहां तक कि पदमश्री तक देश के इन्हीं चिंताजनक हालात से दु:खी होकर वापस लौटा रहे हैं। यह घटनाएं आपातकाल के दौर से कहीं ज़्यादा देश को कलंकित कर रही हैं। दुनिया में इन घटनाओं की चर्चा हो रही है। गुजरात दंगों का जिन्न तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का अभी भी पीछा नहीं छोड़ रहा है। परंतु नरेंद्र मोदी व उनकी पार्टी के नेता देश में अब तक का सबसे बड़ा हादसा या तो आपातकाल को मानते है या फिर 1984 के अफसोसनाक सिख विरोधी दंगों को। जो निश्चित रूप से बेहद शर्मनाक और देश की बदनामी का कारण थे। परंतु वे काले अध्याय की सूची में 1992 और 2002 को शामिल नहीं करते। क्या यह घटनाएं देश के लिए काला अध्याय नर्हीं है’।

भारतवर्ष में और भी अनेक ऐसी घटनाएं हुए हैं जिन्हें देश के चेहरे पर एक बदनुमा दाग समझा जाता है। मिसाल के तौर पर महात्मा गांधी की हत्या जिसे देश की पहली राजनैतिक हत्या माना जाता है वह देश के इतिहास का सबसे काला अध्याय थी। देश में रेलमंत्री ललित नारायण मिश्र की समस्तीपुर रेलवे स्टेशन पर बम धमाका कर हत्या कर दी गई थी। वह भी एक बड़ी दुर्घटना थी तथा भारतीय लोकतंत्र पर वह घटना भी एक बदनुमा दाग थी। परंतु उनकी जन्मतिथि अथवा पुण्यतिथि मनाकर उन्हें याद इसीलिए नहीं किया जाता क्योंकि ललित नारायण मिश्रा को याद करने से देश में आपातकाल लागू करने की घोषणा के कारणों में से एक प्रमुख कारण का भी देशवासियों को पता चलता रहेगा। ज़ाहिर है कांग्रेस विरोधी खासतौर से भाजपाई नेता ऐसा नहीं चाहते। वे केवल इसी बात को रेखांकित करते हैं कि इंदिरा गांधी तानाशाह थीं और अपने को सत्ता में बनाए रखने के लिए तानाशाहीपूर्ण रवैया अपनाते हुए उन्होंने देश में आपातकाल की घोषणा की और लोकतंत्र का गला घोंटते हुए भारतीय प्रेस पर सेंसरशिप लगा दी। फिर भी कांग्रेस पार्टी व गांधी परिवार के विरोध के परचम को बुलंद रखने के उद्देश्य से और जनता की हमदर्दी हासिल करने के लिए स्वयं को आपातकाल पीडि़त जताने हेतु यदि इंदिरा गांधी की तानाशाही के  शिकार आपातकाल के भुक्तभोगियों को याद करना ही है तो कम से कम समाजवादी व कम्युनिस्ट दलों से संबंध रखने वाले उन सभी नेताओं को भी याद करना चाहिए व उन्हें सम्मानित करना चाहिए जिन्होंने आपातकाल के दौरान ज़्यादतियां सहीं तथा जेल की सलाखों के पीछे उन्हें भी अपने जीवन के कई महत्वपूर्ण महीने गुज़ारने पड़े।

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Tanveer-JafriAbout the Author

Tanveer Jafri

Columnist and Author

Tanveer Jafri, Former Member of Haryana Sahitya Academy (Shasi Parishad),is a writer & columnist based in Haryana, India.He is related with hundreds of most popular daily news papers, magazines & portals in India and abroad. Jafri, Almost writes in the field of communal harmony, world peace, anti communism, anti terrorism, national integration, national & international politics etc.

He is a devoted social activist for world peace, unity, integrity & global brotherhood. Thousands articles of the author have been published in different newspapers, websites & news-portals throughout the world. He is also a recipient of so many awards in the field of Communal Harmony & other social activities

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