1- धुल गए सब सुख सिंदूर के साथ ही
ये किसने सांकल खटखटाई
शायेद कोई अपना हो
दौड कर खोला द्वार परंतु
मतिभ्रम -है सब अपने तो
तभी हुए थे पराये जिस पल
धुल गया सिंदूर साथ ही धुल सब गए सुख
तन को जीते जी दिया गया कफन
घर में एक कोना भी नहीं बचा
सुदूर भेज दिया बोझ जो थी
उन्ही अपनों पर जो लाये थे
बड़े चाव से घर की लक्ष्मी
और उनके लिए भी जिनकी बेटी थी
जो सब अपने थे पुत्र था पुत्रबधू भी
बस सात फेरों का नाता जिससे था
उसकी साँस टूटते ही हर डोर टूट गई
बदल गया रावरंग बदल गए नाते
सबकी आँखों में एक ही सवाल
आखिर हम ही क्यों ?
हम पर ही यह सब क्यों
चूड़ियों के साथ क्यों टूटते है
आज भी सुखों से नाते
सिंदूर धुलते ही सब रंग धुल जाते हैं
भूख भी मार दी जाती है
मृत्यु की प्रतीक्षा करने को
छोड़ दिया जाता है हमें अछूत बना कर
उसके धाम में जो जग को जीवन देता है
भजन गा गा कर प्रतीक्षा किया करते हैं मृत्यु की
कभी हथेली भी फैलती है दो रोटियों के लिए
और घिसटती रहती है जिंदगी दूसरों की दया पर
कातर आँखे देखती है रास्ता फिर भी
उन्ही अपनों का जो अपने थे ही नहीं –
कहाँ मिलेगा इनके प्रश्नों का उत्तर –
यह एक जैसी औरतें इनकी एक सी ही परिस्तिथियाँ
एक सी शक्लें भी हो जाती है जिनकी
सब की सब विधवाएं कहलाती हैं वह
सूनी आँखे चमक उठती है कुछ याद करके
एक दूसरे से बांटती है सब सुख दुःख
झगड़ती है खीजती है और रोती है
एक दूसरे से लिपट कर भीगता है
उनका आंचल दूसरे की आँखों के जल से
शायेद एक ही प्रश्न कौंधता है सबके मन में
अगर हम मर गई होती तो क्या होता
कोई बोल भी पड़ती कभी -तो दूसरी उत्तर देती
कुछ नहीं होता पगली फिर एक नया उत्सव होता
और सिंदूर नई कोरी मांग में सजा दिया जाता
उफ़ –फिर खटकी कुण्डी फिर बजी सांकल
टूट गई सोच की पीड़ादायक श्रृंखला जानती हूँ
पता था कोई अपना न होगा फिर भी आतुर मन का क्या
देखा कोई न था हवा थी जो तेज झोंके से
टूटे किवाड़ों की सांकले बजा गई –
परंतु अब तो प्रतीक्षा है जिसकी
वह क्यूँ नहीं आती –झुकी कमर
धुधली दृष्टि से ढूंढती फिरती हूँ अब
तंग गलियों में –साक्षी हैं अब तो
हर मंदिर की मूर्तियां भी -जो सुनती है
भजनों में गूंजता जीवन का विलाप
यही नियति है हमारी आज भी
ना जाने कितने स्त्री विमर्श होते हैं कानून बनते हैं
परंतु हमारे शव आज भी संस्कार नहीं पाते
उन्हें अग्नि नहीं मिलती — कभी सोच कर देखो
भजन करते मंजीरो और मंदिरों की घंटियों के साथ
सिसकते हुए नन्हा बचपन कब झुर्रियों में बदल जाता है
इन सैकड़ों जोड़ी आँखों में नमी तो मिलेगी
परंतु सूखी हुई जिनमे अब कोई सपना नहीं पनपता
हम धाम की जीती जागती प्रेतात्माओं को भला
कहाँ अधिकार है अब सुर सजाने का
हम तो बस भजनों में अपना विलाप
और धूप बत्तियों में अपना दुःख सुलगा कर
उस परमात्मा को समर्पित करते हैं –
जो हमे नित्य देखते हैं मूर्ति स्वरूप में
हम है वृन्दावन की अभिशप्त विधवाएं
2- ये तितलियाँ -क्यूँ बदल जाती हैं ?
कभी सोचा है किसी ने
छोटी मासूम तितलियाँ
ततैया जैसी क्यूँ बन जाती है
नहीं न –तो सोचो
कहाँ कहाँ से गुजरती हैं
अपनी मिठास खो कर
जब नीम सी कड़वी
जुबान हो जाती है
वो उगलती है
वैसी ही गालियाँ
जो माँ देती है गली में
खड़े शोहदों को –तो कभी
बड़े घरों के साहबों को
झुग्गी बस्तियों में उम्र से पहले ही
समझदार हो जाती हैं ये बच्चियां
वो क्या बताएं जब सुबह
वो बाहर नहाती हैं एकलौते
म्युनिसपलटी के नल पर
तो सामने बालकनी से
दादा पोते दोनों घूरते हैं
पकडे जाने पर बडबडाते भी
कितनी बेशर्मी फैला रखी है
सरकार कुछ करती भी नहीं
वी आई पी कालोनी का कबाड़ा
बना के रख दिया इन झुग्गीवालों ने
तब कड़वी हो जाती है
इनकी की जुबान —–
साले -नासपीटे काहे नहीं
बनवा देते गुसलखाना —
और तो और आज जब
वो कोठी वाला साहब बड़े
प्यार से कहने लगा
कोई जरूरत हो तो मुझे
कहना —-पर उसकी
नज़रें भटक रही थी
कहीं कहीं फटी हुई
ड्रेस के आर पार
तब भी कड़वी हुई थी जुबान
हरामी कमीना पहचानता भी
नहीं ये ड्रेस उसकी बेटी की ही तो है
कैसे पहचानता वो उसे —
बेटी की उम्र की ये नन्ही लड़की
औरत का जिस्म ही तो लगी थी
ये कड़वी जुबान कभी कभी
बचा ले जाती है इन्हें
यही तो एक मात्र हथियार है
इनका –पर इनका मन तितलियों जैसा है
जो देखना हो तो देखो कभी
जब इकट्ठी होती है ये
इतवार वाली फुटपाथ बाज़ार में
नन्ही नन्ही चहकती चिडयों जैसी
छोटी छोटी खुशियाँ खरीदती हुई
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दिव्या शुक्ला
लेखिका व् समाजसेविका
सोशल एक्टिविष्ट सेव वुमेन सेफ वुमेन पर काम कर रहीं हैं !
संपर्क – :
निवास : लखनऊ – ईमेल – : divyashukla.online@gmail.com
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